एक धर्म या उसके धर्माधिकारी किसी अन्य धर्म की जितनी आलोचना करते हैं और उसके ख़त्म होने का जितना आह्वान करते हैं वो ना चाहते हुए भी खुद की असमर्थता और भय का उसी अनुपात में प्रदर्शन करते हैं। वास्तव में किसी अन्य को भयाक्रांत करना स्वयं के भय का पैसिव (निष्क्रिय) प्रदर्शन है। ऐसे ही एक प्रदर्शन का आयोजन हरिद्वार में ‘धर्म संसद’ के नाम से किया गया।
धर्म संसद - मोदी सरकार हमेशा नहीं रहेगी!
- विमर्श
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- 31 Jan, 2021

हरिद्वार में 'धर्म संसद' में नफरत वाले भाषण क्यों दिये गए? क्या 'धर्म संसद' की भाषा भारत में बड़े बदलाव की कहानी कह रही है? आख़िर देश में क्या चल रहा है?
जहाँ तक जानकारी है, संसद का अर्थ होता है जहाँ बातचीत हो, विमर्श हो। इस लिहाज़ से यह किसी क़िस्म की संसद तो नहीं थी। क्योंकि विमर्श तो अपने स्वभाव में एक सकारात्मक अभिव्यक्ति है जबकि हरिद्वार में जो हुआ वो ‘हेटस्पीच’ (घृणा भाषण) का एक सम्मेलन था। मेरी नज़र में यह अक्षम और असमर्थ लोगों का ऐसा समूह था जो ‘भाषण-विकलांगता’ से पीड़ित था। इस नवीन और ग़ैर-अनुसूचित विकलांगता में पहला उदाहरण है नए-नए महामंडलेश्वर बने यति नरसिंहानंद का। यति सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणियाँ नहीं करते हैं बल्कि वो समूची महिलाओं के ख़िलाफ़ भी अभद्र टिप्पणियाँ करते रहे हैं, जिसकी वजह से उनका वास्तविक तीर्थस्थल उत्तर प्रदेश की कोई जेल ही होना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य से वो आज बहुतों के ‘गुरुदेव’ और हिन्दुत्व के नेता उभर बन बैठे हैं और कोई कसर नहीं छोड़ रहे जिससे देश की एकता छिन्न-भिन्न हो जाये।