“आप इस अद्भुत देश और इसके लोगों को बहुत बड़े ख़तरे में धकेल रहे हैं, रुक जाइए!”
दो पंक्तियों में व्यक्त की गई यह चिंता भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी द्वारा संसद में तब व्यक्त की गई जब वो राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद धन्यवाद प्रस्ताव पर बोल रहे थे। हालाँकि उनके भाषण के बाद विभिन्न केन्द्रीय मंत्रियों ने उनकी बेमेल आलोचना करनी शुरू कर दी। विदेश मंत्री एस. जयशंकर उन्हें इतिहास का ज्ञान देने लगे तो क़ानून मंत्री किरण रिजिजू चाहते थे कि वो माफी मांगें। जो प्रतिक्रिया सरकार की तरफ़ से आई उससे ऐसा लगा कि राहुल गाँधी ने जितना बोला वो सबकुछ सही बोला था।
उनकी पहली चिंता यह थी कि राष्ट्रपति महोदय का अभिभाषण जो केंद्र सरकार द्वारा लिखा जाता है, उसे शायद कुछ अधिकारियों द्वारा लिखवाया गया। उनका यह दावा इसलिए भी सच प्रतीत होता है क्योंकि भारत की आज की सबसे बड़ी समस्या ‘बेरोजगारी’ का उसमें ज़िक्र तक नहीं था। क्या सरकार के लिए बेरोजगारी मुद्दा नहीं है? जबकि वास्तविकता यह है कि भारत ऐतिहासिक बेरोजगारी की मार झेल रहा है। हाल के CMIE के आँकड़े बताते हैं कि भारत में इस समय 8% बेरोजगारी दर है। यह संख्या कितनी डरावनी है ये बात सरकार नहीं बताएगी, लेकिन एक्सपर्ट के पास जवाब है।
विश्व बैंक के पूर्व मुख्य आर्थिक विशेषज्ञ कौशिक बसु का मानना है कि “आज जो हालात हैं वो 1991 के हालात से भी बदतर हैं (जब भारत के पास अपने आयात की रक़म चुकाने के लिए पर्याप्त धन भी नहीं था), और कम से कम पिछले 30 सालों में ऐसी स्थिति कभी नहीं रही। भारत की बेरोजगारी दर बांग्लादेश (5.3%), मेक्सिको (4.7%) और वियतनाम (2.3%) से भी ज़्यादा है। मतलब साफ़ है कि नागरिकों को नारों/जुमलों, वादों और इरादों के बीच की रेखाओं को जानबूझकर समझने से रोका जा रहा है। जिन लोगों के पास नौकरी है भी, उनका जीवन स्तर बेहतर नहीं हो पा रहा है।
क्या देश के आम नागरिकों को यह बात पता है कि केवल 2% नौकरीपेशा लोगों के पास ही सुरक्षित नौकरी है? जिसमें उन्हें मातृत्व लाभ, पेंशन और स्वास्थ्य सुरक्षा जैसे सामाजिक सुरक्षा के लाभ मिल पा रहे हैं? बाक़ी बचे 98% कैसे अपनी व्यवस्था करते होंगे? कैसे करेंगे जबकि नौकरी करने वाले 45% लोगों की मासिक आय सिर्फ़ 9,750 रुपए है जो कि 375 रुपए प्रतिदिन से भी कम है। (अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी सर्वे)
जब राहुल गाँधी बात करते हैं कि सरकार की नीतियाँ ‘दो भारत’ बना रही हैं तो सरकार को बुरा लगता है। जब राहुल गाँधी यह कहते हैं कि आपका नारा ‘मेड इन इंडिया अब संभव नहीं है’ क्योंकि सरकार की नीतियों ने देश के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSMEs) सेक्टर को चोट पहुंचाई है, तो सरकार को बुरा लगता है। वैसे बुरा लगना तो किसी व्यक्ति/संस्था के ‘स्वार्थ’ और ‘विवेक’ के संयोजन (कॉम्पोजिशन) पर निर्भर करता है।
राहुल जो कह रहे हैं उसमें तथ्य यह है कि भारत समेत पूरी दुनिया के आर्थिक विशेषज्ञ यह मानते हैं कि विकासशील राष्ट्रों में बेरोजगारी और गरीबी को खत्म करने का सबसे बड़ा औजार है अपने देश की MSMEs को प्रोत्साहन देना।
अली और हुसैन, 2014 के अनुसार, भारत जैसे विकासशील अर्थव्यवस्था के विकास के लिए MSMEs का विकास एक प्राथमिक शर्त है, क्योंकि देश का 50% मेन्यूफैक्चरिंग आउटपुट इसी क्षेत्र से आता है। भारत में लगभग 6 करोड़ MSMEs यूनिट्स थीं जिनमें लगभग 11 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था लेकिन पहले जीएसटी और नोटबंदी, और फिर कोविड ने इन उद्योगों की कमर तोड़ दी। सरकार को कोई तुगलकी निर्णय लेने से पहले यह सोचना चाहिए था कि MSMEs का विकास ही देश का विकास है। चंद उद्योगपतियों के हाथ में सभी प्रोजेक्ट्स और पैसा जाने से देश का विकास नहीं हो सकता।
यह कोई नई बात नहीं है समय-समय पर एक्स्पर्ट्स अपने शोधों से यह बात साबित करते रहे हैं। उदाहरण के लिए- भूयन, 2016 के अनुसार, रोजगार सृजन, ग्रामीण औद्योगीकरण, नवाचार प्रोत्साहन और क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने में MSMEs का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है।
राहुल गाँधी लगातार देश के तमाम अहम मुद्दों को संसद और संसद के बाहर उठाते रहे हैं। MSMEs भी उसमें से एक है। यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने MSMEs का मुद्दा उठाया हो। दिसंबर 2021 में राहुल गाँधी ने लोकसभा में MSMEs की स्थिति के बारे में प्रश्न पूछा था जिसके जवाब में MSMEs मंत्री नारायण राणे ने कहा था कि कोविड की वजह से 9% MSMEs यूनिट्स बंद हो गई हैं। एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर लोगों को सरकार से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि नोटबंदी और जीएसटी के लागू करने से पहले उनकी ‘विकास का इंजन’ कहे जाने वाले और 8 हजार से भी अधिक वैल्यू ऐडेड प्रोडक्ट बनाने वाले, इस क्षेत्र के बारे में उनकी क्या योजना थी?
राहुल गाँधी द्वारा MSMEs के लिए उठाया गया प्रश्न सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इसका सबसे ज़रूरी पहलू यह जानना है कि लगभग 67% अर्थात दो तिहाई MSMEs को चलाने वाले लोग सामाजिक रूप से पिछड़े समूह (एससी, एसटी, ओबीसी) से आते हैं। ऐसे में MSMEs और उनकी वर्तमान स्थिति का प्रश्न वास्तव में सामाजिक और आर्थिक समता से जुड़ा हुआ प्रश्न है और ऐसे प्रश्नों को ध्यान से सुनकर उनका समाधान निकाला जाता है न कि प्रश्न उठाने वाले पर गुस्सा!
राहुल गाँधी की अगली चिंता थी राज्यों के साथ केंद्र सरकार द्वारा किया जाने वाला अनुचित व्यवहार।
15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ और उसके बाद 2 सालों के मैराथन प्रयास से तब के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देश के एकीकरण को सम्पन्न किया। भारतीय संविधान का पहला अनुच्छेद भारत को ‘यूनियन ऑफ़ स्टेट्स’ अर्थात भारत को एक संघीय राष्ट्र के रूप में स्वीकारता है। यह अनुच्छेद भारत को एक ऐसा यूनियन बनाता है जिसमें राज्यों के अपने अपने अधिकार होंगे लेकिन वो कभी इस यूनियन से अलग नहीं हो सकते। ऐसे में यह अनुच्छेद भारत की अखंडता का सूचक है।
एस.आर.बोम्मई (1994) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 9 सदस्यीय संवैधानिक पीठ देश के संघीय ढांचे को संविधान के आधारभूत ढांचे का हिस्सा मान चुकी है। राहुल गाँधी का जोर इस बात पर है कि ‘किंग’ और ‘किंगडम’ देश की आजादी के बाद ही खत्म कर दिए गए। अब इस देश में शासन करने के लिए राज्यों और लोगों के साथ ‘कन्वर्सेशन’ और ‘निगोसिएशन’ का ही सहारा लेना होगा। एक शहंशाह की तरह कोई इस देश में राज नहीं कर सकता।
यह कोई अनजाना तथ्य नहीं कि केंद्र सरकार में संवाद और बातचीत को लेकर जो प्रतिरोध है वो उन्हें भारत को एक ‘किंगडम’ की तरह चलाने के लिए बाध्य कर रहा है। जबकि राहुल गाँधी का सिर्फ इतना कहना था कि यह देश एक गुलदस्ता है, जिसमें अलग अलग किस्म के फूल लगे हुए हैं। हर राज्य की अपनी परम्पराएं हैं, भाषा और संस्कृति है। देश की अस्मिता और राज्य की अस्मिता साथ-साथ चलें, इसके लिए केंद्र सरकार को राज्यों के ख़िलाफ़ ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहिए जिससे राज्य अपने क्षेत्रीय और भाषाई अस्मिता को लेकर देश की अस्मिता से आगे निकल जाएँ। राज्यों के साथ कोई भी तनावपूर्ण स्थिति न आने देना केंद्र की जिम्मेदारी है।
राहुल गाँधी की इस बात पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि इस देश और इसके नागरिकों ने मध्यकाल की सीमाओं में रहकर बाहरी लोगों को भी स्वीकार किया और उन्हें अपने रंग में रंग दिया। कोई भी इस देश को डंडे के जोर से नहीं चला सकता। केंद्र सरकार नीट के मुद्दे पर जिस तरह तमिलनाडु के साथ व्यवहार कर रही है, जिस तरह किसान आंदोलन को पंजाब का आंदोलन कह कर हतोत्साहित किया गया, जिस तरह उत्तर-पूर्व के दो राज्यों के बीच युद्ध की स्थिति को पैदा किया गया, जिस तरह जम्मू व कश्मीर में संवाद का दौर खत्म कर दिया गया, जिस तरह से इजराइल के सहयोग से पेगासस का जासूसी अभियान भारतीय नागरिकों पर चलाया जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि सरकार देश को छड़ी के जोर से ही चलाना चाहती है।
राहुल गाँधी की इस चेतावनी को कि देश के संस्थागत ढांचे पर हमले की प्रतिक्रिया बहुत तगड़ी होगी, सरकार को सकारात्मक ही लेना चाहिए। संसद, न्यायपालिका और प्रवर्तन एजेंसियों समेत लगभग सभी संस्थाओं को मिटाने की कोशिश है।
आँकड़ें एकत्रित करने वाली संस्थाएं सरकार का मुँह देखकर आँकड़ें बता रही हैं। गरीबी कितनी है? बेरोजगारी का आंकड़ा कब नहीं देना है? कोविड में कितने लोगों की मौत दिखानी है? आदि।
पुलिस सरकार को खुश रखने की कोशिश में एक पक्षीय अपराध को बढ़ावा देने में लगी है। संसद में खड़े होकर सरकार कह देती है कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा, न्यायपालिका में सरकार कह देती है, लॉकडाउन के दौरान सड़क पर कोई नहीं मरा। सरकार के खिलाफ रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार जेल भेज दिए जाते हैं या पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं। विरोध प्रदर्शन, जो कि सरकार की संवेदनशीलता को नापने का पैमाना है, एक एक इंच बढ़ने से खरोंच खा रहा है।
हो सकता है कि केन्द्रीय मंत्रियों को राहुल गाँधी की यह बात ज्यादा बुरी लगी हो कि बीजेपी और उनका मातृ संगठन आरएसएस, देश को कमजोर कर रहे हैं, देश की फाउंडेशन को कमजोर कर रहे हैं, देश के नागरिकों के बीच के लिंक्स को कमजोर कर रहे हैं। क्या यह सच नहीं है कि विभाजनकारी एजेंडे के बावजूद विश्व हिन्दू परिषद का सरकार के द्वारा बचाव किया जाता है, 80:20 जैसा उन्मादी विचार रखने वाले को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया जाता है और प्रधानमंत्री न कभी इस एजेंडे का विरोध करते हैं और न ही मुख्यमंत्री का। प्रधानमंत्री जिस संसद में बैठते हैं उसके एक सदस्य पर गोलियों से हमला होता है। हमले की जिम्मेदारी ‘हिन्दू सेना’ द्वारा ली जाती है लेकिन आरएसएस और प्रधानमंत्री, दोनों ही हिंदुओं के इस रैडिकलाइजेशन से परेशान नहीं नजर आते। अर्थात आरएसएस और बीजेपी राहुल गाँधी की बातों को पुख्ता कर रहे हैं।
सबसे ज़रूरी बात जो राहुल गाँधी ने कही वो है कि “आप इस देश के लोगों का अपमान नहीं कर सकते”। क्योंकि पिछले कई वर्षों से यह लगातार हो रहा है। जब कोविड-19 की वजह से हुई मौतों को नकार दिया जाता है तो देश के लोगों का अपमान होता है, जब 700 किसानों को सिर्फ़ एक ज़िद की वजह से सरकार मरने देती है तो देश की जनता का अपमान होता है, जब लाखों किसानों को एक साल के लिए सड़क पर बैठने के लिए बाध्य किया जाता है तो देश के लोगों का अपमान होता है। और जब किसानों की मांग के बावजूद केन्द्रीय मंत्री अजय टेनी को मंत्रिपरिषद से पीएम नहीं निकालते तो देश के लोगों का अपमान होता है।
जब विपक्ष के नेता राहुल गाँधी कहते हैं कि “मैं और आप दोनों राष्ट्रवादी हैं” तो यह सोच कांग्रेस की अम्ब्रेला सोच का प्रतीक है, उदार सोच का प्रतीक है। राहुल गाँधी कांग्रेस की उस विचारधारा के वाहक नजर आते हैं जो ‘सबको समाहित’ और ‘सबमें समाहित’ करने वाली सोच है। वर्ना यह अनसुलझा रहस्य नहीं कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को मारने वाली विचारधारा कौन थी।
जब राहुल कहते हैं कि ‘चाइना हैज अ प्लान’ (चीन एक योजना के तहत काम कर रहा है) तो सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए। पहले डोकलाम, फिर लद्दाख, पैंगोंग लेक, और इसके बाद अरुणाचल में गाँव बसाना इसी प्लान का हिस्सा है।
भारतीय सैनिकों के साथ हिंसक झड़प करने वाले चीनी सैनिकों को ओलंपिक बैटन थमाना इसी योजना का हिस्सा है। लेकिन दुःख यह है कि जब देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता की इस बात पर संसद में सत्ता पक्ष हंस रहा हो, संसद के बाहर विदेश मंत्री, सच जानने के बावजूद इतिहास का ज्ञान दे रहा हो, तो राहुल का यह कहना बिल्कुल सही है ‘द नेशन इज एट रिस्क’ अर्थात देश ख़तरे में है।
इतने महत्वपूर्ण विषयों को उठाते समय सदन में सत्ता पक्ष की ओर से मौजूद पीयूष गोयल एक खीझ भरी मुस्कान लिए रहे, मानो उन्हें यह करने के लिए ही कहा गया हो। किसी मुद्दे पर कुछ नहीं बोले। वो सिर्फ तब बोले जब उनके नेता अमित शाह का प्रकरण आया। अमित शाह द्वारा मणिपुर के नेताओं की चप्पल बाहर उतारवाने के मुद्दे पर पीयूष गोयल ने कहा ये हमारे धार्मिक मान्यताओं पर प्रहार है। जब देश खतरे में है, संविधान खतरे में है तो कोई बात नहीं। देश के पिछड़ों, दलितों कमजोरों को न्याय धर्म से नहीं मिला, यह संविधान से मिला है। वो संविधान जो आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों पर आधारित था। जिसे कांग्रेस ने नेतृत्व प्रदान किया था। लेकिन जब यह सरकार सत्ता में आई तो उसका नारा भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी मुक्त भारत नहीं था उसका नारा था कांग्रेस मुक्त भारत! अर्थात आजादी की लड़ाई को ही बेमानी बना देना ही उस नारे का उद्देश्य था।
मेरा कहना है कि यह भारत है, किसी की ‘फैन्टेसी’ पूरा करने का अखाड़ा नहीं। इसलिए सरकार को विपक्ष के सुझावों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और संसद में जवाब देना चाहिए।
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