loader

क्या मूल अधिकारों में कटौती की जाने वाली है?

अधिकारों और आज़ादी में एक प्राकृतिक साम्य है। बिना आज़ादी के अधिकार नहीं मिल सकते और बिना अधिकारों का जीवन वास्तव में एक त्रासदी है। भारत ने ब्रिटिश राज में ऐसी ही अनगिनत त्रासदियाँ झेलीं जिनके पीछे का मुख्य कारण गुलामी से उत्पन्न ‘अधिकार-विहीनता’ थी। त्रासदी के ये उदाहरण आपको और स्पष्टता प्रदान करेंगे- बंगाल अकाल (1770), एक करोड़ भारतीय मारे गए। पंजाब, राजस्थान और उत्तर-पश्चिम प्रान्त में 1837 में आये दुर्भिक्ष से 8 लाख भारतीय मारे गए। 1866-67 के अकाल ने 10 लाख, 1876-78 में 43 लाख और 1877-78 में फिर से 50 लाख भारतीय; ब्रिटिश नीतियों की भेंट चढ़ गए। सत्ता का पेट नहीं भरा था इसलिए 50 लाख और भारतीयों को प्रथम विश्वयुद्ध में ‘क्राउन’ के प्रति अपने ‘कर्त्तव्य’ निभाने के लिए मौत का आमंत्रण दे दिया गया।

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रो.अमर्त्य सेन का मानना है कि ब्रिटिश काल में हुई अकाल से संबंधित ज़्यादातर मौतें खाद्यान्न की कमी की वजह से नहीं, बल्कि ‘वितरण में असमानता’ की वजह से हुई थी। अर्थात ब्रिटिश सत्ता ‘समानता के अधिकार’ के प्रति पूर्णतया उदासीन थी। ऐसे ही, इतिहासकार अमरेश मिश्रा का मानना है कि अकेले 1857 के संघर्ष के बाद अगले दस वर्षों में एक करोड़ भारतीयों का क़त्ल किया गया।

विमर्श से ख़ास

“ऐन एरा ऑफ़ डार्कनेस: द ब्रिटिश एम्पायर इन इंडिया” पुस्तक के लेखक शशि थरूर का मानना है कि अंग्रेजों के साथ हुए स्वतंत्रता संघर्ष में लगभग 3.5 करोड़ भारतीयों की जान चली गयी।

आपको क्या लगता है कि इतने सारे भारतीयों की जान क्यों गई होगी? कम से कम इसलिए तो नहीं कि, जब अंग्रेजों द्वारा सदियों तक शोषण के बाद देश आज़ाद होगा तो उन्हें और उनकी आनेवाली पीढ़ियों को चैन से सांस लेने की आज़ादी भी नहीं होगी? आज़ादी के बाद उन्हें अपनी ही सरकार से किसी अधिकार की मांग करने में संकोच करना पड़ेगा? क्योंकि आज आजादी के 75 साल बाद भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री सभी भारतीयों से लगभग यही मांग कर रहे हैं कि अधिकारों की बजाए ‘कर्त्तव्यों’ पर ध्यान दिया जाए।

शुक्र है कि हमारे पूर्वजों ने प्रशासन और अधिकारों का एक शानदार दस्तावेज तैयार किया जिसका नाम है ‘भारत का संविधान’। लेकिन भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद पुरानी सरकारों और अपने ही संविधान से सहमत नहीं हैं। आध्यात्मिक संस्था ‘ब्रह्मकुमारीज’ के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि “पिछले 75 साल हम सिर्फ़ अधिकारों की बात करते रहे, अधिकारों के लिए लड़ते रहे और अपना समय बर्बाद करते रहे। कुछ सीमा तक, कुछ समय के लिए, ख़ास परिस्थितियों में, अधिकारों की बात करना ठीक है, लेकिन पूरी तरह से अपने कर्त्तव्य भूल जाना, एक प्रमुख कारण रहा जिसने भारत को कमजोर बनाया।”

अफसोस ये है कि अधिकारों को पाने के लिए जो क़ीमत देश ने चुकाई, उसे प्रधानमंत्री जी समय की बर्बादी समझ रहे हैं।

ताज्जुब की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री जी जिस कार्यक्रम में यह बोल रहे थे वो ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ था। उनके कहने का मतलब था कि पिछले 75 सालों तक भारतीयों ने देश को कमजोर किया, अपने मूलाधिकारों की मांग की और अपने कर्तव्यों को नहीं निभाया, अपने सम्बोधन के माध्यम से प्रधानमंत्री ने अपनी असफलताओं की ज़िम्मेदारी खुद पर लेने के बजाए भारत की जनता पर डाल दी। प्रधानमंत्री अपने सम्बोधन में आगे बढ़कर एक ऐसी बात कह देते हैं जिससे नागरिकों को डर लगना चाहिए। उन्होंने कहा कि आने वाले 25 वर्ष ‘बलिदान’ और ‘तपस्या’ के होंगे। इस तरह उनके सम्बोधन ने आज़ादी के बाद मिले अधिकारों को नकारात्मक कह डाला।

pm modi says civil rights made india weak in brahmkumaris function - Satya Hindi

आज़ादी! अर्थात नागरिक अधिकारों से सुसज्जित जनता, इन अधिकारों के लिए करोड़ों भारतीयों ने अपनी जान दे दी। आज़ादी, जो इस बात का प्रमाणपत्र था कि अब किसी भी ब्रिटिश नीति से करोड़ों किसान अकाल की वजह से नहीं मरेंगे।

आज़ादी! जिसने भारत को अपना संविधान दिया। आज़ादी! जिसने भारत को अपनी सरकार चुनने का अधिकार दिया, उससे प्रश्न पूछने का अधिकार दिया।

आज़ादी! जिसने एक ऐसा संविधान बनाया जो, 130 करोड़ भारतीयों में से किसी को भी, अपने मूल अधिकारों के उल्लंघन के ख़िलाफ़, अपनी ही संप्रभु (सोवेरन) सरकार के ख़िलाफ़, देश के उच्चतम न्यायालय में सीधे शिकायत का अधिकार देता है।

यह पहली बार नहीं है जब प्रधानमंत्री मोदी को ‘नागरिक कर्तव्य’ नागरिक अधिकारों से ज़्यादा पसंद आ रहे हैं। 2019 और 2020 के संविधान दिवस संबोधन में और 2018 के ‘परीक्षा पर चर्चा’ कार्यक्रम में भी प्रधानमंत्री जी ऐसे ही विचार दे चुके हैं।

प्रश्न यह है कि क्यों और कब किसी सरकार को अधिकारों की बजाए ‘नागरिक कर्तव्यों से प्रेम’ हो जाता है। प्रेम इतना बढ़ जाता है कि अधिकारों की मांग करने वाला भारत ‘कमजोर’ नज़र आने लगता है और ‘तपस्या’ व कर्तव्यों का पालन करने वाला भारत मज़बूत नज़र आने लगता है।

दुनिया का इतिहास इस बात का साक्षी है कि सर्वोच्च शोषणकारी औपनिवेशिक ताक़तें भी अपने देशों में अधिकार प्रदान किए बिना स्थायित्व में नहीं रह सकीं। किंग जॉन ऑफ़, इंग्लैंड ने 5 जून, 1215 को उस रॉयल चार्टर को स्वीकार कर लिया था जिसका नाम ‘मैग्ना कार्टा’ था और जो एक हद तक अधिकारों का एक शुरुआती दस्तावेज़ था? उत्तरी अमेरिका में जॉर्ज वाशिंगटन और उनके लाखों साथी अमेरिका की आज़ादी की लड़ाई जिस ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे वो किसलिए थी? भगत सिंह समेत हज़ारों लाखों लोग जो फांसी चढ़ा दिए गए वो किससे और क्यों लड़ रहे थे? शायद प्रधानमंत्री को मालूम ही न हो लेकिन यह सब था आज़ादी और उससे उत्पन्न नागरिक अधिकारों के लिए।

pm modi says civil rights made india weak in brahmkumaris function - Satya Hindi

वास्तव में मोदी सरकार हर मोर्चे पर फेल है इसलिए वो आने वाले 25 वर्षों का झुनझुना दिखा रहे हैं। क्योंकि चुनाव में भारतीय नागरिक हर राज्य में उनसे यह पूछ रहे हैं कि आपका ‘विकास’ हम तक क्यों नहीं पहुंचा? खाने के लिए तेल क्यों नहीं मिल रहा है? खेतों में डालने के लिए उर्वरक कहाँ से मिलेगा? फ़सल के सही दाम कब मिलेंगे? किसानों की आय दुगुनी कब होगी? खेतों को बर्बाद कर रही गायों को कौन नियंत्रित करेगा? चीन क्यों भारतीय सीमा में घुसपैठ/कब्ज़ा कर रहा है? कोविड के दौरान जिनके प्रियजन सरकारी उदासीनता की भेंट चढ़ गए उसका ज़िम्मेदार कौन है? अर्थव्यवस्था का लाभ आम नागरिकों तक क्यों नहीं पहुँच रहा है? क्यों देश में ग़रीबी लगातार बढ़ रही है? क्यों चंद उद्योगपति ही समृद्ध भारत के प्रतिनिधि बने हुए हैं? (ऑक्सफैम, 2022)

स्वतंत्रता के बाद से लगभग हर सरकार ने भारतीय नागरिकों के संविधान प्रदत्त अधिकारों को न सिर्फ संरक्षित करने का प्रयास किया बल्कि समय समय पर नए अधिकारों का भी सृजन किया। जैसे- सूचना का अधिकार (2005), रोजगार का अधिकार, मनरेगा (2005), शिक्षा का अधिकार (2009), भोजन का अधिकार (2013) आदि। स्वतंत्र हुए भारत में गरीबी की दर लगभग 70% थी, और लगभग 12% लोग ही साक्षर थे। 

ताज़ा ख़बरें

वैश्विक आय में 22.6% (1700 AD) का शेयर रखने वाला भारत का शेयर 1952 में मात्र 3.8% रह गया। न पेट भर के खाना था न ही कोई रोजगार। गरीब, बीमार और असाक्षर भारत को आज़ादी के बाद सुकून भरी आज़ाद सांस चाहिए थी, खाने को खाना, और रहने को घर चाहिए था। ऐसे में उनसे आज कर्तव्यों की मांग करने वाले और भारत को ‘कमजोर’ बना देने का आरोप लगाने वाले प्रधानमंत्री की संवेदनशीलता पर प्रश्न उठाना बहुत आवश्यक है।

नरेन्द्र मोदी तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और लगभग 8 सालों से भारत के प्रधानमंत्री हैं, क्या वो बताएँगे कि उन्होंने कौन सा त्याग और कौन सी तपस्या की? उनके कपड़ों, कारों और चश्मों के शौक के बारे में मीडिया में प्रचलित ख़बरों का न उन्होंने, न ही उनकी सरकार ने, कभी विरोध किया। जो इस बात का साक्षी है कि ख़बरों में यथासंभव सत्यता है। किसी अन्य मंत्री या सांसद ने अपने किस अधिकार की मांग छोड़ दी है?

असल में प्रधानमंत्री जिस तरह के भाषण दे रहे हैं उससे लगता है कि उन्हें ज़िम्मेदारियों से भागने का शौक है। वो जब से सत्ता में हैं उन्हें स्वयं के आलावा हर संस्था से मांग करने की आदत हो गयी है।

जब वो नए नए प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने एलपीजी सब्सिडी का अधिकार छोड़ देने का आह्वान किया, रोजगार की मांग को नकार कर पकोड़ों का आह्वान किया, विमुद्रीकरण के दौरान परेशानी झेलने का आह्वान किया, यही काम जीएसटी के दौरान भी जारी रहा। किसानों से अपनी मांगें छोड़ देने का आह्वान किया, राज्य सरकारों से अपेक्षा की कि वो अपने उस अधिकार को छोड़ दें जिसके तहत केंद्र को राज्य के आईएएस अधिकारियों को केंद्र में बुलाने के लिए राज्यों से अनुमति लेनी पड़ती है, सांसदों से अपेक्षा की कि वो अपने बहस के अधिकारों को छोड़ दें ताकि ‘देशहित’ में क़ानून जल्द से जल्द पास हो सकें, संसदीय समितियों से अपेक्षा की कि वो किसी भी क़ानून की विवेचना ही न करें ताकि कोई क़ानून समितियों में न फंस कर रह जाए, केंद्र सरकार ने उस संसदीय समिति, जो सरकार द्वारा सदन में किये गए वादों की जांच करती है, से उसके वादों को भूल जाने की सिफारिश की है। और अब ‘नागरिक अधिकारों’ को ही छोड़कर ‘कर्तव्य पथ पर आ जाने’ का आह्वान शुरू कर दिया है।

pm modi says civil rights made india weak in brahmkumaris function - Satya Hindi

अधिकार असल में वह नागरिक पूँजी है जिसका विकास एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही संभव है। अधिकार ही वह बल है जो सरकारों को संयत और तानाशाह बनने से रोकता है। अधिकार विहीन नागरिकता गुलामी की नागरिकता है। पर नरेंद्र मोदी सरकार कोई भी कठिनाई और दूसरा विचार नहीं चाहती, उसे हर संसदीय प्रक्रिया एक रुकावट महसूस होती है और नागरिक अधिकार, घुटन।

देश के वर्तमान प्रधानमंत्री ने जिस बलिदान और तपस्या जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है उससे धर्मनिष्ठ-औपनिवेशिकता की बू आ रही है। स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश सत्ता के समक्ष बलिदान,और आज़ादी के 75 साल बाद फिर से बलिदान? क्या भगत सिंह सही कहते थे कि ऐसी आज़ादी से कोई फायदा नहीं, कि गोरे अंग्रेज चले जाएँ और उनकी जगह काले अंग्रेज ले लें। 

ख़ास ख़बरें

प्रधानमंत्री जिन आने वाले 25 वर्षों का ज़िक्र कर रहे हैं और उसमें नागरिक अधिकारों को भूल कर नागरिक कर्तव्यों पर फोकस करने को कह रहे हैं उससे नागरिक होने के नाते हमें डरने की ज़रूरत है। क्योंकि ये शब्द भारत के राजनैतिक मुखिया और शक्ति सम्पन्न प्रधानमंत्री की ओर से आए हैं।

कहीं भारत में मूल अधिकारों की कटौती का दृष्टिकोण तो विकसित नहीं किया जा रहा है? क्या नागरिकों के बोलने, भाषण देने, और कहीं एकत्र होने की स्वतंत्रता पर हमला तो नहीं होने वाला है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि आधिकारिक रूप से प्रेस (बचे-खुचे) के अधिकारों पर कटौती की जाने वाली है? आश्चर्य है कि कटौती करने की चाह तब है जबकि अपने पूरे कार्यकाल में इस सरकार ने एक भी नया अधिकार आम नागरिकों को नहीं दिया। अगर कुछ मिला है (समलैंगिक अधिकार) तो संवैधानिक न्यायपीठों से ही मिला है।

नागरिक कर्तव्यों को समर्थ लोगों से ही जोड़ा जाना चाहिए जबकि कमजोर, गरीब और परेशान नागरिकों को बिना शर्त अधिकारों की ख़ेप ज़रूरी है। एक लचर और भूख से पीड़ित नागरिक से कौन सा कर्तव्य बोध चाहते हैं? जिसके सिर पर जाड़ों में छत नहीं उससे कौन सा कर्तव्यबोध अपेक्षित है? सरकारी योजनाओं पर आश्रित बेरोज़गार से क्या कर्तव्य करवाना है प्रधानमंत्री जी को? उन्हें पहले अधिकार दीजिए और समर्थ बनने पर माँग लीजिएगा जो भी कर्तव्य चाहिए हों।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
वंदिता मिश्रा
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विमर्श से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें