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बिहार में रेलवे एनटीपीसी परीक्षा को लेकर प्रदर्शन।

क्यों विशेष होते हैं प्रतियोगी छात्रों के आंदोलन

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का दृश्य लोगों को शायद कुछ दिनों तक न भूले जब पुलिस छात्रों को कमरों से निकाल निकाल कर मार रही थी। पुलिस ने जहां चाहा वहाँ मारा किसी की हथेलियाँ फट गईं तो किसी छात्र की कलाई मरोड़ दी, किसी को पेट पर मारा तो किसी को जांघ पर, जिन छात्रों की पीठ लाठी की मार से काली पड़ गयी है उन्हें वो दर्द जिंदगी भर याद रहेगा।

अपने आकाओं की हाँ में हाँ मिलाने वाली पुलिस यह भूल जाती है कि असल में पुलिस ‘वर्दी में संविधान’ जैसी है। जब पुलिस की गाड़ी निकलती है तो महसूस होता है कि कानून जिन्दा है और गतिमान है, साथ ही यह भी कि हम सुरक्षित हैं। लेकिन यह सब एक बार फिर से झूठ निकला।

ऐसा ही एक दृश्य 2014 (मोदी सरकार) के दौरान दिल्ली के मुख़र्जी नगर और गाँधी विहार, नेहरू विहार जैसे इलाक़े में देखने को मिला था, प्रतियोगी छात्रों को, पुलिस उनके कमरों से निकाल निकाल कर मार रही थी। उनके कपड़े, सामान सब सड़क पर फेंक दिया गया और एक एक छात्र पर चार चार पुलिस वाले लाठियाँ बरसा रहे थे। उन्होंने किसी को नहीं छोड़ा, न लड़कों को न लड़कियों को, आज 7 साल बाद दिल्ली को इलाहाबाद में दोहराया गया, वो शायद इसलिए क्योंकि इलाहाबाद तब खामोश था, जब दिल्ली के परीक्षार्थी आधी रात को कमरों से निकाल निकाल कर पीटे जा रहे थे।

विमर्श से ख़ास

पिछला एक दशक छात्र आन्दोलनों से भरा पड़ा है, मैं सभी छात्र आन्दोलनों की बात नहीं कर रही हूँ, मैं बात कर रही हूँ ‘प्रतियोगी परीक्षार्थियों’ के आन्दोलनों की। पूरे भारत में आज़ादी के बाद बहुत से छात्र आन्दोलन हुए हैं, कुछ आन्दोलनों ने सत्ता का रुख बदला है तो कुछ ने सरकारें ही बदल दीं। मैं खुद को पिछले एक दशक तक ही सीमित रखना चाहूंगी क्योंकि ये वो समय है जब टेक्नोलॉजी आन्दोलनों और जनतंत्र पर हावी होने लगी है, क्योंकि ये वो समय है जिसके 80 फ़ीसदी हिस्से में उस विचारधारा की सरकार है जिसके लिए आन्दोलन अनुशासनहीनता से अधिक कुछ नहीं।

जातीय अस्मिता के आन्दोलन, महिला आन्दोलन, किसान आन्दोलन और यहाँ तक कि सामान्य छात्र आन्दोलन भी कभी उस कठिनाई का सामना नहीं करते जिसका सामना प्रतियोगी परीक्षा के आन्दोलनकारियों को करना होता है। सामान्य छात्र को आन्दोलन में एक राजनैतिक वस्त्र की आवश्यकता होती है। सामान्य छात्र आन्दोलनों से नेता निकलते हैं जो अंततः देश की विधायिकाओं तक पहुँचते हैं, लेकिन प्रतियोगी छात्र आंदोलन, जो दुनिया के सबसे जटिलतम आन्दोलनों में से एक है, अपने मूल स्वभाव में अराजनैतिक ही होता है। यह इसकी मजबूरी भी है और आवश्यकता भी।

सामान्य छात्र आन्दोलनों से उलट प्रतियोगी छात्र आन्दोलन सामान्यतः बहुत छोटे होते हैं, इनमें छात्र संख्या अत्यंत सीमित होती है, दिन रात अपनी किताबों में डूबे रहने वाले इन छात्रों के पास न तो किसी आन्दोलन का समय होता है और न ही किसी राजनीतिक गतिविधि का। इन्हें सिर्फ़ एक सरकारी नौकरी चाहिए होती है जिसके लिए आवश्यक है एक स्वतंत्र और निष्पक्ष परीक्षा प्रणाली और नियमित अन्तराल में होने वाली परीक्षाएँ और उनका परिणाम। लेकिन दुर्भाग्य से पिछले 8-9 सालों से विभिन्न केंद्रीय व राज्य स्तरीय परीक्षाओं में ये दोनों ही आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो रही हैं।

वर्तमान मोदी सरकार एक नए भारत की संकल्पना के साथ 2014 में केंद्र में आई, और उसी समय उसका सामना हुआ यूपीएससी के प्रतियोगी छात्रों से। 2011 में मनमाने ढंग से 3 महीने के नोटिस के साथ विभेदकारी CSAT पैटर्न को पूरे देश में लागू कर दिया गया।

वर्षों से चले आ रहे पैटर्न को एक झटके में बदल दिया गया। यूपीएससी अर्थात संघ लोकसेवा आयोग, एक संवैधानिक संस्था है लेकिन उसको वहम हो गया कि संवैधानिक का मतलब सर्वशक्तिमान होता है; छात्रों के भविष्य पर चढ़कर जो फ़ैसला यूपीएससी ने लिया उसे प्रतियोगी छात्रों ने सड़कों पर उतर कर चुनौती दी। संख्या बल कम था, और वक़्त भी नहीं था क्योंकि सभी परीक्षार्थियों को इस परीक्षा के मात्र 4 अवसर ही मिलते थे (उम्र अधिकतम 30 वर्ष), छात्रों ने हिम्मत नहीं हारी और 2013 में उनकी मुलाक़ात कांग्रेस नेता राहुल गाँधी से हुई, छात्रों से एक बजे रात में मिलने आये राहुल गाँधी ने अपने सचिव से मात्र यह पूछा कि “बताओ इन बच्चों का मुद्दा जेन्युइन है?”। सचिव का जवाब सकारात्मक था। राहुल गाँधी ने तुरंत मुद्दे को सुलझाने का आश्वासन दिया और 1 महीने के अन्दर छात्रों को 2 अतिरिक्त अवसर प्रदान कर दिए गए, साथ ही उम्र बढ़ा (32 वर्ष) दी गई।

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2014 में जब नरेन्द्र मोदी सत्ता में आये तो CSAT आन्दोलन फिर भड़क उठा, कारण था परीक्षा का अंग्रेजी के प्रति अगाध लगाव और हिंदी व अन्य भाषाओं के परीक्षार्थियों के चयन की लगातार घटती संख्या जो एक समय कुल चयन का मात्र 2% ही रह गयी थी। जब भेदभाव की शिकायत के लिए आन्दोलन खड़ा किया गया तो सरकार की तरफ़ से आश्वासन आये, आनन-फानन में एडमिट कार्ड जारी कर दिए गए जबकि सम्बंधित मंत्री ने संसद में वादा किया कि एडमिट कार्ड वापस होंगे और परीक्षा की तिथि आगे बढ़ा दी जायेगी, लेकिन 2014 में उनका संसद में किया वादा झूठ निकला। परीक्षाएँ अपने समय पर हुईं और सीमित अवसरों की इस परीक्षा में लाखों परीक्षार्थियों को ठग लिया गया। और जब छात्रों ने आन्दोलन किया तो उन्हें रात रात भर लाठियां खानी पड़ीं। 2015 से 2 सालों तक छात्रों ने फिर न्याय माँगा लेकिन उन्हें मिला सिर्फ आश्वासन और धोखा।

उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग भी एक संवैधिनिक संस्था है जिसके सदस्यों और अध्यक्ष को हटाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की अनुशंसा और राष्ट्रपति का दखल चाहिए, लेकिन यूपीपीएससी के दायित्व, इनको मिली सुरक्षा और शक्ति से सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे हैं। एक संवैधानिक संस्था आज तक एक भी ऐसा पेपर नहीं बना सकी जिसके सभी प्रश्न त्रुटिमुक्त हों। लगातार विभिन्न परीक्षाओं के प्रश्न पत्र लीक होते रहते हैं, इसके अतिरिक्त यह संस्था अपने तानाशाही फैसलों के लिए भी जानी जाती है। उदाहरण के लिए दशकों से चली आ रही स्केलिंग पद्धति को 2018 में अचानक हटा दिया गया, जबकि आधिकारिक नोटिफिकेशन में इसका जिक्र तक नहीं किया गया। 

स्केलिंग वो पद्धति है जिसके माध्यम से विज्ञान व गणित जैसे विषयों को मानविकी विषयों के समकक्ष लाया जाता है ताकि न्यायपूर्ण अंक प्रणाली को स्थापित किया जा सके। छात्रों ने इसके ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया लेकिन संघर्ष जारी है।

एक एक महीने मुश्किल से जीवन काट रहा छात्र अदालतों की बढ़ती तारीख़ों से खीझ भी नहीं सकता अन्यथा न्यायालय की अवमानना हो जायेगी।

उत्तर प्रदेश में 69 हजार शिक्षक भर्ती मामला अभी तक लटका हुआ है, शिक्षा मित्रों की बहाली का मुद्दा अपनी जगह बैठा हुआ है, न न्यायालय से न्याय मिल रहा है न सरकार से; हाँ पुलिस की लाठियाँ ज़रूर नियमित अन्तराल में मिल रही हैं।

सरकार को समझना चाहिए कि जब एक प्रतियोगी परीक्षा का आन्दोलन होता है तो वह एक धार्मिक अनुष्ठान से भी पवित्र होता है। घर से सीमित पैसे मिलते हैं (5-6 हजार), इन पैसों में कमरे का किराया, सुबह शाम का खाना, और किताब, नोट्स और अख़बार का ख़र्च शामिल होता है; ऐसे परीक्षार्थी को जब आन्दोलन के लिए नेताओं के पास भटकना पड़ता है और आन्दोलन के लिए सड़क पर बैठना होता है तो वो उसके लिए पैसा कहाँ से लायेंगे? कैसे दिन-दिन भर पार्ले-जी बिस्किट खाकर और सरकारी संस्थाओं के नलकों का पानी पीकर आन्दोलन किया जाता है इसे न मीडिया के घराने समझेंगे न ही राजनैतिक एजेंडे वाली पार्टी समझ सकेगी। 

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हर आन्दोलन विशिष्ट होता है लेकिन जिस तरह के पैसे की व्यवस्था अन्ना आन्दोलन और हाल के किसान आन्दोलन को मिली वो प्रतियोगी छात्रों को नसीब नहीं होती। दूसरी बड़ी समस्या है कि प्रतियोगी छात्र एक सामूहिक वोट-बैंक नहीं हैं इसलिए सरकार उनकी मांग, ग़ुस्से या ख़ुशी से कोई वास्ता नहीं रखना पसंद करती, इन छात्रों के पास एक अच्छा वकील करने का भी पैसा नहीं होता। इसलिए ये आश्चर्य नहीं कि आखिर क्यों प्रतियोगी छात्रों को न्यायालयों से निराशा हाथ लगती है। न्यायालय लिंग, जाति व अन्य सामाजिक मुद्दों के प्रति तो थोड़ा सचेत भी रहे हैं, लेकिन उनकी चेतना प्रतियोगी छात्रों के मुद्दों पर बेमानी हो जाती है, आखिर क्या कारण है कि जिस नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत पर सर्वोच्च न्यायालय खड़ा है वो उसका पालन करना तब भूल जाता है जब परीक्षार्थी कोविड जैसी महामारी के बीच एक अतिरिक्त अवसर की मांग करने न्यायालय जाते हैं?

आख़िर क्या कारण है कि 2018 व 2019 के यूपीपीएससी मेंस में बिना किसी सूचना के स्केलिंग हटा देने के आयोग के तानाशाही फ़ैसले के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय सरकार को फटकार नहीं लगाता? इलाहाबाद में हुई पुलिस बर्बरता के ख़िलाफ़ स्वतःसंज्ञान का ज्ञान क्यों नहीं आ रहा है?

हर प्रतियोगी छात्र को समझना होगा कि खामी सरकार के डीएनए में है। जिसकी वजह से यह खराबी देश की हर संस्था में फैल रही है। 2014 में यूपीपीसीएस भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्रों का जल सत्याग्रह, 2015 में परीक्षा का पर्चा लीक होना, 2017 की यूपीपीसीएस मेंस परीक्षा में निबंध और हिन्दी के पेपर ही गलत बाँट दिए गए, 2018 LT ग्रेड परीक्षा का पेपर लीक होना, लाखों छात्र परीक्षा केंद्रों मे पहुँच चुके थे और SSC-2017 (टियर-2) का पेपर लीक हो गया, सीबीआई जांच बैठाई गई पर कुछ नहीं हुआ। 

अभी कुछ दिन पहले रीट-2022 का प्रश्न पत्र लीक हो गया। UPTET दिसंबर 2021 का पेपर लीक हुआ, ऐसी अनगिनत परीक्षाएं हैं जिन्हे आयोजित कराने वाली संस्थाओं ने छात्रों को लगातार निराश किया। और सरकार हाथ पर हाथ धर के बैठी रही। बिहार में हाल में हुए एनटीपीसी परीक्षा के प्रोटेस्ट के पहले छात्रों ने शांतिपूर्ण तरीके से अपने समर्थन में सरकार से अपील करते हुए लगभग एक करोड़ ट्वीट किए, लेकिन किसी ने उन्हें जवाब तक नहीं दिया। देश-विदेश का कोई भी मीडिया तब तक छात्रों की सुध लेने नहीं पहुंचा जब तक आंदोलन हिंसक नहीं हो गया। सरकार ने स्वयं आंदोलन को हिंसक होने दिया।

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मेरा अनुभव है कि मीडिया ‘सनसनी’ का भूखा है और आज के मीडिया के लिए अहिंसा में कोई सनसनी नहीं है। प्रतियोगी छात्रों की मांगें कोई आज़ादी की लड़ाई नहीं कि छात्रों के पास 250 वर्षों का समय हो। उन्हें अपना और अपनों का ख्याल रखना है, उन्हें रोजगार चाहिए और सरकार, सरकारी रोजगार को प्राइवेट कंपनियों के हाथों बेचकर अपनी जिम्मेदारी से न सिर्फ भाग रही है बल्कि छात्रों और संस्थाओं के बीच बढ़ते अविश्वास का कारण भी स्वयं ही बन रही है।

ये सब इसलिए भी है क्योंकि सभी जानते हैं कि प्रतियोगी छात्र एक मजबूर वर्ग है, जिसे अपनी किताबों और सिलेबस से लड़ने की फुर्सत नहीं वो सरकार और न्यायालय से जाकर क्या लड़ेगा? लेकिन यह बात भारत के हर नागरिक और हर उस वर्ग को समझनी चाहिए जो पीड़ित है और सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन करना चाहता है, कि ‘प्रतियोगी छात्र लोकतंत्र के लाइकेन’ हैं। जिस तरह लाइकेन वायु प्रदूषण के सूचक हैं उसी तरह इन छात्रों का सड़कों पर होना सरकार और न्याय में फैले प्रदूषण को प्रदर्शित करता है। अगर ये सड़क पर हैं इसका मतलब है कि प्रदूषण बढ़ चुका है, संस्थाएं ढह रही हैं और सरकारें तानशाह हो रही हैं। ये भारत के सबसे ज्यादा प्रगतिशील और जागरूक समूह हैं। यदि ये निराश हैं तो इसका मतलब हर जगह बेइमानी और चोरी बढ़ रही है, अगर सरकार इनकी नहीं सुन रही है तो इसका मतलब सरकार मनमानी पर है और किसी भी समूह की नहीं सुन रही है। 

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वंदिता मिश्रा
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