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भारत महिलाओं के लिए असुरक्षित?

प्रसिद्ध अमेरिकी फ़िल्म समीक्षक रोज़र जोसेफ़ ऐबर्ट ने जब 2002 में आयी गैस्पर नोए की फ़्रेंच फ़िल्म ‘इर्रिवर्सिबल’ की समीक्षा की, तो उन्होंने लिखा कि "यह फिल्म इतनी हिंसक और क्रूर है कि अधिकांश लोग इसे देखने लायक नहीं समझेंगे"। अपनी तरह की बिलकुल नई इस फ़िल्म को इसके नाम के अनुरूप अंत से शुरुआत की ओर फ़िल्माया गया है। 97 मिनट की इस फ़िल्म में 11 मिनट का एक रेप सीन है। इसी ख़तरनाक़ दृश्य को लेकर ऐबर्ट को लगा था कि फ़िल्म बहुत हिंसक है और लोग इसे देख नहीं सकेंगे इसलिए नहीं देखेंगे। प्रतिष्ठित पामोडियर जीतने वाली यह फ़िल्म 2002 में हमारे समाज की एक हिंसक, क्रूर पर गहरी सच्चाई को प्रदर्शित कर रही थी, जिसका संबंध महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रही यौन हिंसा से था। फ़िल्म में फ़िल्माया गया यह दृश्य निश्चित ही बेहद क्रूर और भयभीत कर देने वाला है और यह पुरुषों के मन में महिलाओं के प्रति गहरी पैठ बनाए हुए हिंसक नज़रिए को बिल्कुल स्पष्ट तौर पर दर्शाता भी है। यह दृश्य पुरुषों द्वारा, महिलाओं को मात्र एक ‘देह’ और ‘ऑब्जेक्ट’ से अधिक न मानने की प्रवृत्ति को भली भांति दिखाता है। साथ ही यह दृश्य पुरुषों में गहरे तक व्याप्त ‘कायरता’ का भी प्रदर्शन करता है जिसकी पुष्टि तब होती है जब महिलाओं द्वारा किए जाने वाले विरोध के जवाब में पुरुषों के अंदर की हिंसा और घृणा का उन्माद अपने नग्न स्वरूप में सामने आ जाता है। 

शायद 2002 में यह फ़िल्म तमाम लोगों को, मुख्यरूप से भारत में ‘यथार्थ’ नहीं लगी होगी लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि 2013 (निर्भया) आते-आते सभी यह मानने लगे होंगे कि बलात्कार और महिलाओं के साथ की जाने वाली वीभत्स हिंसा अब एक कड़वी सच्चाई है। 2013 जैसी घटनाओं की दर अब लगातार बढ़ती जा रही है। इस संबंध में बिल्कुल नया मामला कोलकाता में जूनियर डॉक्टर के साथ हुई घटना है। यहाँ भी बलात्कार और उसके बाद महिला के साथ की गई हिंसा बेहद परेशान करने वाली है।

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डराने वाली बात यह है कि समाचार, अख़बार, शासन और सत्ता इन ख़बरों को लेकर बेहद उदासीन होते जा रहे हैं। मणिपुर में 2 साल पहले जिस तरह भीड़ ने दो महिलाओं के साथ दरिन्दगी की थी और उसके बाद मीडिया और सत्ता का जो रवैया था वह डराने वाला है। देश की महिला राष्ट्रपति और मणिपुर की महिला राज्यपाल ने कोई सकारात्मक और ज़रूरी क़दम नहीं उठाया। मणिपुर के बीजेपी के मुख्यमंत्री को बर्खास्त नहीं किया गया, भारत के प्रधानमंत्री तब से अभी तक एक बार भी मणिपुर नहीं गये हैं और सबसे ज़रूरी बात मीडिया, जिसमें महिलाओं की अच्छी-ख़ासी संख्या है वो भी इस मुद्दे पर सरकार से सवाल करने में जानबूझकर विफल रहा है। 

यह लोकतंत्र के स्तंभों की विफलता ही तो है जो अपराधियों को शक्ति प्रदान करती है। इसी वजह से इंजीनियरिंग की एक छात्रा को बलात्कार की अपनी शिकायत पुलिस में दर्ज करवाने के लिए निराश और मजबूर होकर निर्वस्त्र होना पड़ता है। ताकि वह एक सत्याग्रही की तरह संदेश दे सके कि जिनसे वह न्याय मांग रही है वह भी उसे सुन नहीं रहा है इसलिए उसे इस तरह अपमानित होकर प्रदर्शन करना पड़ता है (आगरा); इसी वजह से दो लड़कों की इतनी हिम्मत बढ़ जाती है कि वो दिन दहाड़े 13 साल की नाबालिग लड़की को घर से उठा ले जाते हैं, बलात्कार करते हैं और जब पुलिस में शिकायत करने की बात आती है तो गाँव की पंचायत विरोध करने लगती है, परेशान होकर लड़की आत्मदाह कर लेती है (बरेली); इसी वजह से एक आदमी पड़ोस में रहने वाली 8 साल की बच्ची को घर से उठा ले जाता है और बलात्कार करने के बाद उसे और उसकी माँ को जान से मारने की धमकी देता है (आगरा)।

महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध अब घृणित राजनीति का अभिन्न हिस्सा हो गए हैं। नेता न्याय के साथ नहीं हैं बल्कि अपनी कुर्सी/सत्ता को बचाने में लगे हुए हैं और मीडिया को चिंता है कि कहीं उसको मिलने वाले सरकारी विज्ञापन कम न हो जायें, कहीं सत्ता से संबंध न ख़राब हो जायें, भले ही इसके लिए चाहे 50% आबादी का अस्तित्व ही क्यों न ख़तरे में पड़ जाये। इर्रिवर्सिबल(2002) से 30 साल पहले भारत में अरुणा शौनबाग का मामला आ चुका था। 25 साल की अरुणा, जो कि एक नर्स थीं, उन्हें मुंबई के किंग्स एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में संविदा पर काम करने वाले एक सफ़ाई कर्मचारी, सोहनलाल वाल्मीकि के वहशीपन का शिकार होना पड़ा था। सोहनलाल की धूर्तता के लिए उसे सिर्फ़ 7 सालों की सजा हुई और अरुणा 40 सालों तक कोमा में पड़ी रहीं। एक कायर और कमजोर पुरुष शायद अपनी हर क़िस्म की कमजोरी का कारण एक महिला को समझता है, उस पर हिंसा करके, उसे यौन यातना देकर, उसे बेइज्जत करके, उसके प्रतिरोध और विरोध को बंद करके वह अपनी कुंठा पर विजय पाना चाहता है।
विमर्श से और
हज़ारों वर्षों तक दलितों का शोषण हुआ, संविधान ने इसका संज्ञान लिया, संविधान में उनको सुरक्षा प्रदान की गई, बाद में क़ानून भी बनाया गया, तथाकथित रूप से इस क़ानून के दुरुपयोग की ख़बरों के बावजूद यह अभी भी क़ायम है, लेकिन कम से कम यह तो कहा जा सकता है कि दलितों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय के प्रत्युत्तर में न्याय की प्रक्रिया जारी है। लेकिन इस देश की आधी आबादी का क्या?
हज़ारों वर्षों का अन्याय तो महिलाओं ने भी सहा, लेकिन महिलाओं को सुरक्षा देने के लिए क़ानून और संविधान ने बहुत हाथ सिकोड़कर काम किया है। ऐसा क्यों हुआ होगा? कभी सोचा है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि दलितों से लेकर तथाकथित सवर्णों तक, बेरोज़गारों से लेकर धनपतियों तक और नेताओं/अभिनेताओं व अधिकारियों से लेकर न्यायधीशों तक सभी के दामन में महिला शोषण की घिनौनी छींटें मौजूद हैं। जस्टिस हेमा कमेटी की रिपोर्ट और 2017 में शुरू हुए ‘मी टू’ आंदोलन ने कम से कम यही साबित किया। पूरी दुनिया में, हर समूह, वर्ग और विचारधारा के लोगों के नाम महिलाओं के यौन शोषण के सिलसिले में सामने आने लगे थे। भारत में मलयालम फ़िल्म उद्योग के कुछ लोगों को बचाने के लिए केरल की वामपंथी सरकार ने हेमा कमेटी की रिपोर्ट को 5 सालों तक लोगों के सामने आने ही नहीं दिया, अब जब आयी भी है तो उसमें से 40 से अधिक पन्नों का खुलासा नहीं किया गया है। पता नहीं, इसके पीछे क्या कारण होगा?

देश में धीरे धीरे महिलाओं के लिए ख़तरा बढ़ता ही जा रहा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2020 के बाद से लगातार महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों का आँकड़ा अत्यधिक बढ़ा है। कोई कमेटी, कोई क़ानून, कोई निर्णय और नीति काम नहीं आ रही है। इसके पीछे का कारण है, महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों को राजनैतिक, धार्मिक और जातीय चश्मे से देखना। एक मुस्लिम महिला, बिल्किस बानो, के साथ गैंग रेप करने वाले 11 अपराधियों को गुजरात सरकार ने जेल से छोड़ दिया था, 2020 में 19 वर्षीय दलित लड़की के साथ गैंगरेप और हत्या करने वाले जाति से ठाकुर लड़कों के समर्थन में भाजपा के पूर्व विधायक राजवीर सिंह पहलवान के नेतृत्व में रैली की गई, ऐसी ही एक रैली कठुआ (जम्मू एवं कश्मीर) में 8 वर्षीय बच्ची के बलात्कार व हत्या के आरोपी के समर्थन में भाजपा नेताओं द्वारा की गई। आश्चर्य की बात तो यह है कि जो प्रधानमंत्री मोबाइल के टेक्स्ट मैसेज से लेकर, व्हाट्सऐप, ईमेल, वेबसाइट, सोशल मीडिया, रेडियो, टीवी सबसे जुड़ा है, उसे इन मुद्दों पर खुलकर विरोध करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई।

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देश के सर्वोच्च नेताओं की आवाज सिर्फ़ तब सुनाई दी, जब महिलाओं के यौनशोषण का मामला किसी ऐसे राज्य से आया जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है, जैसे- पश्चिम बंगाल। यहाँ तो राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी लग रहा है कि ‘बहुत हो चुका’। दो दिन पहले ही यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी की सरकार महिलाओं को सुरक्षा देने में विफल रही है। जबकि यूपी के मुख्यमंत्री खुद के लिए बोलते हैं कि उनके लिए महिला सुरक्षा सबसे पहली प्राथमिकता है। उत्तर प्रदेश के हालात देखकर लोग कहेंगे कि मुख्यमंत्री को अपने प्रदेश का ज्ञान ही नहीं है या तो वे जानबूझकर खुद की ओर उँगलियाँ नहीं उठाना चाहते। 

पश्चिम बंगाल का मामला तो अब सुप्रीम कोर्ट और सीबीआई की निगरानी में है। ममता बनर्जी सरकार निश्चित रूप से महिला सुरक्षा को लेकर कम, अपनी सत्ता को लेकर ज़्यादा सतर्क नज़र आयी है। लेकिन उत्तर प्रदेश में हालात बदतर हैं। ऊपर बताई गई घटनाओं के अलावा, यदि मात्र अगस्त-2024 की घटनाओं को ही देख लें तो आपके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक जाएगी। 

अयोध्या में 4 साल की दलित लड़की के साथ 35 साल के आदमी ने बलात्कार किया (27 अगस्त, UP); मेरठ में 37 साल के एक दुकानदार का नाम सामने आया है जो कई दिनों से अपने ही मोहल्ले के बहुत से बच्चों के यौन शोषण में लिप्त था और उनके वीडियो बनाकर उन्हें धमकी देता था, पैसा वसूलता था (27 अगस्त, UP); मथुरा में नशीला पदार्थ पिलाकर 16 साल की एक नाबालिग लड़की का दो लड़कों ने गैंगरेप किया (11 अगस्त, UP); सोनभद्र के एक टीचर ने एक नाबालिग लड़की का बलात्कार किया, 20 दिनों से अस्पताल में इलाज चल रहा था, अंततः लड़की की मौत हो गई (17 अगस्त, UP); बुलन्दशहर में कार्यरत 57 साल के कृषि विकास अधिकारी ने 6 साल की दलित बच्ची के साथ बलात्कार किया(11 अगस्त, UP); कानपुर में 70 साल के एक व्यक्ति ने नाबालिग का यौन शोषण किया(13 अगस्त, UP); बलिया में 22 साल के एक व्यक्ति ने पहले 11 वर्षीय नाबालिग का बलात्कार किया और इस कृत्य का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डाल दिया (10 अगस्त, UP); सहारनपुर में 28 साल के आदमी ने अपनी पत्नी की नाबालिग बहन के साथ बलात्कार किया (9 अगस्त , UP); बरेली में 35 साल के एक आदमी ने पड़ोस में रहने वाली 85 वर्षीय वृद्ध महिला का बलात्कार किया, महिला की मौत हो गई (1 अगस्त, UP)। इन ख़बरों से यह पता करना कठिन नहीं है कि UP के मुख्यमंत्री का अपने प्रदेश के बारे में दावा और अन्य प्रदेश के बारे में आरोप कितना दमदार है। 

महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के पीछे एक अन्य कारण, न्यायपालिका की उदासीनता भी है। आख़िर कैसे बलात्कार का आरोपी राम-रहीम क़ानून की आड़ में और राजनीति के संरक्षण में बार बार पेरोल पर बाहर आ जाता है?

कोर्ट ना जाने क्यों ढेरों बच्चियों और महिलाओं का यौन शोषण करने वाले आसाराम को ‘आयुर्वेदिक’ इलाज के नाम पर जेल से बाहर आने देती है? पता नहीं क्यों और कैसे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट, वाराणसी में स्थित, देश दुनिया के प्रतिष्ठित संस्थाओं में से एक, BHU, में होने वाली यौन हिंसा के आरोपियों को छोड़ दिया जाता है?

महिलाओं की सुरक्षा किसी राजनैतिक दल की पूँजी नहीं है जिसे मौक़े पर खर्च किया जाय। लेकिन यही करने की कोशिश की जा रही है। आम लोगों की संवेदनाओं को राजनैतिक दलों में बाँट दिया गया है, इसीलिए जब बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगता है तो बृजभूषण का बचाव करने के लिए उसकी राजनैतिक पहचान सामने आ जाती है, विनेश फोगाट जिन्होंने यौन शोषण का आरोप लगाया, स्वयं उनकी चचेरी बहन जो बीजेपी से हैं उनके साथ आकर नहीं खड़ी हो पातीं। इसीलिए मैं कहती हूँ कि संवेदनाओं का बँटवारा कर दिया गया है, जिसने समाज के रूप में, एक बेहतर इंसान के रूप में लोगों की पहचान को कुतर के रख दिया है। संवेदनहीन मांस के लोथड़ों की तरह लोगों को राजनैतिक/धार्मिक जॉम्बी बना दिया गया है जो सिर्फ़ अपनी ही ‘विचारधारा के ‘रक्त’ को पहचानते हैं, बाक़ी सभी को काटने को दौड़ते हैं।  

दुनिया भर के लोग जलवायु परिवर्तन के ख़तरे से आगाह करते हुए कह रहे हैं कि यदि लोग सचेत नहीं हुए तो पृथ्वी 100 सालों बाद रहने लायक़ ग्रह नहीं बचेगा। जबकि मुझे लगता है कि लोगों को इस बात के लिए सचेत किया जाना चाहिए कि यदि पुरुषों के अंतर्मन में महिलाओं को लेकर भरी विकृति और कुंठा को सम्भाला नहीं गया तो पृथ्वी ही नहीं, कोई अन्य ग्रह भी रहने लायक़ नहीं बचेगा।     

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वंदिता मिश्रा
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