भारतीय रेसलर विनेश फोगाट, पेरिस ओलंपिक के फाइनल मैच (50 किग्रा वर्ग, फ्रीस्टाइल) के पहले ‘अयोग्य’ घोषित कर दी गईं। उन्हें अपने वजन वर्ग से 100 ग्राम अधिक पाया गया था। एक खिलाड़ी के लिए इस सदमे से उबरना असंभव है। विनेश शानदार प्रदर्शन कर रही थीं, लगातार जीतते हुए उन्होंने फाइनल तक का रास्ता तय किया था। फाइनल मुक़ाबले के पहले ही उनके लिए कम से कम रजत पदक सुनिश्चित हो चुका था। विनेश जिस लय में थीं कोई अनाड़ी भी कह सकता था कि वो भारत के लिए स्वर्ण पदक लेकर आएंगी। पर रेसलिंग नियमों की क्रूरता कहूँ या भारतीय प्रबंधन की महान कमजोरी, विनेश को इस तरह अपने जिंदगी के ऐसे सबसे कठिन दौर से गुजरना पड़ा। खेल से मिली निराशा के साथ-साथ अब विनेश को उन लोगों से भी निपटना है जो उन्हें नरेंद्र मोदी का विरोधी मानकर बैठे हैं। विनेश की हार में ऐसे लोगों को बीजेपी और मोदी की भारी जीत नज़र आ रही है। विनेश ने पूर्व बीजेपी सांसद और तत्कालीन रेसलिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, जिस पर वो आज भी कायम हैं। इन्हीं आरोपों की जांच के लिए विनेश अपने साथी रेसलर्स के साथ जंतर मंतर पर न्याय पाने के लिए धरने पर बैठी थीं जहां मोदी सरकार के अंतर्गत कार्य करने वाली दिल्ली पुलिस ने उनके साथ जमकर अभद्रता की थी।
पेरिस ओलंपिक में विनेश की वजन अयोग्यता की सूचना के बाद सोशल मीडिया में एक पोस्ट वायरल है जिसमें एक विशाल वार्सनेय नाम का व्यक्ति जो अपने को बीजेपी का कार्यकर्ता बता रहा है, उस पोस्ट में लिखता है “यौन शोषण का आरोप लगा चुकी थी, 2/4 कपड़े उतार देती 200 ग्राम वजन कम हो जाता”। यह पोस्ट बहुत से समझदार लोगों को अच्छी नहीं लगी है, लोगों ने इस व्यक्ति का विरोध भी किया है पर सोशल मीडिया में यह कोई एकमात्र पोस्ट नहीं है जो विनेश पर लिखी गई है। महिलाओं को लेकर इस क़िस्म की कायरता सिर्फ भारतीय समाज का ही हिस्सा नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक फैलाव है।
यूरोपियन यूनियन में 15 वर्ष से कम उम्र की 10 में से 1 लड़की सोशल मीडिया में यौन शोषण का शिकार हो चुकी है। अरब देशों में 60% लड़कियाँ सोशल मीडिया में यौन शोषण सहन कर रही हैं। भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले साइबर अपराधों की जो संख्या 2014 में लगभग नौ हजार थी वो 2021 में बढ़कर लगभग 53 हजार प्रतिवर्ष हो चुकी है। स्पष्ट है कि महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध पिछले दस सालों में बेहद तेज गति से बढ़े हैं। संभवतया ऐसे अपराधों के पीछे विशाल वार्सनेय जैसे लोगों के खिलाफ कार्यवाही न होना ही एकमात्र कारण है। भूलना नहीं चाहिए कि अभी कुछ साल ही बीते हैं जब देश की मुस्लिम महिला पत्रकारों की ‘ऑनलाइन बोली’ (बुल्ली बाई) जैसी घटनाएं घट रही थीं। लोग वेबसाइट्स बनाकर महिलाओं की खरीद फरोख्त करने का काम कर रहे थे, वह भी बड़े गर्व के साथ कर रहे थे और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था, बल्कि जोर शोर से उसका फैलाव हो रहा था, उसके स्क्रीन शॉट लेकर शेयर किए जा रहे थे उसकी स्क्रीन रिकॉर्डिंग करके उसको और फैलाया जा रहा था।
ये सही है कि महिलायें हार नहीं मान रही हैं, लेकिन उनके लिए स्पेस लगातार कम ही होता जा रहा है। इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन (2016) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 82 प्रतिशत महिला सांसदों ने बताया कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान किसी न किसी प्रकार की मनोवैज्ञानिक हिंसा का अनुभव किया है। इसमें लैंगिक या अपमानजनक यौन प्रकृति की टिप्पणियाँ, यौनिक इशारे और धमकियाँ शामिल थीं। इन महिला सांसदों ने सोशल मीडिया को इस प्रकार की हिंसा का मुख्य माध्यम बताया। 44% महिला सांसदों ने बताया कि उन्हें या उनके परिवार को मौत, बलात्कार, हमला या अपहरण की धमकी मिलीं। 65% महिला सांसदों को पुरुष सांसदों द्वारा लैंगिक भेदभाव वाली टिप्पणियों का शिकार होना पड़ा। अगर भारत में इसे समझना चाहें तो काँग्रेस सांसद रेणुका चौधरी पर प्रधानमंत्री द्वारा की गई अभद्र टिप्पणी, महुआ मोइत्रा पर सत्ता पक्ष के सांसद द्वारा की गई टिप्पणी और हाल ही में 9 अगस्त को राज्यसभा में सांसद जया बच्चन पर पीठ से की गई टिप्पणी को भारतीय संदर्भ में छोड़ा नहीं जा सकता है। कम से कम मैं तो नहीं छोड़ सकती हूँ।
86 देश तो ऐसे हैं जिन्होंने महिलाओं पर किसी न किसी प्रकार की नौकरी में प्रतिबंध लगा रखा है और 95 देश समान काम के लिए समान वेतन की गारंटी नहीं देते हैं।
मेरा सिर्फ़ इतना कहना है कि पुरुषों ने ही सारे संस्थान बनाए, वही उस पर सबसे अधिक संख्या में हैं, वही तय करते हैं कि बलात्कार के बाद भी शादी करवा दी जाए, वही तय करते हैं कि यौन शोषण के बावजूद आरोपी से कुंडली मिलवा दी जाए, आदमी ही तय करना चाहता है कि पति-पत्नी के रिश्ते में रेप की संभावना है कि नहीं। महिलाओं को आरक्षण देना है या नहीं, यह भी संसद में पुरुषों की आबादी ही तय कर रही है। आरक्षण अभी दिया जाए या कई सालों बाद, यह निर्णय भी आदमी ही ले रहा है। महिला कहाँ है? कहाँ है वो निर्णायक भूमिका में? उसके लिए हमेशा निर्णय लिए जाएंगे या वो भी निर्णय ले सकेगी? महिलाओं के लिए नौकरी, राजनीति, परिवार, सड़क हर जगह एक सी स्थिति हो गई है। पुरुषों का बनाया समाज यह भी तय करना चाहता है कि नारीवाद के अंतर्गत किस बात को शामिल किया जाए और किस बात को नहीं।
इन सबकी जड़ में है लैंगिक असमानता जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ इसमें स्वाहा होती जा रही हैं। पुरुष सत्ता अवसर देने को ही तैयार नहीं। जिन्हें अवसर मिल भी गया है अगर वो शिकायत में बस इतना भी कह दें कि “आपका टोन अच्छा नहीं था” तो आदमी की हालत खराब हो जा रही है। इसीलिए वैश्विक लैंगिक अंतराल के 2024 के अंक में भी भारत आखिरी से 17वें स्थान पर है और 2021 में भी यही स्थिति थी। 146 देशों के मुक़ाबले भारत की स्थिति 129वीं है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भारत क्रमशः 142वें और 146वें (आखिरी स्थान) स्थान पर है।
ये आँकड़े भारत की ‘लैंगिक काया’ के स्वास्थ्य के बारे में सूचना दे रहे हैं। यह इस बात की भी सूचना है कि भारत में महिलाओं को कितनी गंभीरता से लिया जाता है। हजारों सालों से मिथकीय ग्रंथों में दी गई भूमिकाओं को दैवीय मानकर चलाया जा रहा है।
यह बीमारी मात्र भारत में नहीं है, पूरी दुनिया किसी न किसी रूप में इससे जुड़ी है। दुनिया की टॉप 500 कंपनियों में उनके चीफ़ पर नज़र डालिए, बमुश्किल से महिलायें मिलेंगी, यूनाइटेड नेशन्स में शामिल राष्ट्रों की सूची देखिए, कितने राष्ट्रों के प्रमुख के रूप में महिलायें देखने को मिलती हैं? कुछ लोग तपाक से कहेंगे कि अरे, महिलायें हर जगह आगे आ रही हैं? यह सही है कि महिलायें हर जगह आ रही हैं-स्पेस से लेकर इंजीनियरिंग तक और सीईओ से लेकर राष्ट्राध्यक्षों तक; लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम है। महिलाओं को लीडरशिप पोजीशन तक पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा है। इन हालातों के पीछे कारण है वह सामाजिक संरचना जिसे पुरुषों ने बड़े चाव से सैकड़ों हजारों साल में सोच सोच कर अपने लाभ के लिए बनाया है और जिसके माध्यम से वो महिलाओं पर सत्ता का अभ्यास करना बंद नहीं करना चाह रहे हैं। ‘सतत विकास लक्ष्यों पर प्रगति: लैंगिक स्नैपशॉट 2023’ बता रही है कि- केवल 27 प्रतिशत संसदीय सीटों, 36 प्रतिशत स्थानीय सरकारी सीटों और 28 प्रतिशत प्रबंधन पदों पर महिलाओं की उपस्थिति होने के कारण, निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में विविध दृष्टिकोण की कमी है, जो व्यापक नीति निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है। आँकड़े बता रहे हैं कि कैसे महिलायें अहम निर्णयकारी पदों में पिछड़ी हुई हैं। ये वो पद हैं जो ‘निर्णय’ लेते हैं। यहाँ महिलाओं को होना चाहिए, जब यहाँ इन पदों पर महिलायें होंगी तब ‘दबदबा कायम है’ जैसों को खींचकर घुटनों पर लाकर खड़ा कर सकती हैं।
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