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प्रतीकात्मक तस्वीर।

हिन्दुत्व के भंवर में फँसी भारत की भूख, शिक्षा और स्वतंत्रता!

बीजेपी के हरियाणा चुनाव जीतने के बाद फिर से ‘डबल इंजन’ की सरकार और उसकी उपलब्धियों और जनता द्वारा इसे स्वीकारे जाने को लेकर बातें शुरू हो गई हैं। कांग्रेस कैसे चुनाव जीतते जीतते हार गई और बीजेपी कैसे इसे हारते हुए जीत गई यह एक अलग बहस का विषय है। मुद्दा यह है कि क्या भाजपा शासित राज्यों में क़ानून व्यवस्था और सामाजिक संकेतकों की स्थिति वास्तव में बेहतर हुई है? क्या सचमुच मोदी सरकार ने कोई ऐसा ‘मॉडल’ दिया है जिसे अपनाकर बीजेपी शासित राज्य विकास की सीढ़ियाँ लगातार चढ़ते जा रहे हैं? क्या स्वयं मोदी सरकार 10 सालों तक सरकार चलाने के बावजूद बेहतर गवर्नेंस का मानक स्थापित कर पायी है? मेरे लिए इसका जवाब ‘ना’ है।

‘गवर्नेंस’ तो फिर भी काफ़ी जटिल मानक है, मोदी सरकार के आकलन के लिए शुरुआत ‘भूख’ से की जा सकती है। कोविड-19 को देखते हुए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना की शुरुआत मार्च 2020 में की गई। कोशिश यह थी कि महामारी के दौर में भारत के नागरिक भूखे न रहें। इसके तहत मुफ़्त राशन की व्यवस्था की गई और इससे लगभग 80 करोड़ भारतीयों को लाभ पहुँचा। लेकिन सवाल यह है कि क्या महामारी के पहले भारत में लोगों को राशन की ज़रूरत नहीं थी? निश्चित रूप से थी, इसीलिए 2013 में यूपीए सरकार खाद्य सुरक्षा अधिनियम लेकर आयी। अब लोगों को भोजन देना किसी चुनाव और भाषण का मोहताज नहीं रहा। सरकार क़ानूनी रूप से बाध्य हो गई कि उसे ज़रूरतमंदों को राशन देना ही है। 

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लेकिन 2013 में जब यह योजना शुरू की गई तब भारत का वैश्विक भुखमरी सूचकांक (जीएचआई) स्कोर मात्र 17.8 था। सूचकांक के मुताबिक़ जिस देश का स्कोर जितना कम होता है वह देश अपने नागरिकों की खाद्य सुरक्षा के मामले में उतना ही बेहतर होता है। जैस-जैसे यह स्कोर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे ही देश में भुखमरी की स्थिति भी बढ़ती जाती है। एक साल बाद 2014 में देश की सत्ता जब कांग्रेस से भाजपा के पास पहुंची और नेतृत्व नरेंद्र मोदी के पास जा रहा था तब यही GHI घटकर 17.1 पहुँच चुका था। यह भारत में ‘मध्यम स्तर’ की भुखमरी का दौर था। लेकिन 2014 के बाद से मोदी सरकार की लापरवाही और ख़राब नीतियों की वजह से भारत में भुखमरी की हालत लगातार बढ़ती रही। कोविड महामारी के भारत में पहुँचने से पहले मोदी सरकार भुखमरी सूचकांक के स्कोर को 30 अंकों के पार पहुँचा चुकी थी। अब भारत ‘गंभीर’ स्तर की भुखमरी से जूझ रहा था। इस गंभीर भुखमरी के दौर में ही महामारी ने भी अपना रूप दिखाना शुरू कर दिया। 2023 में भारत का स्कोर 29.4 था और यह देश भुखमरी के मामले में 121 देशों के मुक़ाबले 107वें स्थान पर था।

अब 2024 का भुखमरी सूचकांक भी सामने आ गया है। भारत का भुखमरी स्कोर नाममात्र का घटकर 27.3 हो गया है। अब यह कहा जा रहा है कि भारत ने सुधार किया है। जबकि वास्तविकता यह है कि भारत ने इस बार “ख़राब कम” किया है। ऐसे में मेरा सवाल यह है कि यदि 27.3 स्कोर अच्छा है तो फिर 2013 (17.8) और 2014 (17.9) के स्कोर को क्या कहा जाना चाहिए? यह भी सवाल है कि मोदी सरकार ने भारत के साथ ऐसा क्या किया कि 2014 तक पटरी पर रहने वाला GHI स्कोर 2015 (29.2) में पटरी से उतर गया? ‘मध्यम स्तर’ की भुखमरी अचानक से ‘गंभीर स्तर’ पर कैसे पहुँच गई? ऐसी कौन सी नीतियाँ बना दी गईं जिसमें भारत के वंचित वर्गों की अनदेखी किया जाना जरूरी हो गया? 

भुखमरी सूचकांक के आकलन के लिए मुख्यरूप से ‘कुपोषण’, ‘स्टंटिंग’, ‘वेस्टिंग’ और बाल मृत्यु दर को आधार बनाया जाता है। तमाम चुनावी हो हल्ले और डबल इंजन की गूंज के बीच क्या किसी को खबर है कि भारत में लगभग 36% बच्चे स्टंटिंग के शिकार हैं, लगभग 19% बच्चे वेस्टिंग के शिकार हैं। इसके साथ ही 13.7% बच्चे अल्पपोषण और लगभग 3% बच्चे हर साल बाल मृत्यु दर का हिस्सा बन जाते हैं। GHI का विश्लेषण यह बताता है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद से कुपोषण बढ़ा है, भूख की स्थिति ‘गंभीर’ बनी हुई है। ये आँकड़े खाद्य सुरक्षा, गरीबी, और लैंगिक असमानता जैसी प्रणालीगत समस्याओं को उजागर करते हैं।  
महिला सुरक्षा को लेकर भी स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है। एक तरफ़ महिला अपराध थमने का नाम नहीं ले रहे हैं तो दूसरी तरफ़ राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने महिला सुरक्षा को और भी ख़तरे की ओर धकेल दिया है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के नवीनतम आँकड़े यह बताते हैं कि साल दर साल भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं। सुबह के अख़बार बलात्कारों की खबरों से पटे पड़े हैं। उत्तर प्रदेश तथाकथित डबल इंजन सरकार का सर्वोत्तम नमूना है और यह प्रदेश महिला अपराधों के मामले में सबसे आगे है। उत्तर प्रदेश  गैंगरेप के मामले में भी देश में सबसे आगे है। डबल इंजन का दूसरा नमूना मध्य प्रदेश, गैंगरेप के मामले में यूपी के बाद दूसरे स्थान पर है। लेकिन कलकत्ता के आर जी कर मेडिकल कॉलेज में हुए भीषण बलात्कार से ‘आहत’ पीएम मोदी हरियाणा चुनाव में एक बलात्कारी का समर्थन लेने के लिए बाध्य नज़र आये। नरेंद्र मोदी की सेलेक्टिव चुप्पी और लाचारी को पूरे देश ने देखा है। डेरा-सच्चा सौदा चीफ और बलात्कार के आरोप में सजा काट रहा राम रहीम हाल में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 2 अक्टूबर को 20 दिन की पेरोल पर रिहा कर दिया गया।  

बलात्कार का आरोपी राम-रहीम 5 अक्टूबर को वोटिंग से पहले भी रिहा किया गया जिससे वो बीजेपी के लिए वोट मांग सके। जिस तरह राम-रहीम को बार बार पैरोल पर रिहा किया गया उसी तरह राम-रहीम ने बीजेपी और मोदी को निराश भी नहीं किया। इस बलात्कारी ने अपने समर्थकों से खुलकर बीजेपी को वोट देने को कहा। राम रहीम की यह 11 वीं पेरोल थी। इतना ही नहीं, पीएम मोदी जानते हैं कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ और रुपये की कीमत गिरने में लगातार होड़ मची हुई है। वो जानते हैं कि कोई भी चुनाव अब सिर्फ अपने चेहरे पर नहीं जीत सकते इसलिए उन्हें एक बलात्कारी से समर्थन लेने में कोई बुराई नजर नहीं आती। सिर्फ राजनैतिक फायदे और सत्ता में बने रहने के लिए बलात्कारियों को प्रश्रय देना ही वह कारण है कि महिला अपराध करने वाले दुष्टों के हौसले बढ़े हुए हैं।

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शिक्षा एक और रास्ता है जिससे किसी देश के नागरिक सशक्त होते हैं। मज़बूत शिक्षा प्रणाली की नींव अकादमिक संस्थान होते हैं। इन संस्थानों की नींव उनकी अकादमिक स्वतंत्रता पर आधारित होती है। नरेंद्र मोदी की सरकार इस अकादमिक स्वतंत्रता को नष्ट करने में लगी हुई है। 2024 के अकादमिक स्वतंत्रता सूचकांक में भारत का हाल चिंताजनक है।

स्कॉलर्स एट रिस्क (SAR) के अकादमिक स्वतंत्रता मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट द्वारा प्रकाशित वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि छात्रों और शोधकर्ताओं की अकादमिक स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले सबसे प्रमुख ख़तरों में राजनीतिक नियंत्रण लगाने और विश्वविद्यालयों पर हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे को लागू करने के उपाय शामिल हैं। SAR दुनिया भर के 665 विश्वविद्यालयों का एक नेटवर्क है, जिसमें कोलंबिया विश्वविद्यालय और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान शामिल हैं। रिपोर्ट में भारत पर व्यापक रूप से नज़र डाली गई है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत की शैक्षणिक स्वतंत्रता 2013 से 2023 तक 0.6 अंक से गिरकर 0.2 अंक हो गई है। रिपोर्ट की सबसे अहम बात जिस पर फोकस किया जाना ज़रूरी है वह यह है कि मोदी सरकार भारत के शैक्षणिक संस्थानों का हिन्दुत्वीकरण करने में लगी है। सरकार की इस नीति को सबसे बड़ा ख़तरा बताते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि "भारत में, छात्रों और विद्वानों की शैक्षणिक स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़े खतरों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा राजनीतिक नियंत्रण लागू करने और विश्वविद्यालयों पर हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडा थोपने और छात्र विरोध को सीमित करने वाली विश्वविद्यालय की नीतियों के प्रयास शामिल हैं।" 

इस सूचकांक में भारत को “पूरी तरह से प्रतिबंधित” श्रेणी में रखा गया है जिसका अर्थ है कि भारत में शैक्षणिक संस्थान औपनिवेशिक काल में उपलब्ध शैक्षणिक स्वतंत्रता से भी नीचे चली गई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में यह स्कोर 1940 के दशक से भी नीचे जा चुका है।

विश्वविद्यालयी शिक्षा किसी देश के भविष्य को निर्धारित करती है। कोई देश कैसे अपने नागरिकों के हित में कार्य करेगा, कैसे सरकारों को नागरिक केंद्रित नीतियाँ बनाने के लिए बाध्य किया जाएगा, कैसे सरकारों को अधिनायकवादी स्वरूप में बदलने से रोका जाएगा? यह सबकुछ विश्वविद्यालयी शिक्षा ही तय करती है। इन शिक्षण संस्थानों से निकलने वाले छात्र देश के लिए ‘कॉर्नर स्टोन’ का काम करते हैं न कि ऐसे राजनैतिक छात्र संगठन जो विश्वविद्यालयों में धार्मिक विचारधारा को थोपने के लिए प्रोफ़ेसरों को परेशान करें। जेएनयू की राजनैतिक सिद्धांत की प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन का मामला ही ले लीजिए जिन्हें इस रिपोर्ट में स्थान दिया गया है। चूँकि वो आरएसएस की आलोचक हैं इसलिए अखिल विद्यार्थी परिषद के छात्रों ने उन्हें ज़बरदस्ती परेशान किया, यूके की प्रोफ़ेसर नताशा कौल को आरएसएस की आलोचना करने के कारण भारत आने से ही प्रतिबंधित कर दिया गया। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि देश के शैक्षणिक संस्थानों में हिंदुत्व के एजेंडे को थोपने के लिए यहाँ की अकादमिक स्वतंत्रता को नष्ट करने की कोशिश की जा रही है।

एक सरकार जो चुनाव लड़ने और जीतने को ही लोकतंत्र समझने की भूल कर बैठी है उसे इस बात की चिंता नहीं कि देश गंभीर भुखमरी में आ खड़ा है, महिलाएँ लगातार असुरक्षित होती जा रही हैं, बलात्कारियों को राजनैतिक प्रश्रय दिया जा रहा है और भारत के शैक्षणिक संस्थानों के साथ आरएसएस के दिशानिर्देश पर खिलवाड़ किया जा रहा है। ऐसे में नागरिकों को ही तय करना होगा कि देश में बन रही तथाकथित डबल इंजन सरकारें इस देश के लिए कितनी उचित हैं। इस बात को लेकर सतर्क रहना होगा कि यदि इन सरकारों का बनना ऐसे ही जारी रहा तो इन राजनैतिक दलों के नेतृत्व को भारत के भविष्य के साथ खेलने का ‘लाइसेंस’ मिल जाएगा और यह अनुचित होगा।     

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वंदिता मिश्रा
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