न्याय को सुविधा के लिए अनुच्छेदों में बाँटा गया था। न्याय के लिए बनाई गई धाराओं का उद्देश्य यह कभी नहीं था कि एक दिन इन्हीं धाराओं को मनचाहे तरीके से जोड़ तोड़ के लोकतंत्र का गला घोंट दिया जाएगा। भारत में न्याय की बिखरती अवधारणा और न्याय का सत्ता-प्रेम इसलिए सामान्य होता जा रहा है क्योंकि जिन संस्थाओं से न्याय की आशा की गई थी वो स्वतंत्र रूप से अपनी निजी विचारधारा को न्याय के अनुच्छेदों में गूँथ रहे हैं। अपने इस कृत्य को वो ‘अवमानना के नोटिस’ से ढँक देना चाहते हैं ताकि लोग चर्चा करने मात्र से डरना शुरू कर दें।
यहाँ चर्चा किसी एक व्यक्ति, संस्था या विश्वास से प्रेरित अन्याय या न्याय की नहीं है बल्कि मामला भारत में लगातार पैर पसार रहे ‘संस्थागत-अन्याय’ की है। किसी भी संस्था का नाम ले लीजिए- मसलन, न्यायपालिका, प्रधानमंत्री, प्रवर्तन निदेशालय(ED), सीबीआई या फिर चुनाव आयोग आदि। सभी संस्थाएं संस्थागत फ्रेमवर्क पर निर्मित हैं लेकिन लगभग सभी किसी न किसी रूप में संस्थागत-अन्याय को प्रश्रय दे रही हैं। यह सब जानबूझकर हो रहा है या अनजाने में, यह आज अब संविधान के लागू होने के 72 सालों बाद मायने नहीं रखता। क्योंकि किसी के साथ अन्याय करने के लिए हमारे पास ‘औपनिवेशिक सत्ता’ और कानून का रोना नहीं रह गया है।
एक फिल्म रिलीज होती है और उसमें कुछ तथाकथित डायलॉग हमारी अपनी वर्षों की प्रेरणा से मैच नहीं करते। फिल्म निर्माता हमारी मर्जी की फिल्म बनाने में असफल रहता है, वह पौराणिक चरित्रों को वैसे नहीं देखना चाहता जैसा बहुत से लोग चाहते हैं और फिल्म का विरोध शुरू हो जाता है, निर्माता, निर्देशक, लेखक सभी को धमकियाँ मिलने लगती हैं। लेकिन असली समस्या तब आती है जब एक संवैधानिक संस्थान कानून के अनुच्छेदों को अपनी निजी विचारधारा से खाद-पानी देने की कोशिश में संविधान की मौलिकता को ही नष्ट करने की कोशिश में लग जाता है। मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र पर आधारित या प्रेरित इस फिल्म के निर्माता और लेखक को सिर्फ इसलिए न्यायपालिका की फटकार का सामना करना पड़ता है क्योंकि लेखक ‘अपने राम’ को अलग तरीके से दिखाना चाहता है। बस तरीका ही अलग था लेकिन उसे अपमान समझ लिया गया।
21वीं सदी के भारत में फिल्में धार्मिक संगठनों के हठ और न्यायपालिका की न्याय की अपनी ‘समझ’ पर आधारित हों, यह शर्म की बात है। बेहद सामान्य सी बात जो न्यायपालिका को नहीं समझ आई कि फिल्मों के निर्माण से राम नहीं बदला करते और दूसरी यह कि राम की मर्यादा उनकी व्यक्तिगत पूंजी थी समाज के लिए उनके द्वारा कोई दिया गया दिशानिर्देश नहीं था, ऐसे में राम के नाम पर आने वाली पीढ़ियों को दिशानिर्देश जारी करते रहना न्याय नहीं है। यदि फिल्मों से धर्म ढह रहे होते तो ईसाई धर्म तो कब का ढह जाता। केन रसेल की ‘द डेविल्स’ (1971) और लार्स वॉन ट्रिएर की ‘एंटीक्राइस्ट’(2009) जैसी फिल्मों के बाद भी ईसाई धर्म का पतन नहीं हुआ बल्कि आज ऐतिहासिक रूप से इस पृथ्वी पर सर्वाधिक ईसाई मौजूद हैं। आज हालत यहाँ तक पहुँच गई कि राम पर बनी फिल्म का लेखक ‘भावनाओं को ठेस पहुँचाने’ के लिए माफी तक मांग लेता है। हो सकता है जनता और न्याय के घोषित पुरोहित इस बात से अब संतुष्ट हो जाएँ कि माफी मांग ली गई है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हर बार ऐसी माफ़ी भारत को कमजोर करती है।
साथ ही कुछ ऐसी माफी भी होती हैं जिनसे राष्ट्र मजबूत होता है और उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ती है। उदाहरण के लिए यदि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर हिंसा पर राज्य के लोगों से माफी मांगते, अपनी गलती और मणिपुर में हो रही हिंसा की अनदेखी और राज्य के सुधार के लिए रह गई कमियों के लिए निवेदन करते हुए थोड़ा और वक्त मांगते तो भारत की एकता मजबूत होती और असामाजिक तत्वों में हताशा आती। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ ही नहीं। मणिपुर राज्य जलता जा रहा है और देश के नागरिकों को यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि भारत में कोई प्रधानमंत्री है भी कि नहीं।
अमेरिका से प्राप्त वाहवाही के बीच मणिपुर जलता रहा और सत्ता-पोषित मीडिया जश्न मनाता रहा। लेकिन यहाँ कभी कोई न्याय का पहरेदार बीच में ‘स्वतः-संज्ञान’ के माध्यम से नहीं आया जो सरकार से मणिपुर की स्थिति पर प्रश्न पूछ लेता। सरकार के कार्यों में हस्तक्षेप को लेकर नीतियाँ और सिद्धांत बनाने वाली न्यायपालिका कब स्वयं इन सिद्धांतों को खरोंच कर आगे बढ़ जाती है और कब और गाढ़ी रेखाएं बना लेती है पता ही नहीं चलता। नागरिक सफर कर रहे होते हैं और अचानक न्यायपालिका को ‘शक्तियों के वितरण’ का सिद्धांत याद आ जाता है और इस पर होने वाली हर टिप्पणी के सामने ‘अवमानना का नोटिस’ भूत बनकर सामने आ जाता है।
सम्मान और भय के बीच का फ़र्क मिटता जा रहा है और शायद भारत 1947 के पीछे चला जा रहा है।अगर नहीं लगता कि भारत पीछे जा रहा है तो एक दैनिक हिन्दी के अखबार की एक खबर पर गौर कीजिए। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हवाले से लिखा गया है ‘गरीबों का स्वाभिमान मेरी गारंटी’ ! भगवान शिव की नगरी कहे जाने वाले वाराणसी में प्रधानमंत्री द्वारा कहा गया यह कथन चाहें तो वह स्वयं ही झुठला दें, नहीं तो लोग सवाल पूछेंगे कि मणिपुर में जिन लोगों के चर्च और घर जले, जिन महिलाओं के साथ अभद्रता की गई और जो लोग मारे गए क्या वह सभी अमीर थे? क्योंकि गरीबों के स्वाभिमान की गारंटी तो प्रधानमंत्री ने ले ली है या फिर यह मान लिया जाए कि हर बार जो पीएम कहते हैं उसे गंभीरता से नहीं लेना चाहिए या फिर ये कि मणिपुर के लोगों का कोई सम्मान ही नहीं है? इसमें से जिस भी प्रश्न का उत्तर प्रधानमंत्री या उनके सिपहसालार देना चाहें दे दें।
हो सकता है ‘गरीबों का स्वाभिमान मेरी गारंटी’ ! कहते हुए प्रधानमंत्री जी सुदूर उत्तर-पूर्व की समस्या के बारे में न कह रहे हों तो उन्हे महिला पहलवानों पर कुछ कह देना चाहिए। क्या महिला पहलवान इतनी अमीर हैं कि उनके स्वाभिमान की गारंटी पीएम मोदी नहीं ले पा रहे हों? या उनकी ‘गारंटी’ सत्ता हासिल करने के समीकरण का वह ‘शून्य’ है जो हमेशा शून्य ही रहेगा? जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी में गरीबों को अपनी यह गारंटी प्रदान कर रहे थे लगभग उसी समय कुछ दूर राजधानी लखनऊ में एक महिला का टेंट बारिश के बीच बुलडोजर से गिरा दिया जाता है। यूपी में मोदी जी की डबल इंजन की सरकार है और एक अस्थाई घर जिसमें एक महिला अपनी बच्ची के साथ रह रही थी गिरा दिया गया। स्कूल से घर आई बच्ची माँ से चिपक कर रोने लगती है और पूछती है ‘अब कहाँ रहेंगे?’ एक तो प्रधानमंत्री की आवास योजना इस महिला तक नहीं पहुँचती, दूसरा इस महिला का वर्तमान ठिकाना ढहा दिया गया, तीसरा मानसून की भीषण बारिश! क्या इस अन्याय को प्रधानमंत्री नहीं देख पाए? क्या प्रधानमंत्री की स्वाभिमान की गारंटी योजना में यह महिला समाहित नहीं है? या स्वाभिमान की इस गारंटी योजना में पहले खुद को रजिस्टर करवाना होगा, किसी ऐप से गुजरना होगा और फिर जब ओटीपी मिल जाएगा तब मिलेगी स्वाभिमान की गारंटी?
किसी भारतीय नागरिक का घर, उसका ठिकाना और उसकी सुरक्षा को ढहा दिया गया लेकिन न्यायपालिका के किसी हिस्से को कुछ नहीं कहना!क्यों? उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सैकड़ों लोगों के घर गिरा दिए गए न्यायालय से जो आवाज बाहर आई उसमें ध्वनि नहीं थी, सन्नाटा बना रहा। सर्वशक्तिमान भगवान के बचाव में आदेश पारित करने वाले न्यायालय इंसानों को न्याय देते समय ‘माप-तौल’ का सहारा ले रहे हैं इससे देश को नुकसान हो रहा है।
समस्या यह है कि देश की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की गारंटी कौन लेगा? गुजरात उच्च न्यायालय ने विपक्ष के सबसे बड़े नेता कॉंग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी को मानहानि मामले में राहत देने से इंकार कर दिया। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में राहुल गाँधी की एक टिप्पणी से उपजा मानहानि का मामला सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। इससे आगामी चुनावों में भाग लेने की उनकी क्षमता को नुकसान पहुँच सकता है”। क्या इससे पूरी दुनिया में यह संदेश नहीं जाएगा कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने विपक्ष के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित नेता को एक टिप्पणी के लिए लोकतंत्र की सबसे बड़ी एक्सर्साइज़ से बाहर करने के मुहाने पर पहुँच गया है? यह भी कि जो मामला न्यायालय द्वारा शुरुआत में ही खारिज कर दिया जाना चाहिए था वह आज देश की सबसे बड़ी अदालत में जा पहुँचा है, एक ऐसी अदालत जिस पर 140 करोड़ लोगों को न्याय देने का दारोमदार है, वह एक मानहानि का मामला सुनेगा?
फैसला किसी भी कानून को ध्यान में रखकर दिया गया हो लेकिन सबसे बड़ी हार यह है कि देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कॉंग्रेस ने अपने आधिकारिक बयान में कहा है कि “उच्च न्यायालय का निर्णय अप्रत्याशित नहीं था...” । अर्थात उन्हे पहले से ही आशा थी कि गुजरात उच्च न्यायालय से कोई राहत नहीं मिलेगी। वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने तो कहा कि “फ़ैसले में कानूनी कसौटियों को बिल्कुल नहीं देखा गया और अप्रासंगिक मामलों का उदाहरण देकर सही ठहराने का प्रयास किया गया”। सबसे बड़े विपक्षी दल द्वारा उच्च न्यायालय पर ऐसी टिप्पणी जो अविश्वास से प्रेरित हो, न्यायपालिका को अपने अंदर झाँकने के लिए विवश करती है। सिर्फ न्यायालय और सरकार मिलकर देश का निर्माण नहीं करते, लोकतंत्र में विपक्ष दबी हुई आवाजों और सरकारी अन्याय के खिलाफ चेहरे का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे दरकिनार करने की कोशिश एक-दो लोगों को तो फायदा पहुँचा सकती है लेकिन देश नुकसान में ही रह जाएगा।
संस्थागत संस्थाओं के द्वारा किए गए अन्याय का नुकसान यह भी है कि महाराष्ट्र में चुनी हुई सरकारों को झुठला दिया गया, क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों को तोड़ दिया गया। स्पीकर, विधायिका और चुनाव आयोग ने संविधान प्रदत्त अपने कार्य नहीं किये। राजनीति के लिए संस्थाओं के माध्यम से अन्याय को पोषित किया जाता रहा। विपक्षी दलों के ही नेता ED के अधिकारियों के सामने लाए जाते रहे, विपक्षी दलों के नेताओं के घरों पर ही सीबीआई और आयकर विभाग के छापे पड़ते रहे, सत्ता पक्ष का व्यक्ति तो नाबालिग के यौन शोषण के आरोप के बाद भी बच निकला। जिस पॉक्सो के मामले में आसानी से शिकायत वापस नहीं मिलती उस शिकायत की वापसी की प्रक्रिया की इजाजत दिल्ली उच्च न्यायालय ने दे डाली, यह जानते हुए भी कि वहीं दिल्ली में, देश के तमाम न्यूज चैनलों में यह बहस चलती रही कि सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह जेल से बाहर रहकर उसके खिलाफ आरोप लगाने वालों और पीड़ितों को डरा धमका सकते हैं इसके बावजूद उन्हे जेल नहीं भेजा गया और अंततः वही हुआ जिसकी चिंता महिला पहलवानों को थी।
वहीं दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के मामले में न्यायालय ने जमानत देने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि उनका मानना था कि सिसोदिया सबूतों में हेराफेरी कर सकते हैं। न्यायालय को भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह पर इतना भरोसा क्यों है कि वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे, गवाहों को नहीं धमकाएंगे जबकि सिसोदिया पर ऐसा भरोसा क्यों नहीं है? क्यों गाँधी नेहरू परिवार के सभी लोगों को जिसमें तीन तीन भारत के पूर्व प्रधानमंत्री शामिल हैं, के खिलाफ घोर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के बावजूद किसी को 2 दिन की भी जेल नहीं हुई लेकिन उसी गाँधी परिवार के एक राजनेता राहुल गाँधी ने जब चुनावी रैली में ‘मोदी’ उपनाम पर टिप्पणी कर दी तो उन्हे 2 साल की सजा सुना दी गई?
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आखिर कौन है जो यह तय करता है कि कब कानून को कैसे इस्तेमाल करना है? कौन है जो कानून को न्याय के लिए नहीं बल्कि सत्ता पर जमे रहने के लिए इस्तेमाल करता है? इसका जवाब कानून की धाराओं की उस रस्सी में छिपा हुआ है जिसे ‘कोई’ अपने तरीके से जोड़-तोड़-मरोड़ रहा है।
जनसमूह से नागरिक बनने की प्रक्रिया में दशकों के लिए पिछड़ चुका भारत जिस दिन पर्याप्त मात्रा में ‘नागरिक’ अर्जित कर लेगा उस दिन शायद संस्थागत-अन्याय की हिम्मत करने की कोशिश भी नहीं हो सकेगी।
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