प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक और गणितज्ञ, रेने डेकार्ट ने अपनी आत्मकथा ‘डिस्कोर्स ऑन द मेथड’ में लिखा है ‘सिर्फ अच्छा दिमाग होना पर्याप्त नहीं। मुख्य बात है उसका अच्छा इस्तेमाल किया जाना।’ डेकार्ट की यह बात संस्थाओं पर भी लागू होती है। सिर्फ़ अच्छी संस्थाएँ होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है संस्थाओं का बेहतर उपयोग किया जाना।
भारत इस समय ‘संस्थागत संकट’ के दौर से गुजर रहा है। हर कोई चाहता है कि भारत पहले $5 ट्रिलियन (2024-25) और इसके बाद $10 ट्रिलियन (2030) की अर्थव्यवस्था के अपने स्वप्न को पूरा करे। यह लक्ष्य भारत की गरीबी को कम करने में सहयोग प्रदान करेगा। लेकिन स्वप्न सिर्फ कह देने से तो पूरा नहीं हो सकता। इसके लिए देश की संस्थाओं को सुचारु रूप से संचालित करने की आवश्यकता है। लेकिन दुर्भाग्य से पूरा विश्व, भारत की संस्थाओं में लगातार गिरावट को प्रत्येक क्षेत्र में महसूस कर रहा है।
डेरा सच्चा सौदा के मालिक गुरमीत राम रहीम को 20 सालों तक केस चलने के बाद 2017 में 20 साल की सज़ा हुई। इसके बाद अपने मैनेजर रंजीत की हत्या के मामले में सज़ा हुई। इसके बाद फिर 2019 में सिरसा के पत्रकार राम चंदर छत्रपति की हत्या (2002) के मामले में सजा हुई। इतने के बाद भी हरियाणा की बीजेपी सरकार ने गुरमीत राम रहीम को ‘हार्डकोर’ अपराधी नहीं माना और उसे 7 फरवरी को पेरोल पर छोड़ दिया गया। खालिस्तानियों के बहाने उसे जेड प्लस सुरक्षा प्रदान की गई। मतलब हत्या और बलात्कार का दोषी अपराधी सड़कों पर भारतीय जनमानस के ख़र्चे पर चलेगा। इतने घिनौने अपराधों में लिप्त ऐसे अपराधी को 55 भारतीय जवान, जिसमें 10 से अधिक एनएसजी कमांडो शामिल हैं, सुरक्षा प्रदान करेंगे।
न्यायपालिका की संस्थागत नाकामयाबी (फेलियर) यह है कि हाथरस कांड पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार सिद्दीक कप्पन को महीनों से जेल से जमानत नहीं मिल रही है, 85 साल के एक बुजुर्ग स्टैन स्वामी बीमारी के बाद भी जेल से बाहर नहीं आ सके, जेल में ही उनकी मौत हो गई, लेकिन किसानों पर गाड़ी चढ़ाने के आरोपी आशीष मिश्रा को न्यायपालिका जमानत दे देती है। बलात्कार और हत्या का साबित अपराधी, गुरमीत राम रहीम न सिर्फ जेल से बाहर आ जाता है बल्कि उसे जेड प्लस सुरक्षा भी दी जाती है। इससे क्या संदेश प्रेषित होता है?
न्यायालय की इस संस्थागत नाकामयाबी में भारत के चुनाव आयोग की भी विफलता शामिल है। क्या चुनाव आयोग, न्यायालय में चुनावों की निष्पक्षता की बात कहकर राम रहीम को मिलने वाली पेरोल को पंजाब चुनाव सम्पन्न होने तक टालने की बात नहीं कह सकते थे? लेकिन चुनाव आयोग ने कुछ नहीं कहा। चुनाव आयोग ने तब भी कुछ नहीं कहा जब उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार के दौरान एक घोर सांप्रदायिक वीडियो जारी करते हैं।
खुलेआम चुनावी सभाओं में सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल होता है और चुनाव आयोग चुप रहता है, हाँ उनकी चुप्पी सिर्फ़ तब खुलती है जब विपक्ष का कोई नेता आचार-संहिता का उल्लंघन करता है। इस भेदभाव से क्या संदेश जाता है?
भारत के संविधान में संघीय ढांचे को स्वीकार किया गया है। यह ढाँचा भारत की राजनैतिक और आर्थिक स्थिरता का स्तम्भ है। संस्थान के रूप में इस स्तम्भ का इस्तेमाल आजादी के बाद भारत की तमाम सरकारों ने किया है। वर्तमान में जिस तरह प्रवर्तन निदेशालय व सीबीआई जैसी केन्द्रीय एजेंसियों के माध्यम से राज्य सरकारों और वहाँ की राजनीति को अस्थिरता प्रदान की जा रही है उससे देश में राजनीतिक संवाद की भाषा बदल रही है। पीएम मोदी और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ टीआरएस नेता व तेलंगाना के मुख्यमंत्री की भाषा और पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु समेत तमाम ग़ैर-भाजपाई मुख्यमंत्रियों के संभावित गठबंधन से तो यही बात निकल कर आ रही है कि केंद्र द्वारा संस्थाओं के अनावश्यक अतिशय इस्तेमाल से भारत में अस्थिरता का दौर आ सकता है। पक्ष और विपक्षी दलों के बीच संवाद की कमी संसद में सत्ता के मनमाने रवैये से भी पनप रही है।
14वीं शताब्दी में यूरोप में प्लेग की महामारी फैली। अपने स्वभाव के अनुसार प्लेग ने लगभग आधी आबादी को निगल लिया। लेकिन किंग एडवर्ड-तृतीय को चिंता थी सिर्फ़ अपने ज़मींदारों की। प्लेग की वजह से कामगारों की भारी कमी हो गई और कामगार अब कम पैसे पर काम करने को तैयार नहीं थे। इसलिए सन् 1351 में राजा ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किए जिसके तहत, अगर कामगार तय क़ीमतों पर काम करने को राजी नहीं होंगे तो उन्हें सज़ा दी जाएगी। ऐसे समय में जब आपदा देश के लोगों को मार रही हो तब ऐसे क़ानून लाना अमानवीय था। इसके ख़िलाफ़ 1381 में विद्रोह हुआ और राजा को क़ानून वापस लेने पड़े। इस विद्रोह ने 1688 के ग्लोरियस रिवॉल्यूशन के लिए जमीन तैयार की और इसी रिवॉल्यूशन ने 18वीं शताब्दी की सबसे बड़ी घटना ‘औद्योगिक क्रांति’ के लिए भी ज़मीन तैयार की। ग्लोरियस रिवॉल्यूशन ने नवाचार को बढ़ावा दिया, उद्योगों पर एकाधिकार की समाप्ति कर दी और सबसे बड़ी बात सभी के लिए एक समान कानून का प्रावधान कर दिया। परिणाम हमारे सामने है यूनाइटेड किंगडम के रूप में।
भारत में जब कोविड-19 की विपत्ति आई तो सरकार ने लगभग वही गलतियाँ करनी शुरू कर दीं, जो किंग एडवर्ड-तृतीय ने की थी। यहाँ भी लेबर कानूनों में परिवर्तन कर दिए गए। और ज़्यादातर मामलों के लिए जनता को ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा। कोविड फैलाने के लिए जनता को ज़िम्मेदार ठहराने वाली सरकार स्वयं लाखों की भीड़ वाली चुनावी रैलियों में व्यस्त थी।
कोविड के दौरान भारत ने असमानता के नए-नए आयाम छूए। नए संस्थान बनाना तो दूर वर्तमान संस्थाएँ भी अपने काम सही ढंग से नहीं कर रही है।
जब बंदरगाह और हवाईअड्डे पर एक समूह का कब्जा हो रहा था, जब एनर्जी व कोल क्षेत्र पर एक समूह का कब्जा हो रहा था, जब एक कंपनी द्वारा लाई गई टेलीकॉम की तथाकथित आंधी ने देश के टेलीकॉम सेक्टर से प्रतियोगिता ख़त्म कर दी, जब टीवी और मनोरंजन व संचार के माध्यमों में एक ही समूह का कब्जा हो रहा था तब भारत सरकार चुपचाप इसे होते देख रही थी। और इसे रोकने व नियंत्रित करने के लिए ज़िम्मेदार संस्थान भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (CCI) लगभग विलुप्त हो चुका था।
संस्थान के रूप में, संविधान का अनुच्छेद-14 जो क़ानून के सम्मुख समता की घोषणा करता है, बिल्कुल लाचार नज़र आने लगा है। क्योंकि चाहे कोर्ट में याचिका हो, या पुलिस का नागरिकों के साथ व्यवहार हो; इस अनुच्छेद का पालन करते नहीं दिखाई देते। क्या क़ानून लोगों की शक्लें और सूरतें देखकर अपने निर्णय लेने लगा है?
महंगाई और बेरोजगारी इतिहास के अपने चरम स्तर पर है। 200 रुपए प्रति लीटर का तेल इस्तेमाल करने वाली बेरोजगारी से कराह रही जनता विरोध प्रदर्शन भी न कर पाए उसके लिए ‘कर्तव्य बनाम अधिकार’ की याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में सुनी जा रही हैं।
परंतु आज भारत देश की संसद में मनमाने तरीक़े से कृषि क़ानून लागू कर दिए गए। विपक्ष चीखता-चिल्लाता रह गया लेकिन न पीठासीन अधिकारी ने कुछ सुना- और न ही सरकार की तरफ़ से कोई पहल हुई। परिणाम यह हुआ कि भारत ने 700 किसान खो दिए जिन्होंने विरोध-प्रदर्शनों के दौरान सड़कों पर दम तोड़ दिया। संसद की गिरती गरिमा के साथ देश को न निवेश का हब बनाया जा सकता है, न नागरिक स्वतंत्रताओं का पनाहगार।
आज देश का राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक संतोषजनक अवस्था में नहीं है, लोगों की जेबों में पैसा नहीं है, कल्याणकारी योजनाओं के बजट को लगातार कम किया जा रहा है और बैंक लगातार बदहाल होते जा रहे हैं।
बैंकों को बचाने के लिए सरकार एलआईसी का इस्तेमाल कर रही है लेकिन पिछले 7 सालों में 3 उद्योगपति देश का लगभग 50 हजार करोड़ रुपया लूटकर चले जाते हैं लेकिन उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही के नाम पर लगभग शून्यता है।
संस्थान के रूप में मेनस्ट्रीम मीडिया का पतन तो साफ़ दिख रहा है। लेकिन डिजिटल मीडिया भी इससे अछूता नहीं रहा। अगर मेनस्ट्रीम मीडिया की समस्या रेवेन्यू मॉडल थी तो लगभग यही समस्या डिजिटल मीडिया की भी बनती जा रही है। दिन-रात राजनैतिक बहसों में उलझे पत्रकार सामाजिक समस्याओं को लेकर ट्वीट कर रहे हैं, बहस नहीं। राजनैतिक चेतना के नाम पर देश के जातीय विभाजन को स्वीकार कर लिया गया है। 1909 मार्ले-मिंटो सुधार ने जिस पृथक निर्वाचन मण्डल की अवधारणा के साथ देश को विभाजित करना चाहा और मैकडोनाल्ड अवॉर्ड के ख़िलाफ़ गाँधी जी का आमरण अनशन जिस कारण से था वो अब अघोषित रूप से देश के बौद्धिक कारखानों में जन्म ले चुका है। जातीय आधार पर अघोषित पृथक निर्वाचक मण्डल बन चुके हैं। शायद इसके लिए एक हद तक पुराने और वरिष्ठ राजनैतिक दल भी ज़िम्मेदार हैं।
भारत में हर तरफ संस्थागत पतन अंधेरा उत्पन्न कर रहा है। ऐसा लगता है मानो लगातार गतिशील देश में बिजली चली गई हो। न रोजगार, न आर्थिकी, न सधी हुई विदेश नीति, न समावेशी व्यापार नीति और इसके ऊपर लगातार होता निजीकरण (प्राइवेटाइज़ेशन), विफल होते बैंकिंग संस्थान और इसी अंधेरे में चलता सांप्रदायिकता का हिंसक जुलूस। ऐसा लगता है कि 21वीं सदी के भारत को कोई चाँद की रोशनी में चलाना चाह रहा है क्योंकि विकास के सारे इंजन तो बंद हो चुके हैं।
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