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विपक्ष लगातार सवाल पूछ रहा है, सरकार जवाब दे!

संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने 18 से 22 सितंबर के बीच ‘विशेष संसद सत्र’ की घोषणा की है। देश भर के लोग और विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता अपने-अपने तरीके से अंदाज लगा रहे हैं कि आखिर क्यों अचानक विशेष संसदीय सत्र बुलाने की जरूरत पड़ गई। किसी को लगता है कि जल्द चुनावों की घोषणा की जा सकती है तो किसी को लगता है कि मामला ‘एक देश, एक चुनाव’ से जुड़ा हुआ है तो कुछ लोग मान रहे हैं कि विशेष सत्र का आयोजन ‘नई संसद’ के उद्घाटन से संबंधित है। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि चूंकि पीएम मोदी चंद्रयान-3 की सफलता के दिन देश से बाहर थे और ‘सही समय’ पर इसरो को बधाई देने नहीं पहुँच सके थे तो शायद इसलिए चंद्रयान-3 की सफलता को संसद के विशेष सत्र के माध्यम से मनाया जाएगा और संभवतया यह सारा कार्य नई संसद से ही क्रियान्वित किया जाए। 

देश भर के लोग कयास लगा रहे हैं उनका समय और श्रम बच जाता यदि सरकार स्वयं विशेष सत्र के एजेंडे की घोषणा कर देती। लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। जरा सोचिए जिस सत्र की तारीख तय हो चुकी हो क्या उसका एजेंडा भी तैयार नहीं होगा? जहां ‘विशेष सत्र’ की तारीख भी पीएम मोदी के जन्मदिन, 17 सितंबर, को ध्यान में रखकर रची गई हो वहाँ मैं मानती हूँ कि निश्चित रूप से सरकार के पास एजेंडा है, मुद्दा है और पर्याप्त प्लानिंग भी है। बस वो चाहते हैं कि लोग यूं ही व्यस्त रहें और बस अंदाज ही लगाते रहें। 

देश की विपक्षी पार्टियों, उनके नेताओं का किसी ‘अप्रत्याशित संभावना’ को लेकर आशंकित रहना सत्तासीन दल और उसके नेतृत्व के लिए अच्छा है क्योंकि  एक ‘मुक्त’ और कार्यशील विपक्ष अक्षम सत्ता के न सिर्फ पाए घसीट सकता है बल्कि जनता की ‘सेवा’ के नाम पर की जा रही ‘स्वयंसेवा’ को सार्वजनिक रूप से उद्घाटित भी कर सकता है।इसलिए सत्ता के नजरिए से यह जरूरी है कि विपक्ष का फोकस लगातार बिगड़ता रहे।  
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क्योंकि फोकस बनाए रखने वाला विपक्ष असुविधाजनक सवाल पूछता है। उदाहरण के लिए विपक्ष गौतम अडानी और पीएम मोदी के संबंधों पर सवाल पूछ रहा है और देश को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि आखिर अडानी के मुद्दे पर पीएम मोदी बोलते क्यों नहीं है? कॉंग्रेस नेता राहुल गाँधी ने ‘इंडिया’ समूह की बैठक के बाद एक प्रेस वार्ता में पीएम मोदी पर सवाल उठाते हुए पूछा, “पीएम मोदी चुप क्यों हैं, उन्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आती? संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को अनुमति दी जानी चाहिए और अडानी मामले की गहन जांच होनी चाहिए। सेबी(SEBI) की जांच हुई लेकिन अडानी को क्लीन चिट दे दी गई; बहुत स्पष्ट है कि यहां कुछ गड़बड़ है।''विपक्ष के तमाम नेता और राहुल गाँधी लगातार JPC के माध्यम से जांच की मांग कर रहे हैं, अगर सच में अडानी मामले में सबकुछ सही है तो मोदी सरकार को JPC द्वारा जांच से क्यों डरना चाहिए?

ऑर्गनाइज्ड क्राइम एण्ड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दो व्यक्तियों ने "गुप्त रूप से विशाल समूह में निवेश किया"। यह विशाल समूह अडानी समूह है। इनमें से एक UAE के नागरिक नासिर अली शाबान अहली है और दूसरे चीनी नागरिक चांग चुंग लिंग हैं। कॉंग्रेस के नेता राहुल गाँधी ने सवाल किया कि “इन दो विदेशी नागरिकों को उन कंपनियों में से एक के मूल्यांकन के साथ खेलने की अनुमति क्यों दी जा रही है जो लगभग सभी भारतीय बुनियादी ढांचे को नियंत्रित करती है..."सवाल तो जायज है पर क्या जवाब मिलेगा? आखिरी बार जब राहुल गाँधी ने संसद में अडानी पर सवाल उठाया था तो अंततः उनकी संसद सदस्यता चली गई थी, यह अलग बात है कि उनकी सदस्यता किसी और मामले को लेकर गई थी बस इत्तिफाक़ यह था कि यह तब घटित हुआ जब उन्होंने पीएम मोदी और अडानी पर सवाल उठाए थे। पर प्रश्न यह है कि यदि सवाल विपक्ष नहीं पूछेगा तो कौन पूछेगा?
विपक्ष तो मणिपुर पर भी सवाल पूछता रहा लेकिन कुछ नहीं हुआ! मणिपुर मुद्दे पर लोकसभा में जिस नियम के तहत बहस चाही, नहीं प्रदान की गई।  अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए 10 अगस्त को पीएम मोदी ने मणिपुर मामले में लगभग 100 दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए वादा किया था कि “मैं मणिपुर की महिलाओं, बेटियों, बहनों से कहना चाहता हूं कि देश आपके साथ खड़ा है। हम मिलकर इस संकट का समाधान ढूंढेंगे और फिर से शांति कायम होगी” इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा "मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मणिपुर में, मणिपुर के विकास की गति को तेज करने के लिए सभी प्रयास किए जाएंगे।" 
अब विपक्ष सवाल पूछ रहा है कि पीएम मोदी के वादे का क्या हुआ? पहले तो मणिपुर हिंसा पर महीनों नहीं बोले, जब बोले कि हालात सुधरेंगे तब भी कुछ होता दिख नहीं रहा है। 24 घंटे पहले की ही ख़बर है मणिपुर में हिंसा की वजह से 6 और भारतीयों की मौत हो गई है। पीएम मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और सीएम बिरेन सिंह क्या कह रहे हैं उससे पहले   असम राइफल्स के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल पी.सी. नायरकी बात सुनना जरूरी है। 

नायर ने शुक्रवार, 1 सितंबर को चिंता जताते हुए न्यूज एजेंसी ANI से कहा कि “मणिपुर में हम जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है। हमने इतिहास में कभी भी इस तरह की किसी चीज़ का सामना नहीं किया है।यह हमारे लिए नया है, यह मणिपुर के लिए भी नया है। ऐसा ही कुछ 90 के दशक की शुरुआत में हुआ था जब नागा और कुकी लड़े थे और फिर 90 के दशक के अंत में कुकी समूहों के भीतर भी लड़ाई हुई थी।”
एथलेटिक्स कमीशन की चेयरपर्सन और 6 बार विश्व अमेच्योर बॉक्सिंग चॅम्पियन मैरी कॉम ने भी मणिपुर में अपने समुदाय की रक्षा के लिए गृहमंत्री अमित शाह को पत्र लिखा है। अपने ‘कॉम’ समुदाय के बारे में उन्होंने लिखा "हम सभी दो प्रतिद्वंद्वी समुदायों के बीच बिखरे हुए हैं... दोनों तरफ से मेरे समुदाय के खिलाफ हमेशा अटकलें और संदेह होता है,... कमजोर आंतरिक प्रशासन और एक समुदाय के रूप में छोटे आकार के कारण हम अल्पसंख्यक जनजातियां अपने अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ करने वाली किसी भी ताकत के खिलाफ खड़े होने में सक्षम नहीं हैं।" 
गृहमंत्री को मैरी कॉम के पत्र का संज्ञान सजगता से लेना चाहिए आखिर किसी समुदाय के जीवन और न्याय का प्रश्न है। लेकिन क्या वह जवाब देंगे? क्या वो वैसी प्रतिक्रिया और एक्शन लेंगे जैसी जरूरत है? मुझे नहीं पता लेकिन शायद मैरी कॉम को पता हो! क्योंकि वह जानती हैं कि सरकार कैसे काम करती है, मैरी कॉम को जब उस समिति में रखा गया जिसको महिला पहलवानों के साथ हुए यौन उत्पीड़न की जांच करनी थी तब मैरी कॉम का क्या रुख था? क्या वह किसी मंत्री या सांसद से प्रभावित थीं? क्या उस जांच में ‘राजनीति’ की जा रही थी, किसी को बचाया जा रहा था? पहलवानों के साथ अन्याय की अनदेखी की जा रही थी? अगर इन प्रश्नों के जवाब ‘हाँ’ हैं तो मैरी कॉम को भी गृहमंत्री को लिखे अपने पत्र का उत्तर पहले से पता होना चाहिए! आंच आने पर तो कोई भी सतर्क हो जाता है लेकिन जो आग लगने से पहले से सतर्क हो जाता है उसमें परिपक्वता है। मैरी कॉम को खुद से सवाल पूछना चाहिए! 
मणिपुर को लेकर हालात न सिर्फ खराब हैं बल्कि कोई कुछ सुनने को भी तैयार नहीं है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय लगातार इस मामले पर सुनवाई कर रहा है गीता मित्तल की अध्यक्षता में तीन महिला न्यायधीशों की समिति बनाकर मणिपुर में राहत, बचाव और सुधार के कार्यक्रम की देखरेख की जा रही है। समिति ने कहा है कि मणिपुर हिंसा से पीड़ित परिवार जिन कैंपों में रह रहे हैं वहाँ की हालत बहुत खराब है। चिकनपॉक्स और मीज़ल्स जैसे संक्रामक रोग तेजी से फैल रहे हैं। जो काम केंद्र और राज्य सरकारों को स्वयं करना चाहिए था उसके लिए भारत के मुख्य न्यायधीश(CJI) को कहना पड़ रहा है। CJI ने कहा कि "हम केंद्र और राज्य सरकारों को लोगों को बुनियादी जरूरतें जैसे, भोजन, दवाएं और अन्य जरूरी चीजें मुहैया कराने का निर्देश देते हैं। सरकार को जरूरत पड़ने पर हवाई मार्ग से जरूरी सामान पहुंचाने पर विचार करना चाहिए।"
हालात लगातार खराब हो रहे हैं, केंद्र सरकार की उदासीनता, अपरिपपक्वता राजनैतिक अक्षमता ने मणिपुर के हालात को सुधारने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपाय नहीं किए, कानून और व्यवस्था पर लोगों का भरोसा उठ चुका है, सभी समूह अपनी-अपनी रक्षा के लिए हथियार उठाए हुए हैं। अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर स्थित एक राज्य की सुरक्षा के प्रति ऐसी उदासीनता ठीक नहीं है। सरकारों को पता होना चाहिए कि चुनावी लाभ और राष्ट्रीय सुरक्षा को एक तरीके से नहीं देखा जा सकता। 

विपक्ष सिर्फ मणिपुर और अडानी पर ही सवाल नहीं पूछ रहा है। विपक्ष के सवाल अर्थव्यवस्था की बदहाल स्थिति, विभिन्न राज्यों में हो रहे सांप्रदायिक दंगों और महंगाई व बेरोजगारी को लेकर भी हैं। लगभग 10 सालों से सत्ता में बने हुए नरेंद्र मोदी को जनता के विश्वास का भ्रम इतना अधिक हो चुका है कि विपक्ष द्वारा उठाए गए किसी भी मुद्दे का जवाब देना वह उचित नहीं समझते। जबकि वास्तविकता में भारत का प्रधानमंत्री भारत सरकार का प्राथमिक और मुख्य प्रवक्ता होता है।

प्रधानमंत्री भारत की अर्थव्यवस्था का गुणगान तो करते हैं और अर्थव्यवस्था के आंकड़ों को मनचाहे प्रतिमानों से जाँचते हैं लेकिन जब संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि “आय न बढ़ने के कारण 74% भारतीय संतुलित आहार वहन नहीं कर सकते” तब सरकार और सन्नाटे में अंतर करना मुश्किल हो जाता है। जब राष्ट्रीय राजमार्ग बन जाता है तब हाथ हिलाते हुए उस पर घूमने और पीठ थपथपाने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन जब CAG की रिपोर्ट सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार की बात उजागर करती है तब रिपोर्ट को नकारने के लिए शोर बढ़ जाता है। विपक्ष लगातार इन मुद्दों को उठा रहा है सरकार को चाहिए कि इनका जवाब दे ताकि साफ-सुथरे गवर्नेंस को बढ़ावा मिल सके। 

G-20 एक अंतर्राष्ट्रीय महत्व की समिट है जिसका 2023 का आयोजन सितंबर में भारत में होना है। इस समिट में दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हिस्सा लेती हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति G-20 ईवेंट से दो दिन पहले ही भारत आ रहे हैं ताकि भारत के साथ द्वीपक्षीय वार्ता हो सके। संभव है और जरूरी भी कि मेजबानी अच्छी होगी। बस जरूरी बात यह है कि जिस देश(अमेरिका) के 40% युवा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भी नहीं जानते(प्यू रिसर्च) मात्र उस देश के युवाओं के लाभ के लिए ही किसी व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर न हों।
आवश्यक यह है कि जिस देश का 100% युवा भारत के प्रधानमन्त्री को जानता है, उन पर आश्रित है उस देश के युवाओं पर चर्चा हो, उसे बेहतरीन और गुणवत्तापरक रोजगार मिले।ऐसा नहीं होना चाहिए कि हर साल 2 करोड़ लोगों को रोजगार का वादा करके(2014) कुछ हजार रोजगार तक ही भारतीय युवाओं को समेट दिया जाए।

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संसद के विशेष सत्र से क्या बाहर आएगा और G-20 की भव्यता कैसे भारतीय युवाओं को रोजगार मुहैया कराएगी, कैसे सस्ता और बेहतर स्वास्थ्य उपलब्ध होगा, कैसे महंगाई को कम करने मदद करेगी, कैसे सांप्रदायिकता को रोककर निवेश के माहौल को बढ़ाएगी इस पर विपक्ष और मीडिया को नजर रखनी चाहिए। लोकतंत्र में नागरिक केंद्रित व्यवस्था की गई है, नागरिक ही सरकार और उसकी गतिविधियों पर निर्णय लेंगे और लेना भी चाहिए। विपक्ष समेत सभी नागरिकों को चाहिए कि सरकार चंद्रयान-3 और आदित्य मिशन जैसी वैज्ञानिक उपलब्धियों के पीछे न छिपने पाए, किसी ईवेंट की आड़ में नागरिकों की परेशानियों पर चमकीली चादर न बिछा दी जाए, क्योंकि यदि ऐसा होता रहेगा तो नागरिक केंद्रित होते हुए भी भारत के लोकतंत्र में नागरिक पिसता रहेगा। क्या यह ठीक होगा?

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वंदिता मिश्रा
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