किसी के डर का सच हो जाना कितना डरावना हो सकता है, यह बात बिलकीस बानो के मामले से समझी जा सकती है। 27 फरवरी 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन के डिब्बे में आग लग जाने की वजह से 59 लोगों की मौत हो गई। ये मरने वाले लोग अयोध्या से कारसेवा करके वापस लौट रहे थे। अगले दिन से पूरे गुजरात में मुस्लिम विरोधी घटनाओं की बाढ़ आ गई। बिलकीस बानो को डर लगने लगा कि कहीं उसका परिवार भी इस मुस्लिम विरोधी आग में न जल जाए। अपने डर से बचने के लिए बिलकीस ने अपनी साढ़े तीन साल की बच्ची और 15 अन्य परिवार के सदस्यों के साथ 28 फरवरी को अपने गाँव, राधिकापुर, जिला दाहोद, को छोड़ दिया। सुरक्षित जगह की तलाश में भटकती बिलकीस और उनका परिवार 3 मार्च 2002 को छप्परबाड़ गाँव पहुंचे। यहाँ 20-30 लोगों के एक हथियारबंद झुंड ने उन्हें घेर लिया। उस भीड़ ने बिलकीस का बलात्कार किया, बिलकीस की माँ का भी बलात्कार किया, परिवार की तीन अन्य महिलाओं का भी बलात्कार किया और बिलकीस की साढ़े तीन साल की बच्ची को जमीन में पटककर मार दिया। उस समय 21 साल की बिलकीस 5 महीने से गर्भवती थी। उसको जो डर सता रहा था वो सच हो चुका था। अदालत ने इस झुंड के 11 लोगों को हत्या और बलात्कार का दोषी ठहराते हुए उम्र कैद की सजा दी।
बिलकीस किसी तरह सबकुछ भूलकर खुद को संभाल ही रही थी कि भारत की आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ, 15 अगस्त 2022 को गुजरात की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने उन 11 बलात्कारियों को जेल से रिहा कर दिया। इन 11 लोगों को रिहा करने का आधार जिस 1992 की क्षमा नीति को बनाया गया वह नीति अब अस्तित्व में ही नहीं है।
बलात्कारियों को ‘आजाद’ करने के लिए जिस मौके को चुना गया वह राज्य सरकार के दुस्साहस और अहंकार दोनों को दर्शाता है। 15 अगस्त को जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल क़िले से भाषण दे रहे थे और जनमानस से महिलाओं के सम्मान का आह्वान कर रहे थे, नागरिकों से प्रण ले रहे थे कि महिलाओं का सम्मान करना चाहिए उसी दिन, उसी राजनैतिक दल, जिस दल के नरेंद्र मोदी नेता हैं, की गुजरात सरकार ने महिला अस्मिता को तार-तार करने वाले और एक बच्ची को पटककर मार देने वाले अपराधियों के झुंड को कैद से छोड़ दिया। ऐसे निंदनीय निर्णय को लेने के लिए इतने पावन दिन को चुनने का क्या कारण हो सकता है? देश के इतिहास को कलंकित करने वाली इस घटना को अंजाम देना दुस्साहस ही है। प्रधानमंत्री सम्मान का आह्वान करें और उन्हीं की पार्टी की राज्य सरकार महिलाओं को डराने और अपमानित करने के लिए खुलेआम निर्णय लें, यह दुस्साहस ही है। भाजपा के अबतक के सबसे प्रख्यात और मजबूत नेताओं में से एक माने जाने वाले नरेंद्र मोदी के लालक़िले के भाषण को अपमानित करने का फ़ैसला उन्हीं की पार्टी की राज्य इकाई ले ले यह किसी नेता की पार्टी पर कमजोर पकड़ की अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए और इस लिहाज से यह जानना ज़रूरी होगा कि पार्टी के निर्णय वास्तव में कौन ले रहा है?
इस भ्रम से दूर रहना चाहिए कि 11 बलात्कारियों को छोड़ने का बीजेपी सरकार का फ़ैसला न्यायपालिका से आया है। न्यायमूर्ति मृदुला भाटकर, जिन्होंने बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार मामले में 11 दोषियों की सजा को बरकरार रखा था, ने लोगों से दोषियों की रिहाई के लिए न्यायपालिका को दोष नहीं देने का आग्रह करते हुए एक इंटरव्यू के दौरान कहा है कि यह सरकार का निर्णय था न्यायपालिका का नहीं।
बलात्कारियों को छोड़ने के मामले में जो सबसे चिंतनीय बात है वो ये है कि संदेश यह जा रहा है कि देश के प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं उनकी बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए! संदेश यह जा रहा है कि कोई महिला कितनी भी लड़ाई लड़कर अपने लिए न्याय पा ले लेकिन उसको मिलने वाला न्याय अस्थायी है स्थायी नहीं। संदेश यह जा रहा है कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर देश लापरवाह है वरना अगर गुजरात सरकार को मालूम होता कि इन बलात्कारियों को छोड़ने के बाद कोई भी महिला बीजेपी को वोट नहीं देगी और पुरुष भी इस कदम में हर महिला का साथ देंगे तो शायद भारतीय जनता पार्टी के दुस्साहस की रबड़ हमेशा के लिए ढीली हो जाती। यदि उन्हें पता चल जाता कि यह देश धर्म और जाति, वर्ग से परे महिलाओं के साथ हर हाल में खड़ा है तो अपने गुजरात एमएलए के गैर-जिम्मेदाराना बयान पर (जिसमें उसने कहा कि ये 11 बलात्कारी ब्राह्मण हैं, संस्कारी हैं इसलिए इन्हें क्षमा कर देना चाहिए) पार्टी उसे उल्टा खड़ा कर देती।
संदेश यह जा रहा है कि महिला अगर मुस्लिम समुदाय की हुई तो कोई भी मुख्यधारा का न्यूज़ चैनल इस मामले को लेकर बहस नहीं करवाएगा और न ही सरकार पर कोई प्रश्न उठाएगा अर्थात महिलाओं के ख़िलाफ़ निर्णय लेने के बावजूद बीजेपी को जनता के कटघरे में नहीं खड़ा किया जाएगा।
ऐसी प्रायोगिक घटनाओं वाले संदेशों के साथ प्रधानमंत्री का महिला सम्मान का भाषण संदेश कहीं दुबक कर बैठ जाता है। मुझे नहीं पता कि प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के महिला सम्बधी वक्तव्य को भी जुमला समझा जाना चाहिए या नहीं! इन बलात्कारियों को छोड़े जाने के बाद यह भी सुनिश्चित करना संभव नहीं है कि प्रधानमंत्री की किस बात पर कितना भरोसा किया जाए? उसमें कितना अंश चुनावी है और कितना अंश महिलाओं के प्रति उनकी वास्तविक संवेदना का है? एक ही पार्टी के दो घोर विरोधी संदेशों को जनता स्वीकार कर लेगी यह सोच लेना भी हिम्मत की बात है।
असलियत यह है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध सुनामी की तरह बढ़ रहे हैं और उन्हें न्याय देने के लिए भारत में पर्याप्त सोच और अवसंरचना ही उपलब्ध नहीं है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (PHFI) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बलात्कार से संबंधित अपराध दर पिछले दो दशकों में 70% बढ़ गई है। जहाँ 2001 में यह प्रति 100,000 महिलाओं में 11.6 थी वहीं यह बढ़कर 2018 में 19.8 हो गई। अपराध बढ़ रहे हैं लेकिन देश में हर 10 लाख लोगों के लिए जजों की संख्या मात्र 15 है। दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज ने एक बार अनुमान लगाया था कि अकेले राजधानी दिल्ली में बैकलॉग ख़त्म होने में 466 साल लगेंगे। ऐसे में एक महिला को एक बार ही समय पर न्याय मुश्किल है उसे बार बार न्यायालयों की चौखट पर लाकर खड़ा करना बहुत अमानवीय है।
2016 में पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलपमेंट द्वारा नई दिल्ली में किए गए एक अध्ययन में पाया गया था कि फास्ट ट्रैक होने के बावजूद बलात्कार के प्रति मामले में औसतन 8.5 महीने का समय लिया जा रहा है अर्थात अनुशंसित अवधि से चार गुना अधिक। ऊपर से एनसीआरबी की रिपोर्ट से पता चलता है कि बलात्कार के मामलों का बैकलॉग बहुत बड़ा है। महिलाओं के खिलाफ किए गए लगभग 89.6% मामले अभी भी लंबित ही हैं। इन लंबित मामलों के पूरा होने तक कई महिलाएँ इस दुनिया में ही नहीं रहेंगी। ऐसे में क्या यह ज़रूरी नहीं कि प्रधानमंत्री 11 बलात्कारियों को छोड़ने का निर्णय लेने वाली अपनी राज्य सरकार से इस्तीफा मांगें? या दूसरा तरीका है कि अपने भाषण में किए गए आह्वान के लिए क्षमा मांग लें और असमर्थता जताकर कह दें कि उनकी ही पार्टी की राज्य सरकार उन्हीं की भावनाओं और वादों को समर्थन नहीं कर रही। या फिर यहाँ भी ‘प्रज्ञा ठाकुर सिन्ड्रोम’ चलेगा? और वो अपनी ही राज्य सरकार को कभी दिल से माफ नहीं कर पाएंगे।
भारत में लगभग हर 15 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है। जबकि मामलों को न्यायिक प्रक्रिया से निपटाए जाने की रफ्तार बहुत ही धीमी है। न्यायालयों में महिलाओं की लड़ाई बहुत मुश्किल है।
PHFI द्वारा NCRB की वार्षिक रिपोर्टों की समीक्षा में पाया गया कि 2012 से 2018 के बीच महिला अपराधों में से मात्र 10% मामलों का ही निपटारा हो पाया। जबकि 73% मामलों में अभियुक्त के खिलाफ मामला साबित ही नहीं हो पाया। सरकारें कब यह समझेंगी कि बलात्कार के 4 में से केवल 1 मामले में दोष सिद्ध होने के साथ, यह देश में बलात्कार पीड़ितों के लिए न्याय की दुर्गम सड़क है। अर्थात, प्रत्येक चार महिलाएँ जिनका यौन शोषण होता है उनमें से तीन यह साबित ही नहीं कर पातीं कि उनके साथ यह जघन्य अपराध हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर अगर बिलकीस बानो का मामला गुजरात के बाहर महाराष्ट्र नहीं जाता तो शायद उसे भी न्याय नहीं मिल पाता। गुजरात में, जिस पहली जगह बिलकीस रिपोर्ट लिखाने गई थी वहाँ के हेड कांस्टेबल ने रिपोर्ट में बलात्कार का जिक्र तक नहीं किया। गुजरात में, बिलकीस के परिवार के लोगों की हत्या के बाद दफ़न किए गए उनके शरीरों में से किसी का भी सर नहीं मिल सका था। सीबीआई को आशंका थी कि सबूत मिटाने के लिए ‘किसी ने’ शवों से सर अलग कर दिए थे ताकि पहचान न हो सके।
एनसीआरबी ने 2001 में महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों के 59,945 मामले दर्ज किए और 2018 में यह आंकड़ा 133,836 तक पहुंच गया। इस गति से बढ़ती पुरुष विकृति को लगाम लगाने के लिए सिर्फ न्यायपालिका और कानून पर्याप्त नहीं होगा। देश के मुखिया और विभिन्न प्रदेशों के मुखियाओं को सीधे और सपाट शब्दों में यौन अपराधों के खिलाफ ‘नो टोलेरेन्स’ की नीति अपनानी होगी। सिर्फ भाषण देने के लिए भाषण दे देने से कोई काम नहीं चलेगा, ऐक्शन लेना होगा।
महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनते। इसलिए बलात्कार को लेकर विपक्ष तो सक्रिय लगता है लेकिन सत्तारूढ दल उदासीन। नागरिकों को धर्म और जातियों में बांटकर नागरिक और मानवबोध को कम करने की साजिश के खिलाफ कोई संस्थान नहीं लड़ पाएगा। नागरिकों को बांटने की लड़ाई नागरिकों को ही लड़नी होगी। हर महत्वपूर्ण न्यूज चैनल, अखबार और ऑनलाइन पोर्टल्स पर ध्यान देना होगा, हर प्रतिष्ठित सेलिब्रिटी पर ध्यान देना होगा, उनके वक्तव्यों और व्यवहारों को परख कर यह देखना होगा कि कहीं उन्होंने महिलाओं की समस्याओं को कांग्रेस बनाम भाजपा और हिन्दू बनाम मुस्लिम तो नहीं कर दिया है। और अगर ऐसा लगता है कि ये लोग नागरिकों की समस्याओं से टीआरपी खरीद रहे हैं तो उनका बहिष्कार अवश्यंभावी हो जाना चाहिए।
स्वतंत्रता का उत्सव निकल जाने के बाद बेरोजगारी और महंगाई से त्रस्त नागरिक शायद ही किसानों की दोगुनी आय, और हर व्यक्ति के लिए घर और स्वच्छ गंगा के बारे में सवाल पूछ पाए।
यह सूचनाओं के तेजी से बदलने का दौर है। यहाँ नागरिकता का मतलब है मल्टीटास्किंग के साथ मल्टीआस्किंग दृष्टिकोण। एक गतिशील नागरिक होना आज के दौर की राष्ट्रभक्ति का सर्वोत्कृष्ट लक्षण है। आप सभी को याद रखना होगा और सतर्क रहना होगा कि जिसे आपने चुनकर भेजा है वो चंद उद्योगपतियों और मीडिया की दुकानों के माध्यम से आप अर्थात नागरिकों के अंतरात्मा को न ही खरीद पाए और न ही बाँट पाए; यही राष्ट्रभक्ति है।
आज का सवाल जस्टिस कृष्णा अय्यर के माध्यम से, रफीक बनाम यूपी राज्य के मामले में जस्टिस अय्यर ने कहा था कि एक हत्यारा शरीर को मारता है जबकि एक बलात्कारी आत्मा को मारता है। अब सरकार देश के सभी लोगों को यह बताए कि जिन्होंने शरीर और आत्मा दोनों को मार डाला उस किस्म के मनुष्यों के लिए कौन सी क्षमा नीति लागू की जा सकती है?
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