पूर्णिमा दास
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पूर्णिमा दास
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गीता कोड़ा
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भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी, बसपा सांसद दानिश अली पर गालियां, अशोभनीय टिप्पणी और अपमानजनक शब्दों की बौछार करने लगे। उनके अल्पसंख्यक होने को लेकर गालियां दी गईं, उन्हे आतंकवादी कहा गया, धिक्कारा गया और साथ ही ‘बाहर देख लेने’ की धमकी भी दी गई। संसद में अब तक किसी सांसद ने इतनी घृणित भाषा का इस्तेमाल नहीं किया था लेकिन वर्तमान मोदी सरकार के एक सांसद वो कर गए जो वाकई भारत जैसे देश और उसकी संसद के लिए एक कलंकित इतिहास बन गया, यह संसदीय इतिहास के एक ऐसे पन्ने के रूप में अंकित हो गया है जिस पर संसद का सर शर्म से झुक गया है।
भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में लोकसभा अध्यक्ष का पद संविधान के अनुच्छेद-93 में दिया गया है। स्वतंत्रता और निष्पक्षता इस पद की अनिवार्य शर्तें हैं। सदन की कार्यवाही व संचालन के लिए नियम व विधि का निर्वहन करना उसका प्राथमिक कर्त्तव्य है। लोकसभा के सभी सांसद अपने पीठासीन अधिकारी, लोकसभा अध्यक्ष द्वारा ही सुरक्षा और आश्रय प्राप्त करते हैं। ऐसे में एक अल्पसंख्यक सांसद को आतंकवादी कहे जाने पर भी अध्यक्ष का चेतावनी देकर छोड़ना प्रश्न अवश्य खड़े करता है। आम नागरिक भले ही इन प्रश्नों को दबा ले लेकिन किसी अल्पसंख्यक सांसद को उसकी अल्पसंख्यक धार्मिक स्थिति के कारण संसद में गालियां सुनने पर बाध्य होना अशोभनीय है। यह सिर्फ एक सांसद की बात नहीं, किसी दल की बात नहीं पूरी संसदीय परंपरा को पतन से बचाने की बात है।
जिस पद को वरीयता क्रम में भारत के मुख्य न्यायधीश(CJI) के साथ संयुक्त रूप से 7वें स्थान पर रखा गया है वो अपने ही सदन के सांसद की, न ही गरिमा की रक्षा करते दिख रहे हैं और न ही उन्हे न्याय देते प्रतीत हो रहे हैं। मुझे यह ज्ञान है कि लोकसभा के अध्यक्ष के कार्यों व आचरण की चर्चा व आलोचना जब लोकसभा में ही नहीं की जा सकती है, जब लोकसभा को विनियमित और व्यवस्थित रखने की उसकी शक्ति को भारत के किसी न्यायालय में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है तब मुझे इस पद के बारे में बोलने का कितना सीमित अधिकार है। लेकिन इसके बावजूद, भारत का नागरिक होने के अधिकार से, मैं यह महसूस करती हूँ कि भारत का संविधान भारत के किसी भी पद से सर्वोच्च है, ऐसे में प्रस्तावना में निहित ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘समानता’ और ‘भाईचारा’ जैसे मूल्यों में दिखती गिरावट पर एक सभ्य आलोचना करने का अधिकार तो मुझे है ही। मुझे इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि रमेश बिधूड़ी माफी मांगते हैं या नहीं, भाजपा के नेता या स्वयं पीएम मोदी खेद प्रकट करते हैं या नहीं, नागरिक होने के नाते मुझे सिर्फ इससे फ़र्क पड़ेगा कि क्या ऐसी कोई कार्यवाही तत्काल की गई जिससे देश के अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का संदेश गया या नहीं?, संसद की गरिमा, निष्पक्षता और स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई या नहीं?
भारत के संविधान का अनुच्छेद-105 स्पष्ट रूप से कहता है कि ‘संसद में वाक्-स्वातंत्र्य होगा’ साथ ही ‘संसद के किसी सदस्य द्वारा कही किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी’।सर्वोच्च न्यायालय ने तो यहाँ तक कहा है कि अनुच्छेद-105(2) में लिखा हुआ ‘कुछ भी’(Anything) वास्तव में संसद सदस्यों को ‘सबकुछ’(Everything) कहने की आजादी देता है। लेकिन न्यायालय ने यह भी कहा है कि संसद वास्तव में “कार्यपालिका की जवाबदेही तय करने का मंच" है।
संविधान निर्माताओं ने भविष्य की संसद और इसके सदस्यों से इतना नीचे गिरने की आशा नहीं की होगी शायद इसीलिए उन्होंने संसद और इसके सदस्यों को न्यायिक हस्तक्षेप से पूर्णतया मुक्त रखा। उन्हे नहीं पता रहा होगा कि जिस सरकार/कार्यपालिका पर जवाबदेही सुनिश्चित करने और विपक्ष की आवाज को बुलंद रखने के लिए इस अनुच्छेद का प्रावधान किया गया है वो एक दिन भारत की एकता और अखंडता को चुनौती देने लगेगा। देश के करोड़ों मुसलमानों को क्या एहसास हो रहा होगा जब उनके बीच से चुनकर गया एक व्यक्ति जो देश की इतनी सुरक्षित और मजबूत संस्था में पहुँचने के बाद भी धमकी और गाली खा सकता है तब अन्य सामान्य नागरिक अल्पसंख्यकों को अपनी निरीहता का कितना एहसास होता होगा।
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