रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नाम की वैश्विक संस्था द्वारा प्रतिवर्ष किये जाने वाले सर्वेक्षण में दुनिया भर के देशों को वहाँ उपलब्ध ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ के आधार पर रैंकिंग दी जाती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत की स्थिति इस सूचकांक/सर्वेक्षण में बहुत ही गंभीर अवस्था में है। यदि पिछले 4 सालों की ही रैंकिंग पर नज़र डालें तो यह एहसास हो जायेगा कि भारत में ‘मीडिया’ के साथ क्या किया जा रहा है। 2019 में भारत इस सूचकांक में 140वें, 2020 और 2021 में 142वें, 2022 में 150वें और 2023 में गिरकर 161वें स्थान पर पहुँच चुका है।
यह सबकुछ तब है जब भारत में ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में कहा गया है कि, "सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा"। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए इसे ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ से जोड़ा। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत का संविधान प्रेस की स्वतंत्रता को मूल अधिकारों की श्रेणी में स्वीकार कर चुका है।
प्रेस की स्वतंत्रता की अहमियत समझते हुए देश की आज़ादी के 3 साल बाद ही 1950 में तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश पतंजलि शास्त्री ने ‘रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य’ में कहा था कि "भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता सभी लोकतांत्रिक संगठनों की नींव में है, क्योंकि स्वतंत्र राजनीतिक चर्चा के बिना किसी सार्वजनिक शिक्षा का अस्तित्व नहीं है, जो कि लोकप्रिय सरकार की प्रक्रिया के संचालन के लिए बहुत आवश्यक है"। लेकिन लगता नहीं है कि भारत की वर्तमान सरकार इन सबसे कुछ भी सीखने को उत्सुक है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के जन्मदिन के एक दिन बाद ही दिल्ली पुलिस जो कि केंद्र सरकार के अंतर्गत कार्य करती है, ने न्यूज़ मीडिया वेब पोर्टल न्यूजक्लिक के दफ़्तर में छापे मारे और इस मीडिया संस्थान से सम्बंधित लगभग 46 लोगों से पूछताछ की। न्यूज़क्लिक के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और संस्थान के मानव संसाधन विभाग के प्रमुख अमित चक्रवर्ती पर FIR दर्ज करके गिरफ्तार कर लिया गया। जिन लोगों से पूछताछ की गयी है, उनके डिजिटल एसेट्स को सीज करते समय कानून की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। न्यूज़क्लिक पर क्या आरोप लगाये गए हैं इसकी गहराई में जाने की ज़रूरत से पहले इस तथ्य को जानना चाहिए कि आखिर क्यों कोई जांच एजेंसी FIR की कॉपी देने तक से इंकार कर देती है? FIR की कॉपी प्राप्त करने के लिए, अपने ऊपर लगे आरोपों की जानकारी के लिए भी न्यूज़क्लिक को कोर्ट की शरण में जाना पड़ता है, तब जाकर उन्हें यह पता चलता है कि दिल्ली पुलिस ने किन धाराओं और कानून के तहत आरोप लगाये हैं।
एफआईआर की कॉपी से प्राप्त जानकारी के अनुसार, प्रबीर पुरकायस्थ और उनके एचआर हेड के खिलाफ यूएपीए की धारा 13 (गैरकानूनी गतिविधि), 16 (आतंकवादी कृत्य), 17 (आतंकवादी कृत्यों के लिए धन जुटाना), 18 (साजिश) और 22सी (कंपनियों और ट्रस्टों द्वारा किया गया अपराध) के साथ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 120बी (आपराधिक साजिश) के तहत आरोप लगाए गए हैं। मानव संसाधन विभाग के प्रमुख अमित चक्रवर्ती के खिलाफ एफआईआर में यूएपीए की धारा 13 (गैरकानूनी गतिविधि), 16 (आतंकवादी कृत्य), 17 (आतंकवादी कृत्यों के लिए धन जुटाना), 18 (साजिश) और 22सी (कंपनियों और ट्रस्टों द्वारा किया गया अपराध) के साथ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 120बी (आपराधिक साजिश) के तहत आरोप लगाए गए हैं।
बिजनेस स्टैंडर्ड्स के संपादकीय ने "(कानून की) उचित प्रक्रिया से परे" शीर्षक से सरकार पर सवाल उठाया। बिना किसी बचाव मुद्रा के, बिना इसकी परवाह किये कि सरकार ने न्यूज़क्लिक का सम्बन्ध चीन से जोड़ा है, अखबार ने स्पष्ट शब्दों में अपनी चिंता जाहिर करते हुए लिखा कि "इस निष्कर्ष से बचना कठिन है कि राज्य अपने जबरदस्त कानूनों की पूरी ताकत से आलोचकों को दबाना चाहता है"।
सरकार अपने ही नागरिकों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार क्यों कर रही है यह बात समझ से परे है। सरकार इस मामले के तारों को शाओमी और वीवो जैसी कंपनियों से भी जोड़ रही है। लेकिन यदि वास्तव में चीन, न्यूज़क्लिक और इन कम्पनियों के बीच इतना ही सीधा सम्बन्ध है तो पहले इन कंपनियों के संचालन को बंद क्यों नहीं किया गया? संदेह की पहली सजा अपने ही नागरिकों को देना क्यों ज़रूरी समझा सरकार ने? अगर यह सच है तो, कंपनियों के खिलाफ पहले कार्यवाही की जानी चाहिए लेकिन सरकार ने यह क़दम नहीं उठाया। संभवतया सरकार के पास ठोस सबूतों का आभाव हो! लेकिन ठोस सबूतों के आभाव में नागरिक अधिकार दांव पर लगाये जाएँ परन्तु कॉर्पोरेट अधिकार नहीं, यह देश के लोकतंत्र और स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए बिल्कुल ठीक नहीं? सरकार को इसका जवाब दे देना चाहिए।
पत्रकारों को जेल भेजना, उनका शोषण करना अपेक्षाकृत आसान बना दिया गया है जबकि प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ़ अभिव्यक्ति की आज़ादी से संबद्ध विषय नहीं है। वास्तव में यह विषय, लोकतंत्र की नींव अर्थात् निष्पक्ष चुनावों और सूचना के निर्बाध प्रसार संबंधी मौलिक मानवाधिकारों को समर्पित, एक विचार है।
इस पर सरकार द्वारा इस तरह हमला नहीं होना चाहिए, जब सरकार पत्रकारिता पर हमला बोल दे तो मतलब साफ़ है कि ऐसे देश में लोकतंत्र पर गहरा आघात पहुंचाने का षड्यन्त्र रचा जा रहा है। जिस देश में जितनी अधिक ‘स्वतंत्र प्रेस’ होगी वहाँ ‘नागरिक अधिकार’ उतने ही अधिक सशक्त होंगे। भारत जैसे देश में 140 करोड़ सशक्त नागरिक निश्चित ही एक मज़बूत राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं और एक दिन ऐसे मज़बूत राष्ट्रों को दुनिया में महाशक्ति कहा जा सकता है। इसके लिए किसी नेता को सीना ठोकने की ज़रूरत नहीं है, न ही हर दिन विश्वगुरु और मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी जैसे नारे गढ़ने की ज़रूरत है।
‘फ्री स्पीच कलेक्टिव’ ने ‘बिहाइंड बार्स’ शीर्षक से एक दशक (2010-20) में भारत में गिरफ्तार पत्रकारों का अध्ययन किया है। अध्ययन के मुताबिक, भारत में 154 पत्रकारों को उनके पेशेवर काम के लिए गिरफ्तार किया गया, हिरासत में लिया गया, पूछताछ की गई या कारण बताओ नोटिस दिया गया और इनमें से 40 प्रतिशत से अधिक मामले 2020 में दर्ज किए गए थे। इसके अलावा 9 विदेशी पत्रकारों को निर्वासन, गिरफ्तारी, पूछताछ का सामना करना पड़ा या उन्हें भारत में प्रवेश से वंचित कर दिया गया। पत्रकारों के साथ हो रहे इस व्यवहार के ढेरों उदाहरण हैं जिसमें से एक है पत्रकार सिद्दीक कप्पन, जिनको एक दलित महिला के सामूहिक बलात्कार पर रिपोर्ट करने के लिए यात्रा करते समय गिरफ्तार कर लिया गया था, दो सालों तक न्यायालयों को नहीं समझ आया कि बिना आरोप साबित किये कैसे एक पत्रकार को दो सालों तक जेल में बंद रखा जा सकता है? कानून की आड़ में दो सालों तक किये गए शोषण की भरपाई करना बहुत ही मुश्किल है। सरकारों को ऐसी यातनाओं की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
कान में रुई डालकर बैठी वर्तमान सरकार को यह सन्देश देना कि भारत में प्रेस की आज़ादी किस अवस्था में है, वह सूचकांक में किस स्थान पर है और यह कि भारत के संविधान और सर्वोच्च न्यायालय बार बार क्यों ‘प्रेस की आज़ादी’ के साथ आकर खड़े हो रहे हैं, यह सब अब पर्याप्त नहीं है। वर्तमान सरकार के लिए इन तथ्यों और विचारों की अब मात्र एकेडमिक कीमत ही रह गयी है। लगता है यह यदा कदा अब शोधपत्रों में ही दिखेगा, इन सब बातों, प्रमाणों से वर्तमान सरकार पर कोई फर्क पड़ने वाला है, ऐसा मुझे बिल्कुल नहीं लगता।
यह चुनाव अब भारत की जनता को करना है कि स्वतंत्र पत्रकरिता और प्रेस की आज़ादी जैसे मूल्यों की उन्हें कितनी जरुरत है। बिना इन मूल्यों के भारतीय लोकतंत्र कितने दिन और सांस ले पायेगा इसका भी आकलन उन्हें कर लेना चाहिए। भ्रष्टाचार और गरीबी जैसे मुद्दों के समाधान के लिए एक नागरिक-राष्ट्र की जरुरत होगी। अनुपस्थित स्वतंत्र मीडिया और विलुप्तप्राय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक राष्ट्र के रूप में भारत की संकल्पना को ख़तरे में डाल सकता है। राष्ट्र, गरीबी से तो ऊपर उठ सकते हैं, तकनीकी का इस्तेमाल करके भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगाई जा सकती है लेकिन नफरत की खेती करने वाला समाज और तानाशाही को राष्ट्रधर्म मान लेने वाला समाज धीरे-धीरे बिखर कर समाप्त हो जाता है।
2017 में आई निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म ‘द पोस्ट’ अमेरिका-वियतनाम युद्ध से संबंधित 20 वर्षों से अधिक के सरकारी दस्तावेजों को सार्वजनिक करने वाले पेंटागन पेपर्स के प्रकाशन में ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ की भूमिका से सम्बंधित है। यह फिल्म, यह बताती है कि एक निष्पक्ष और स्वतंत्र मीडिया राष्ट्र के लिए खतरा नहीं है बल्कि राष्ट्र को किसी बड़े खतरे में पड़ने से रोकने से संबंधित होता है। स्वतंत्र मीडिया किसी एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं के लिए तो खतरा बन सकता है लेकिन जनता हमेशा इससे लाभान्वित होती है, इसे नकारा नहीं जा सकता। भारत की आज़ादी और यहाँ लोकतंत्र की यात्रा की विरासत को किसी एक पार्टी और उसके नेता की भेंट चढ़ाने से रोकने के लिए मीडिया को अपनी आज़ादी बनाये रखनी होगी फिर चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो।
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