धनी और समृद्ध परिवार के बच्चों को ‘उच्छृंखल राष्ट्रवाद’ का इन्जेक्शन बड़ी तत्परता से दिया जा रहा है। यह बताने की कोशिश की जा रही है कि पिछले 75 सालों में काँग्रेस व अन्य दलों ने देश के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है। बात यहीं तक नहीं रुकती, ऐसे बच्चों को यह भी ‘ज्ञान’ प्रदान किया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान सरकार ही भारत की ‘वास्तविक’ सरकार है और असली विकास 2014 के बाद से ही शुरू हुआ है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि भारत को आजादी ही 2014 में तब मिली जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए।
लोगों में यह ज्ञान इसलिए स्थायी जगह पाता जा रहा है क्योंकि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार हर छोटे बड़े कार्यक्रम में ‘राष्ट्रीय कार्यक्रम’ और ‘राष्ट्रीय गौरव’ के बहाने नागरिकों की गाढ़ी कमाई से अर्जित किए गए टैक्स से अरबों रुपये बहा देती है। उदाहरण के लिए, G20 के आयोजन में जिस तरह ‘गौरव’ के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए वह किसी भी रूप में न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। आयोजनों की चमक में ‘गरीबी’ दिखाई न दे इसकी पूरी योजना लग रही है।
विभिन्न आयामों वाली तस्वीरें खिंचवाना, बड़े बड़े वादे करना और जब लगने लगे की हार निश्चित है, वादे नहीं पूरे किए जा सकते साथ ही जनता के सामने जाने का और उन्हे चेहरा दिखाने का साहस खत्म हो जाए तब आईटी सेल के माध्यम से कॉंग्रेस व अन्य दलों का मानमर्दन शुरू कर देना ही एक मात्र रास्ता रह जाता है। पानी में डूबे शरीर भले मुर्दा बनकर ही ऊपर आते हों लेकिन सत्य अपनी जीवित अवस्था में ही उभरकर सामने आ जाता है।
वैश्विक भुखमरी सूचकांक(GHI) ऐसा ही एक सच है जो नरेंद्र मोदी सरकार के सामने आकर खड़ा हो गया है। वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2023 में भारत की स्थिति ‘गंभीर’ श्रेणी में रखी गई है। 125 देशों में भुखमरी पर किए गए आँकलन में भारत को 111वां स्थान मिला है। GHI-2022 में यह स्थान 107वां था। भारत का स्कोर 100-पॉइंट स्केल पर 28.7 है। सूचकांक में ‘शून्य’ सबसे अच्छा स्कोर है (कोई भूख नहीं) और 100 सबसे खराब है। स्थिति यह है कि जब से नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से भारत लगातार इस सूचकांक में पिछड़ता जा रहा है।
इस प्रतिष्ठित सूचकांक में भारत की स्थिति पाकिस्तान(102वां), बांग्लादेश(81वां), नेपाल(69वां) व श्रीलंका(60वां) से भी बदतर है। यह सूचकांक जर्मनी आधारित, गैर-लाभकारी व गैर-सरकारी सहायता प्राप्त एजेंसी, वेल्थुंगरहिल्फे, द्वारा अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (IFFRI) के सहयोग से 2006 से जारी किया जा रहा है।
सूचकांक जारी करने वाली इस संस्था की स्थापना 1962 में, संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन(FAO) के तत्कालीन महानिदेशक बिनय रंजन सेन द्वारा चलाए गए ‘भुखमरी से आजादी’ कैम्पैन के जर्मन विस्तार के रूप में की गई थी। बजाय इसके कि सरकार भुखमरी में भारत की ‘गंभीर’ स्थिति को गंभीरता से लेती उसने इसे नकारना ही ज्यादा बेहतर समझा। और यह नकारने का काम भारत सरकार लगातार 3 बार से बहुत ही गंभीरता से कर रही है।
भारत सरकार ने लगातार तीसरी साल सूचकांक की ‘त्रुटिपूर्ण’ कार्यप्रणाली को दोषी माना है। सरकार का कहना है कि सूचकांक के लिए आंकड़ों का संकलन NFHS-5(2019-21) से लिया गया है। जबकि सूचकांक के आंकड़ों को ‘पोषण ट्रैकर’ से लेना चाहिए था जबकि सरकार यह बताने में विफल रही है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के नवीनतम आंकड़ों को ले लेने से क्या परेशानी है? पूरी दुनिया के शोधकर्ता 1992 से ही इन आंकड़ों का इस्तेमाल करते रहे हैं। यदि इन आंकड़ों में कोई खामी है तो इसे बंद क्यों नहीं कर दिया जाता और यदि यह अपडेटेड नहीं हैं तो इसे समय पर अपडेट क्यों नहीं किया जाता? सरकार कम से कम शोधकर्ताओं को तो यह निर्देश नहीं दे सकती कि जहां से वह चाहेगी शोधकर्ता वहाँ से आँकड़े लेंगे। लेकिन वर्तमान सरकार संभवतया यही सोच रही है है।
वास्तव में GHI स्कोर एक फॉर्मूले पर आधारित है जो चार संकेतकों को जोड़ता है जो एक साथ भूख की बहुआयामी प्रकृति को समझने में मदद करते हैं। इसमें अल्प पोषण, बाल बौनापन, बाल दुबलापन और बाल मृत्यु दर शामिल हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भूख के खिलाफ भारत की प्रगति, 2015 से लगभग रुक सी गई है। जबकि इससे पहले 2000 से 2015 के बीच भारत ने शानदार प्रदर्शन किया था, तब तत्कालीन सरकारों ने आंकड़ों का रोना नहीं रोया बल्कि विभिन्न नीतिगत सुधार किए जिनसे अंततः भुखमरी के खिलाफ लड़ाई को गति मिली। भारत ने 2000 से 2015 के बीच महत्वपूर्ण प्रगति की, उसका स्कोर 2000 में 38.4 से सुधरकर 2008 में 35.5 और 2015 में 29.2 हो गया, जबकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के पिछले आठ वर्षों के दौरान भारत का GHIकेवल 0.5 अंक ही आगे बढ़ा है।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा है कि "भूख का त्रुटिपूर्ण माप भारत की वास्तविक स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं करता है"। मंत्रालय के अनुसार पोषण ट्रैकर पोर्टल के डेटा में पांच साल से कम उम्र के कुल 7.24 करोड़ बच्चों में चाइल्ड वेस्टिंग (दुबलापन) 7.2% है, जबकि GHI ने चाइल्ड वेस्टिंग के लिए NFHS-5 के नवीनतम आँकड़े, 18.7% को सही माना है। पोषण ट्रैकर पोर्टल की कार्यविधि व प्रभावशीलता पर संसदीय समिति सवाल उठा चुकी है।
GHI की वरिष्ठ नीति सलाहकार मिरियम वाइमर्स ने भारत सरकार की आपत्ति पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि “जीएचआई, सभी देशों के लिए समान किस्म के स्रोतों से आँकड़े एकत्रित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि उपयोग की गई सभी दरें तुलनीय पद्धतियों का उपयोग करके तैयार हों। किसी भी देश या देशों के लिए इस प्रक्रिया में अपवाद पेश करना, परिणामों और रैंकिंग की तुलनीयता से समझौता करेगा।”
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार की एक अन्य आपत्ति जिसमें सरकार ने दावा किया है कि अल्पपोषण की गणना के लिए टेलीफोन-आधारित जनमत सर्वेक्षण का उपयोग किया गया है। GHI के अनुसार वह ऐसे सर्वेक्षण का उपयोग नहीं करता है, बल्कि अल्पपोषण की गणना के लिए वह भारत की खाद्य बैलेंस शीट के आंकड़ों पर निर्भर करता है। अब इसके आगे का जवाब भारत सरकार को भी दे देना चाहिए कि क्या उसकी खाद्य बैलेंस शीट वही आँकड़े पेश कर रही है जिनकी वजह से भारत में भुखमरी की स्थिति GHI के सामने परिलक्षित हो रही है?
गेंहू, चावल और मुट्ठी भर दाल से भारत का भविष्य, बच्चे, सँवारे नहीं जा सकते। जब तक उन्हे पर्याप्त मात्रा में फल, दूध के साथ साथ प्रोटीन के विविध स्रोत उपलब्ध नहीं करवाए जाते तब तक सरकार अपनी चुनावी विफलता के डर से वैश्विक आंकड़ों को ‘साजिश’ बताकर नकारती रहेगी। भारत में 80-90 करोड़ लोग सरकार द्वारा दिए जाने वाले राशन पर निर्भर हैं। राशन की दुकानों पर भूख शांत करने के लिए अनाज तो मिल सकता है, लेकिन ‘पोषण’ की उपलब्धता बिल्कुल भी नहीं है। जिन परिवारों में पिता या माँ शाम को लीची, आम, केले और सेब लेकर घर आता है, जिन्हे पर्याप्त मात्रा में घी और पनीर उपलब्ध है, जो लगभग हर दिन हरी सब्जियां और दही का सेवन कर रहे हैं उन्हे यह बात महसूस नहीं हो सकती कि G20 सफल का आयोजन और देश का विकास दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। किसी देश का कद उसकी अपनी धरती पर निर्मित होता है। उधार की तारीफ और प्रचार प्रसार मात्र से राष्ट्र महाशक्ति नहीं बना करते हैं। महाशक्ति बनने के लिए देश को समझना होगा, उसकी समस्याओं को नकारने से पहले उन्हे स्वीकारना होगा।
विकासशील देशों में बाल जीवन रक्षा के अध्ययन के लिए एक विश्लेषणात्मक रूपरेखा को मोस्ले चेन फ्रेमवर्क के नाम से जाना जाता है। यह फ्रेमवर्क शिशु और बाल मृत्यु दर के निर्धारकों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करता है- जैविक कारक; सामाजिक-आर्थिक कारक; पर्यावरणीय कारक।
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जैविक और पर्यावरणीय कारकों पर ध्यान देने से पहले सामाजिक आर्थिक पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी है। हर बार जलवायु परिवर्तन और ‘वैश्विक कारण’ जैसे तरीकों से जनमानस को उलझाने से अच्छा है कि अपने नागरिकों के हित के लिए कार्य किए जाएँ न कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए।
साहू, नायर व अन्य के अनुसार, किसी राष्ट्र का सामाजिक और आर्थिक विकास अक्सर मौजूदा शिशु और बाल मृत्यु दर से परिलक्षित होता है। इस लिहाज से तो विकास की यात्रा 2015 के बाद से थम चुकी है। जबकि इससे पहले एकीकृत बाल विकास योजना 1975, राष्ट्रीय पोषण नीति 1993, स्कूली बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन योजना 1995, इंदिरा गाँधी मातृत्व सहयोग योजना और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 जैसे ठोस व कानूनी प्रयासों के बल पर भारत ने कुपोषण और भुखमरी के खिलाफ अपनी लड़ाई को निर्णायक मोड़ प्रदान कर दिया था। ये सभी क्रांतिकारी कार्य गैर-भाजपा सरकारों, मुख्यतया, कॉंग्रेस के दौर में ही संपपन हुए। एक पक्ष यह भी है कि वर्तमान मोदी सरकार ‘घोषणा’ और ‘वादे’ करने के अपने मूल स्वभाव के अनुरूप, पोषण अभियान के तहत यह घोषणा कर चुकी है कि 2022 तक ‘कुपोषण मुक्त भारत’ बना दिया जाएगा।
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वैश्विक भुखमरी सूचकांक की रिपोर्ट पढ़कर तो यही लगता है कि या तो अभी 2022 नहीं गुजरा है! शायद 2022 का कुछ और अर्थ होता होगा, चाहे तो सरकार अपनी इस घोषणा का अर्थ भी बता दे।
सतत विकास लक्ष्य में अपनी प्रतिबद्धता के तहत भी भारत को 2030 तक ‘शून्य भूख’ का लक्ष्य हासिल करना है। अपनी प्रतिबद्धता के तहत भारत को 2030 तक ‘सभी के लिए सुरक्षित, पौष्टिक और पर्याप्त भोजन तक पहुंच सुनिश्चित करना’(SDG-2.1), बच्चों में बौनापन और दुबलापन दर लक्ष्य हासिल करना और हर किस्म के कुपोषण को खत्म करना(SDG-2.2) व रोकी जा सकने वाली बाल मृत्यु दर को कम करना है(SDG-2.3) है।
इसके लिए पहले से चल रहे कार्यक्रमों के नाम भर बदलने से काम नहीं चलेगा, स्वयं को धर्म प्रचारक और मसीहा साबित करने से काम नहीं चलेगा, विपक्षी दलों को कोसने और भारत के नींव निर्माताओं को नीचा दिखाने से भी काम नहीं चलेगा। जागरूक जनता परिणाम चाहती है उसे योजना के नाम से असर नहीं पड़ता उसे संबंधित काम व प्रभावशीलता से असर पड़ता है।
सरकार को यह समझना होगा कि कुपोषण और भुखमरी के मूल में गरीबी और बेरोजगारी है। मनरेगा का लगातार घटाया जा रहा बजट स्थिति को और भी गंभीर बनाता जा रहा है। गाँव में काम खत्म हो चुका है और शहरों में रहन सहन के तरीकों में बदलाव की दर सुस्त पड़ चुकी है। इन सबका असर भुखमरी व कुपोषण पर पड़ता है। एसएन द्विवेदी, एस बेगम व अन्य के अनुसार- सामान्य तौर पर, शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में शिशुओं की मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है, हालांकि, अनुसूचित जाति/जनजाति की आबादी के संबंध में, जोखिम और भी बढ़ जाता है।
जिस NFHS के आँकड़े को मानने से फिलहाल भारत सरकार इंकार कर रही है वह उसी के द्वारा बनाया गया है। NFHS के आँकड़े, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, द्वारा इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज के सहयोग से तैयार किए जाते हैं। यह प्रजनन क्षमता, परिवार नियोजन, शिशु और बाल रुग्णता और मृत्यु दर, मातृ और प्रजनन स्वास्थ्य, महिलाओं और बच्चों की पोषण स्थिति और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर राज्य और राष्ट्रीय स्तर की जानकारी प्रदान करता है।
यह बात सही है कि भुखमरी पूरी दुनिया में बढ़ी है लेकिन भारत के संबंध में वो कारक उतने प्रभावशाली नहीं हैं। क्योंकि भारत लगातार 2015 से इस सूचकांक में नीचे जा रहा है। भारत कोविड-19 से पहले से ही खस्ताहाल स्थिति में था। भारत रूस व यूक्रेन के युद्ध से वैसे प्रभावित नहीं है जैसे दुनिया के अन्य देश हैं। भारत में मुख्य समस्या है बेरोजगारी और संसाधनों और धन पर लगातार कुछ चुनिंदा लोगों का कब्जा! सरकार द्वारा, विपक्ष को बदनाम करके उसे भारत विरोधी साबित करने की कोशिशों ने सरकार पर संसदीय नियंत्रण को कमजोर किया है जिससे बेलगाम होती नीतियों पर चर्चा और बहस का स्थान लगातार कम होता जा रहा है।
भुखमरी के मामले में चीन का जबरदस्त प्रदर्शन उसे यूरोप की ओर ला रहा है तो दूसरी ओर भारत का निम्नस्तरीय प्रदर्शन उसे उप-सहारा क्षेत्र के अल्पविकसित देशों के साथ खड़ा होने पर बाध्य कर रहा है। क्या इससे भारत का डंका दुनिया में बजेगा? क्या इससे भारत की छवि अच्छी होगी? क्या इससे भारत को महाशक्ति बनने में मदद मिलेगी? मेरी नजर में इन सबका उत्तर ‘न’ ही है और इस नकारात्मक स्थिति में सुधार भी सिर्फ तभी संभव है जब नागरिक यह तय करें की वो अब सरकार की हाँ में हाँ नहीं मिलाएंगे बल्कि सरकार से सवाल पूछेंगे ताकि आगे आने वाली भारत की पीढ़ियों को भूखा न सोना पड़े।
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