2024 का साल, लगातार चलने वाला वह तीसरा साल है, जब पूरा भारत भीषण हीटवेव का सामना कर रहा है। 2022 से शुरू हुई ये हीटवेव लगातार बढ़ ही रही है। मोटे तौर पर भारत में हीटवेव का मतलब मैदानी इलाकों में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक और पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान का होना है।
यह भी समझ लें कि अब यह बात भी किसी अबूझ पहेली की तरह नहीं रही कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में लगातार गर्मी क्यों बढती जा रही है और हर आने वाला साल पिछले सालों के गर्मी सम्बन्धी रिकॉर्ड को क्यों तोड़ता जा रहा है?
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देखा जाए तो इतनी
अधिक गर्मी में ताप की बढ़ोत्तरी का कारण है पृथ्वी का लगातार गर्म होना। और पृथ्वी
का क्या? पृथ्वी वो, जिसका अस्तित्व ही ग्रीन हाउस गैसों के कारण संभव हुआ। यहाँ,
इस ग्रह पर तो जीवन की संभावना उसका विकास ही ग्रीन हाउस गैसों के कारण हो सका। वही
ग्रीनहाउस गैसें अब आवश्यकता से ज्यादा हो गई हैं और पृथ्वी को इतना अधिक गर्म कर
दे रही हैं कि इस ग्रह में जीवन को संकट पैदा होता जा रहा है। जो जीवन के लिए
जरूरी थीं वही अब जीवन के लिए खतरा बन चुकी हैं।
आज की बात को थोड़ी देर के लिए छोड़ दिया जाए तो, पृथ्वी का तापमान औद्योगिक क्रांति से पहले सामान्य तरीके से स्वतः नियंत्रित हो रहा था लेकिन 1850 के बाद से स्थितियां बदलने लगीं। धीरे धीरे पृथ्वी का तापमान औद्योगिक धुंए और औद्योगिक उत्पादों की वजह से बढ़ने लगा और अब तो विश्व के सभी वैज्ञानिकों में इस बात को लेकर आम सहमति बन चुकी है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान के पीछे मानवीय गतिविधियों का हाथ है। औद्योगीकरण, रहन-सहन में बदलाव और ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए बेहिसाब जीवाश्म ईंधन(फॉसिल फ्यूल) के इस्तेमाल की वजह से तापमान को ट्रैप करने वाली गैसों-कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि- का स्तर भी बढ़ता ही जा रहा है।
सन 1880 से
पृथ्वी का तापमान आधिकारिक रूप से रिकॉर्ड किया जा रहा है। नासा के गोडार्ड
इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज (GISS) के अनुसार, पृथ्वी
का औसत वैश्विक तापमान 1880 के बाद से कम
से कम 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। अधिकांश तापमान वृद्धि 1975 के
बाद से हुई है, जो लगभग 0.15 से 0.20
डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि बीते मात्र 50
सालों में ही इंसानों ने पृथ्वी को जीवन जीने लायक ग्रह रहने ही नहीं दिया। ऐसा भी
नहीं है कि यह सब अचानक हो गया और किसी को कानो कान खबर भी नहीं हुई है। सबको
सबकुछ पता चल रहा था।
1968 में ‘क्लब ऑफ़ रोम’ की स्थापना और 1972 में इसकी रिपोर्ट ‘लिमिट टू ग्रोथ’ ने वैश्विक समुदाय को इस महत्वपूर्ण समस्या के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। रिपोर्ट के 3 महीने बाद ही संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में स्टॉकहोम कन्वेंशन का आयोजन किया गया, इसके बाद 1992 में आयोजित रियो सम्मेलन और UNFCCC की स्थापना ने सब कुछ बदल दिया। 2015 में पेर्रिस में पृथ्वी को बचाने के लिए संकल्प लिया गया और यह तय किया गया कि किसी भी हालत में इस ग्रह का तापमान साल 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जायेगा।
लेकिन जिस गति से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है और लगातार कई वर्षों से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार की जा चुकी है उससे लगता नहीं कि किसी ने इस समस्या को गंभीरता से लिया, अब लगता है कि 2 डिग्री सेल्सियस का तापमान बढ़ने के लिए इस सदी के अंत तक का इंतज़ार नही करना पड़ेगा। इतना तो तय है कि यदि यह घटना घट गयी तो अरबों जानें जाएगी यह भी एक तथ्य है। देखा जाए तो मौत का यह सिलसिला अब शुरू भी हो चुका है।
PLoS मेडिसिन में छपे आंकड़ों के अनुसार, 1990 से 2019 तक पूरी दुनिया में हीटवेव से, प्रति वर्ष 153,078 अतिरिक्त मौतें हुई हैं। विश्व मौसम संगठन के अनुसार 2003, 2010 और 2022 में क्रमशः 55,000 से 72,000 लोगों की मृत्यु गर्मी के कारण हुई। सऊदी अरब में अकेले इस सप्ताह में भीषण गर्मी की वजह से 1000 से अधिक हज यात्रियों की मौत हो चुकी है। भारत में मार्च से अब तक, हीटवेव की वजह से लगभग 150 लोगों की मौत हो चुकी है।
PLoS के अनुसार 1990 से 2019 के दौरान सिर्फ भारत में ही 30 हजार मौतें प्रतिवर्ष हीट वेव से हुई हैं। यहाँ का सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य उत्तर प्रदेश है।
पूरी दुनिया
हीटवेव से प्रभावित है, चाहे बात भारत व मिडिल-ईस्ट की हो या
मैक्सिको-अमेरिका-कनाडा की, रिकॉर्ड हर जगह टूट रहे हैं। मैक्सिको से लेकर कनाडा
तक चल रही भीषण हीटवेव के विषय में रॉयल नीदरलैंड मौसम विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट
में वैज्ञानिकों ने कहा कि इस तरह की हीटवेव की संभावना वर्ष 2000 की
तुलना में चार गुना अधिक हो चुकी है, और यह ग्रीन
हाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हीटवेव सहित कई चरम मौसम की घटनाएँ अधिक और लगातार तीव्र होती जा रही हैं। इसी संस्थान के एक शोधकर्ता इज़िडीन पिंटो ने कहा, “हमारे अध्ययन के परिणामों को एक और चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए कि हमारी जलवायु खतरनाक स्तर तक गर्म हो रही है”।
सवाल यह है कि
क्या सरकारें इसे चेतावनी के रूप में ले रही हैं? क्या
जलवायु परिवर्तन उनके लिए कोई मुद्दा भी है? साथ
ही यह भी क्या जनता जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को लेकर गंभीर है? जिस देश में
बेतहाशा गरीबी और बेरोजगारी हो वहां गरीब और वंचित को हर रोज ही मरना पड़ता है। ऐसे
में यह लग सकता है कि लोग पहले रोजी-रोटी की बात करेंगे, पर्यावरण की नहीं। लेकिन
यह एक अधूरा सच है। यह सही है कि लोग अन्य मुद्दों को लेकर बड़ी परेशानी में हैं
लेकिन हर रोज अपने सामने अपने बच्चों और प्रियजनों को गर्मी में झुलसते देखना, यह
भी बेहद कष्टकारी है।
इस देश में हर कोई ऐसा नहीं है जिसके पास एयर कॉन्डीशनर उपलब्ध हों, लोगों को बिजली की अनवरत आपूर्ति हो रही हो, लोग यह अच्छे से समझ रहे हैं कि साल दर साल गर्मी लगातार क्यों बढती ही जा रही है। येल प्रोग्राम ऑन क्लाइमेट चेंज कम्युनिकेशन की एक रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में लगभग 85% लोगों ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों का व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है। यह भी एक तथ्य है कि इसका अनुभव करने वाले लोगों की संख्या हर साल बढ़ ही रही है। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी घटनाओं की वजह से 14% लोग अपना घर छोड़कर अलग जगह आसरा बना चुके हैं और लगभग 20% अन्य लोग ऐसा करने के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र
की एजेंसी UNDP ने हाल ही में किये अपने एक सर्वे में पाया कि 77%
भारतीय अपनी सरकार से यह चाहते हैं कि वो जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कठोर और
आवश्यक कदम उठाये। 79% भारतीय तो यहाँ तक कह रहे हैं कि भले
ही देशों के बीच व्यापार या अन्य रणनीतिक वजहों से आपसी मतभेद हों लेकिन फिर भी
उन्हें जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों के लिए साथ मिलकर काम करना
चाहिए।
वैश्विक स्तर पर देखें तो हर पांच में से 4 लोग ग्लोबल वार्मिंग को लेकर अपनी सरकारों से कठोर कदम उठाने की मांग कर रहे हैं। 85% लोग ब्राज़ील में, 88% लोग ईरान में और 93% लोग इटली में अपनी सरकारों से यही आशा कर रहे हैं। स्पष्ट है कि सुरक्षा, और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे जिन्हें ज्यादातर राजनीतिक हितों के लिए उठाया जाता है वो अब गौण हो रहे हैं क्योंकि अब सीधा संकट इस ग्रह और यहाँ रहने वाले इंसानों के जीवन पर आन पड़ा है।
अब सरकार चाहे चरम दक्षिणपंथी या चरम वामपंथी हो, सरकार चाहे पूरी तरह पूंजीवादी हो या फिर समाजवादी या इस्लामिक जलवायु परिवर्तन और उसके उपाय खोजना सबका मुख्य कर्तव्य होगा क्योंकि सबकी जनता हर जगह गर्मी का ही सामना कर रही है और उनके लिए हर दिन कठिन होता जा रहा है।
मुझे लगता है कि लोग वैश्विक स्तर पर सजग तो हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे, पर भारत में लोगों की सजगता बढ़ी है ये आंकड़े बता रहे हैं। भारत सरकार 2070 तक कार्बन न्यूट्रल भारत बनाने का वैश्विक संकल्प ले चुकी है। PM मोदी ‘लाइफस्टाइल फॉर एनवायरनमेंट’(LiFE) की बात कर रहे हैं लेकिन उनके मित्र गौतम अडानी ‘हसदेव अरण्य’ बर्बाद कर रहे हैं, 1973 का बंगलुरु 68.7% हरियाली समेटे था जो आज घटकर लगभग 2.5% रह गयी है, सरकार की नाक के नीचे आरावली में लगातार कब्ज़ा किया जा रहा है, लगातार कटते पेड़-पौधों को रोकने में सरकार फिलहाल नाकाम है और इस नाकामी के साथ 2070 का लक्ष्य पाना असंभव है।
कहीं सड़कों को बनाने के नाम पर पेड़ काट दिए जा रहे हैं, कहीं पर्यटन गलियारे के नाम पर बड़े स्तर पर वनों की कटाई हो रही है, तो कहीं मेट्रो के नाम पर ढेर सारे वृक्षों को काटा जा रहा है। इस गति से घटती हरियाली अंततः और अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड को निर्मुक्त करेगी, जिससे धरती और अधिक गर्म होगी, जिससे हीट वेव बढेंगी, जिसका सीधा मतलब करोड़ों देशवासी मारे जायेंगे। इनमें से ज्यादातर वो लोग होंगे जिनके पास सुख सुविधाओं का अभाव है, मतलब देश का आम नागरिक जो सुख सुविधाओं से रहित है वह मारा जाएगा।
सरकार अक्सर यह दावा करती है कि विकास के लिए पेड़-पौधों का काटना बहुत जरुरी है और साथ ही यह भी दावा करती है कि जितने पेड़ काटे जायेंगे उतने ही दूसरी जगह लगा भी दिए जायेंगे। कोई भी साधारण वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति मुझे यह बता सकेगा कि जो पेड़ हजारों-लाखों टन कार्बन डाई ऑक्साइड सोख रहे थे, धरती को ठंडा रखने में मदद कर रहे थे उनकी बराबरी 20-25 पत्तियों वाले पौधे कर पाएंगे? और जब तक ये पौधे बड़े होंगे तब तक लाखों करोड़ों टन निर्मुक्त होती ग्रीन हाउस गैसों का निस्तारण कैसे किया जायेगा?
मुझे नहीं लगता सरकार के पास कोई जवाब है। मैं तो कहती हूँ कि धरती को बचाने के लिए फ्यूचर प्लानिंग करने में क्या परेशानी है? ऐसी जगह जहाँ जंगल हैं या जहाँ भारी मात्रा में पेड़-पौधे हैं और वहां विकास किया जाना बहुत ज्यादा जरुरी है तो वहां इन्हें काटने के पहले किसी अन्य स्थान पर 5-10 साल पहले ही उतना ही बड़ा या उससे भी बड़ा कार्बन सिंक बना देना चाहिए। जब यह सिंक तैयार हो जाए तब उस स्थान के पौधे काटे जाएँ।
यदि सरकार का वह तर्क जो विकास के लिए दिया जाता रहा है वह सही है तो क्या अपने ग्रह और लोगों को बचाने के लिए और विकास कार्यों को भी न बाधित करने के लिए सरकार की तरफ से इतनी सी प्लानिंग नहीं की जा सकती? जब दशकों पहले सांप्रदायिक साजिश रची जा सकती है, 2047 में विकसित भारत की तैयारी की जा सकती है, वर्षों पहले चुनावी एजेंडे तैयार किये जा सकते हैं, किस जगह किस धार्मिक स्थल के नाम पर कितने सालों तक तमाशा चलाया जाना तय किया जा सकता है, किसको आगे चलकर CM या PM प्रोजेक्ट किया जाना है, यह सारी चालें चली जा सकती हैं, तो पहले से ही जंगल और पेड़ पौधे खड़े करके कार्बन सिंक क्यों नहीं तैयार किया जा सकता है?
यह अलग बात है
कि किस उद्योगपति को किस सरकार में क्या फायदा होगा, यह पहले से तय न हो तो वर्षों
पहले ही सरकारें ऐसी प्लानिंग कर सकती हैं, जब
यह तय हो कि जो भी योग्य उद्योगपति नियमानुसार उपलब्ध होगा उसे विकास करवाने का
अवसर मिल जायेगा तो ऐसी प्लानिंग की जा सकती है।
विमर्श से और खबरें
अंत में मेरा एक साधारण सा सवाल है, क्या तथाकथित ‘विजन’ सिर्फ देश को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने भर एक लिए है या इसे देश, ग्रह और इसके लोगों को बचाने के लिए भी इस्तेमाल किया जायेगा?
(लेखिका वंदिता मिश्रा दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं)
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