हाथरस में 2 जुलाई को एक ‘धार्मिक आयोजन’ में हुई भगदड़ में 121 लोग मारे गए। मृतकों में ज्यादातर महिलायें है। यह धार्मिक आयोजन एक धर्म गुरु सूरजपाल जाटव उर्फ नारायण साकार हरी उर्फ भोले बाबा के तत्वावधान में किया गया था। प्रत्यक्षदर्शियों की मानें तो जब यह बाबा प्रवचन/प्रार्थना के बाद जाने लगा तो ‘भक्तों’ का हुजूम बाबा की कार की ओर भागा। हुजूम इसलिए भागा क्योंकि बाबा के पैर के नीचे की धूल न सही उनके कार के नीचे की धूल ही एकत्र कर ली जाए तो कल्याण हो जाए। बाबा के पैर की धूल को उसके भक्त पवित्र मानते हैं।
इस बाबा के ज्यादातर भक्तों में महिलायें हैं और ये भक्त मूलरूप से दलित, पिछड़े और अति पिछड़े समाज से संबंध रखते हैं। बाबा का पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बुंदेलखंड के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रभाव है। यह प्रभाव सालों से एक राजनैतिक ताकत समेटे हुए है। वही राजनैतिक ताकत जिसके बल पर इस बाबा को मायावती की सरकार में एक खास ‘प्रोटोकॉल’ मिला हुआ था, जिसमें लाल बत्ती, एस्कॉर्ट और पायलट सबकुछ था। बाबा का यह राजनैतिक गठजोड़ और पिछड़ी जातियों के बीच में मजबूत पकड़, इन सब का ही परिणाम है कि 121 लोग मारे गए और इस बाबा के खिलाफ न ही FIR हुई और न ही इनसे अभी तक कुछ भी पूछा गया। 2 जुलाई की इस वीभत्स घटना के बाद से बाबा का कुछ पता नहीं चल रहा था, बाबा घटना स्थल पर भी नहीं पहुँचा और न ही पुलिस बाबा तक पहुंची।
इस त्रासदी के बाद बाबा के ‘दर्शन’ बड़े ही नाटकीय तरीक़े से तब हुए जब अचानक ANI के माध्यम से बाबा का बयान सामने आया, जिसमें बाबा द्वारा दुख जताया गया था और ‘दोषियों’ को न छोड़ने की अपील की जा रही थी। बाबा सूरजपाल या भोले बाबा के बयान से यह निकल कर आया कि बाबा ने खुद ही, खुद को क्लीन चिट दे दी है और खुद ही अप्रत्यक्ष रूप से दोषियों को सजा दिलाने निकल पड़े हैं। जब भक्तों को बाबा की संवेदना की सबसे ज्यादा जरूरत थी तब वो ‘अंतर्ध्यान’ हो गए थे और जब वापस आए तो उनके पास उनके वकीलों की टीम मौजूद थी।
खुद को क्लीन चिट देने वाले बाबा को BSP काल के प्रोटोकॉल से शायद भ्रम पैदा हो गया है। उन्हे लगने लगा है कि यह देश राजनैतिक विचारधाराओं और उनके तमाम राजनैतिक हितों को साधने वाले दृष्टिकोण से चलेगा। उन्हे शायद पता नहीं कि यह देश संविधान से चलता है वही संविधान जिसे बनाने में बी आर अंबेडकर की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
अंबेडकर जो अंधविश्वासों की खिलाफत करते थे,
अंबेडकर जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और शिक्षा की बात करते थे। बौद्ध धर्म अपनाते समय
उन्होंने जो 22 कसमें खाई थीं, उनमें से चौथी कसम यह थी कि “मैं ईश्वर के अवतार में विश्वास नहीं
करता”। जबकि तमाम दलित और पिछड़ी जाति के लोग जो इस बाबा के भक्त हैं इस आदमी को
भगवान का अवतार मानते हैं। कई तो ब्रम्हांड में सिर्फ इसी व्यक्ति को भगवान मान
बैठे हैं। वे इस भयानक दुर्घटना के लिए बाबा को जिम्मेदार मानने को तैयार ही नहीं हैं।
यही हाल प्रशासन और सरकार का भी है। इस आयोजन की मुख्य जिम्मेदारी साकार हरी
अर्थात राजपाल जाटव या भोले बाबा नामक शख्स की ही होनी चाहिए थी इसके बाद ही किसी
अन्य का नाम आना चाहिए था, पर इसकी चर्चा तक नहीं हो रही है।
बाबा के एक 15 साल पुराने भक्त ने एक अखबार को बताया कि “मंच छोड़कर जाने से पहले, उन्होंने माइक पकड़ा और कहा कि अब मैं जा रहा हूँ, आज प्रलय आएगी”। अगर भक्त की बात सही है तो क्या प्रशासन को इस बात की जानकारी साकार हरी उर्फ सूरजपाल से नहीं लेनी चाहिए? हो सकता है इस प्रलय की कोई पहले से प्लानिंग रही हो, हो सकता है उनके कार्यकर्ताओं ने उनके कार के नीचे की धूल को पवित्र होने की घोषणा ही पहले कर दी हो, कुछ भी हो सकता है।
दूसरी बात जो ‘भक्तों’ को खुद से पूछनी चाहिए कि जब बाबा को पता था कि ‘आज प्रलय आएगी’ तो बाबा ने रुककर उसका सामना क्यों नहीं किया, भक्तों के साथ खड़े रहने का फैसला क्यों नहीं किया? क्या बाबा को प्रलय से घबराहट हो रही थी? मेरी नजर में सूरजपाल को जो कहना था उसने हादसे के बाद 3 दिन तक खामोश रहकर कर दिया। 3 दिन की खामोशी इस बात का प्रतीक है कि बाबा को भी प्रशासन और जनता से डर लगा होगा, तभी वो 3 दिनों तक भक्तों की सुध लेने नहीं पहुँचे, लेकिन इसके बाद तमाम जातिगत समीकरणों और राजनीतिक नफा-नुकसान ने बाबा को ‘सुरक्षित’ धरातल मुहैया करवा दिया। स्वयं पीड़ित भक्त भी अपने बाबा की गलती मानने को तैयार नही है।
“
सबको समझ लेना चाहिए कि अंधविश्वास अब किसी कुटिया में नहीं रहता उसके पास अब एक सुरक्षित किलानुमा मैन्शन है जहां कानून की किताबों को धूल चाटने के लिए रखा जाता है।
ऐसे बाबाओं की राजनैतिक ताकत से डरकर प्रशासन इनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करता, आम लोगों की मासूमियत का, शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी का फायदा उठाने दिया जाता है, 21वीं सदी में जब देश को वैज्ञानिकता के शिखर की ओर बढ़ाना चाहिए था तब उसे अंधविश्वास और बाबाओं के चंगुल में फँसने दिया जाता है। आसाराम, राम रहीम और रामपाल और ऐसे न जाने कितने बाबा जैसे धोखेबाजों और धूर्तों ने पहले ही देश की महिलाओं और कमजोर वर्ग का वर्षों तक शोषण किया है इसे कम से कम अब तो बंद किया जाना चाहिए। जिन दलितों, पिछड़ों और अतिपिछड़ों को भक्त बनाकर, उनमें अंधविश्वास भर भरकर साकार हरी राजनैतिक-धार्मिक पिलर बन गया है, उनकी आवाज उठाने के लिए, उन्हे धर्म के संकुचित बंधनों और शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए अंबेडकर जिंदगी भर लड़ते रहे।
वही अंबेडकर जिसे सामने रखकर मान्यवर कांशीराम ने राजनैतिक शक्ति खड़ी की, जिस शक्ति ने मायावती जैसी महिला नेता को जन्म दिया। एक कमजोर वर्ग से आई हुई महिला को मुख्यमंत्री पद मिला, प्रतिष्ठा मिली, उसी अंबेडकर की शिक्षाओं को दलितों और पिछड़ों तक नहीं पहुँचाया जा सका। ठीक से पहुंचाया गया होता तो वो साकार हरी उर्फ़ राजपाल जाटव उर्फ़ भोले बाबा जैसों के जाल में फँसने से बच जाते।
अम्बेडकर
ने अंधविश्वास और जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ़ आवाज़ उठाई और लोगों को धर्म और
ईश्वर के नाम पर शोषण का शिकार होने के बजाय ईश्वर और स्वयं की एकता पर विश्वास
करने की सलाह दी। उन्होंने लोगों से गौतम बुद्ध की शिक्षाओं का पालन करने का
आह्वान भी किया। और यहाँ सूरजपाल ही भगवान बन गया है। सोशल मीडिया में कुछ लोग
सूरजपाल के साथ मात्र इसलिए खड़े हो गए हैं क्योंकि वह एक निचली जाति से आता है।
जिस लड़ाई को गाँधी और अंबेडकर जैस लोग यहाँ तक लेकर आए हैं उसे किसी आडंबर की भेंट
नहीं चढ़ने देना चाहिए।
अंबेडकर तर्कवादी थे, उन्होंने तर्क के सामने पूरे धर्म को उल्टा खड़ा कर दिया था लेकिन जब आज ज्ञान आसानी से उपलब्ध है, किताबें आसानी से मिल सकती हैं तब भी तर्क को किनारे रखकर अंधविश्वास को विश्वास समझ लेना पूरे समाज की असफलता है। मुझे कोई ज्ञानी समझाए कि किसी आदमी औरत या अन्य के पैरों की धूल से कैसे इलाज हो सकता है, किसी की घरेलू, स्वास्थ्य, आर्थिक सामाजिक समस्याएं कैसे दूर की जा सकती हैं? यदि यही चलता रहा ना, तो संविधान बनाने और शोषण के खिलाफ लड़ाई की तमाम मेहनत मिट्टी में समा जाएगी।
तर्क
और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर अंबेडकर ने बड़ी ही अहम बात कही उन्होंने कहा कि “अगर
आपको धातु का कोई पीला चमकीला टुकड़ा मिल जाए, तो क्या आप खुशी से झूम उठते हैं कि
आपको सोने का कोई कीमती टुकड़ा मिल गया है? नहीं! आप खुद से बहस करते हैं। आप
सोचते हैं कि इस पीली धातु को अगर आग में परखा जाए तो इसकी असलियत का पता चलेगा। वह सोना है तो चमकेगा और अगर वह पीतल
का टुकड़ा है तो वह नहीं चमकेगा। धातु के टुकड़े के बारे में निर्णय लेते समय आप
इतना सोचते हैं। आप अपने मूल्यों के बारे में इतना सोच-समझकर निर्णय क्यों नहीं
लेते जो आपके जीवन को दिशा देते हैं और उसे बनाए रखते हैं? आपको अपने मूल्यों के बारे में
सोच-समझकर निर्णय लेना चाहिए। इसका मतलब है कि आपको अपने विश्वास को सत्य की अग्नि
में परखना चाहिए।”
गौरी लंकेश जिनकी हत्या 2017 में कट्टरपंथियों ने कर दी थी महिलाओं की हिन्दू धर्म में स्थिति को लेकर कहा करती थीं कि हिंदू धर्म कोई धर्म नहीं बल्कि "समाज में पदानुक्रम की व्यवस्था" है जिसमें "महिलाओं को दोयम दर्जे का प्राणी माना जाता है"। सच ही तो है, सूरजपाल के तथाकथित ‘सत्संग’ में ज्यादातर महिलायें ही मरीं, चरण धूल लेने के लिए महिलायें ही भागीं, ज्यादातर सत्संगों में, कथा वाचकों के पंडालों में महिलायें ही दिखाई पड़ती हैं। महिलाओं को मूर्ख कह देना आसान है लेकिन ये समाज ही है जिसने महिलाओं को यह स्वरूप प्रदान किया है।
निम्न से मध्यम वर्ग़ की महिलायें ही घर की आर्थिक
बदहाली का सामना करती हैं, बीमारी में खर्च कम लगे, घर का सामान सस्ते में मिले,
यदि मंत्र पढ़ने, पैरों की धूल लेने, आरती दिखाने, व्रत रखने आदि से समृद्धि आ सकती
है तो शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसी जटिल चीजें के बारे में क्यों सोचा जाए।
अंधविश्वास के पौधे को पोषण प्रदान करने का काम अशिक्षा और गरीबी ही करते हैं।
अंधविश्वास का पेड़ तब सबसे ज्यादा लहलहाता है जब महंगाई और बेरोजगारी का नियमित
छिड़काव किया जाए। अंधविश्वास का यह वृक्ष तब लगभग स्थायी बन जाता है जब धर्म और
राजनीति दोनो मिलकर मित्रभाव से इस वृक्ष की परिक्रमा साथ साथ करते हैं।
हाथरस में जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन उसके बाद वहाँ जो हो रहा है वह इस समाज की त्रासदी है। SDM को लगता है कि हादसा फिसलन की वजह से हुआ, पुलिस को सूरजपाल, जिसे मुख्य आरोपी बनाना चाहिए था, उसको FIR में शामिल करना जरूरी नहीं लगा। मुख्यमंत्री जो राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA) का चेयरमैन होता है उसको जरूरी नहीं लगा कि DM और SP को तत्काल सस्पेन्ड करे, जिन्हे इतना भी समझ नहीं आया कि 80 हजार की जगह 2.5 लाख की भीड़ पहुँच चुकी है। यदि प्रशासन का उच्च स्तर सतर्क रहता तो यह दुर्घटना न घटती।
मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाला SDMA साफ तौर पर निर्देश देता है कि ‘अपेक्षित भीड़’ की संख्या पर ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि किसी जगह महिलायें और बच्चे ज्यादा हैं तो इसका संज्ञान लिया जाना चाहिए, जहां कार्यक्रम है वह स्थान कैसा है, सुरक्षित है?, खुला है? आदि। यूपी के पूर्व DGP का सवाल है कि प्रशासन को कैसे पता नहीं चला कि अनुमानित संख्या से 3 गुना अधिक संख्या पहुँचने वाली है जबकि आयोजन स्थल मुख्य हाइवे से मात्र 500 मीटर की दूरी पर था, इतनी बड़ी संख्या के आने पर मार्ग में जाम लगता और प्रशासन को यह पता चल जाना चाहिए था।
इसके अतिरिक्त प्रशासन को देखना चाहिए कि बिजली और अग्नि सुरक्षा उपायों पर ध्यान दिया गया था या नहीं?, सीसीटीवी निगरानी और बड़ी भीड़ के लिए मिनी UAVs का उपयोग किया गया था या नहीं? भीड़ में संदेश पहुँचने के लिए सार्वजनिक संबोधन प्रणाली उपयोग में लाई गई या नहीं? चिकित्सा और आपातकालीन देखभाल की व्यवस्था की गई या नहीं? और सबसे अहम कार्यक्रम प्रबंधकों की भूमिका कैसी है?
मेरा सवाल यह है कि जब साकार हरि पर FIR दर्ज नहीं करने का फैसला लिया गया तब क्या इन दिशानिर्देशों के अनुपालन की समीक्षा की गई या नहीं? इन निर्देशों की समीक्षा आवश्यक है। मुझे लगता है कि स्वयं मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करके साकार हरि जैसे लोगों के खिलाफ और प्रशासन में बैठे उच्च अधिकारियों की जिम्मेदारी तय हो। साकार हरि को यह नहीं लगना चाहिए कि वो कानून और संविधान से ऊपर है क्योंकि कोविड के दौरान भी वो कानून की अवहेलना कर चुका है। जातीय भाषा कुछ भी कहे, राजनैतिक समीकरण चाहे जितना बिगड़ें लेकिन कानून के शासन से भरोसा नहीं उठना चाहिए।
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