इलाहाबाद विश्वविद्यालय का दृश्य लोगों को शायद कुछ दिनों तक न भूले जब पुलिस छात्रों को कमरों से निकाल निकाल कर मार रही थी। पुलिस ने जहां चाहा वहाँ मारा किसी की हथेलियाँ फट गईं तो किसी छात्र की कलाई मरोड़ दी, किसी को पेट पर मारा तो किसी को जांघ पर, जिन छात्रों की पीठ लाठी की मार से काली पड़ गयी है उन्हें वो दर्द जिंदगी भर याद रहेगा।
क्यों विशेष होते हैं प्रतियोगी छात्रों के आंदोलन
- विमर्श
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- 30 Jan, 2022

बिहार में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों ने रेलवे एनटीपीसी की परीक्षा में गड़बड़ी को लेकर प्रदर्शन किए। लेकिन क्या ऐसे छात्रों के लिए प्रदर्शन या आंदोलन करना इतना आसान है?
अपने आकाओं की हाँ में हाँ मिलाने वाली पुलिस यह भूल जाती है कि असल में पुलिस ‘वर्दी में संविधान’ जैसी है। जब पुलिस की गाड़ी निकलती है तो महसूस होता है कि कानून जिन्दा है और गतिमान है, साथ ही यह भी कि हम सुरक्षित हैं। लेकिन यह सब एक बार फिर से झूठ निकला।
ऐसा ही एक दृश्य 2014 (मोदी सरकार) के दौरान दिल्ली के मुख़र्जी नगर और गाँधी विहार, नेहरू विहार जैसे इलाक़े में देखने को मिला था, प्रतियोगी छात्रों को, पुलिस उनके कमरों से निकाल निकाल कर मार रही थी। उनके कपड़े, सामान सब सड़क पर फेंक दिया गया और एक एक छात्र पर चार चार पुलिस वाले लाठियाँ बरसा रहे थे। उन्होंने किसी को नहीं छोड़ा, न लड़कों को न लड़कियों को, आज 7 साल बाद दिल्ली को इलाहाबाद में दोहराया गया, वो शायद इसलिए क्योंकि इलाहाबाद तब खामोश था, जब दिल्ली के परीक्षार्थी आधी रात को कमरों से निकाल निकाल कर पीटे जा रहे थे।