किसी लोकतांत्रिक देश की सफलता इस बात पर टिकी होती है कि वहाँ ‘क़ानून के शासन’ पर भरोसा करने वाले लोगों की संख्या बहुमत में है या नहीं। देश में जितने अधिक लोग इसे मानने से इनकार करेंगे देश उतना अधिक अस्थिर होता चला जाएगा। इसीलिए अरस्तू जैसे शुरुआती दार्शनिकों ने भी ‘क़ानून के शासन’ पर बहुत जोर दिया है और कहा कि- ‘संविधान और कानूनों के माध्यम से ही न्याय और व्यवस्था बनाए रखी जा सकती है’। उनका मानना था कि ‘कानून, नैतिकता का पर्याय होना चाहिए’।
किसी के घरेलू आदर्श और व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए देश को अराजकता का अड्डा नहीं बनाया जा सकता। ‘क़ानून का शासन’ देश की मजबूत रीढ़ है और सिर्फ़ इसी के आधार पर कोई देश हमेशा मजबूती से खड़ा रह सकता है। लेकिन लगता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS) के मुखिया, मोहन भागवत इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हैं। बीते दिनों वे चित्रकूट में थे। भागवत वहाँ हनुमान मंदिर परिसर में आयोजित युग तुलसी पंडित रामकिंकर उपाध्याय के जन्मशताब्दी कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए थे। वहाँ पहुंचकर उन्होंने कहा कि “..सनातन और संतों के काम में आने वाली बाधाओं को संघ के स्वयंसेवक डंडा लेकर दूर करेंगे।”
मेरे लिए यह बताना मुश्किल है कि उनसे सुरक्षा के संबंध में किसने मदद मांगी? किसने उनके हाथ में सनातन की सुरक्षा की बागडोर सौंप दी? और वो किस क्षमता से क़ानून से चलने वाले एक संवैधानिक लोकतंत्र भारत में लोगों को सुरक्षा देने का वादा बांट रहे थे? लेकिन वो जो भी कह रहे थे उससे लगता है कि संघ और उसके प्रमुख दोनो ही अभी तक अपनी चेतना में यह नहीं बैठा पाए हैं कि भारत अराजकता और ग़ुलामी से 75 साल दूर की यात्रा तय कर चुका है और अब यहाँ जो कुछ भी मान्य होगा वह सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ानून सम्मत ही होना चाहिए।
मुझे तो लगता है कि 100 साल पहले बना यह संगठन अभी भी अंग्रेजी शासन के मोड में नजर आ रहा है। शायद इसे आभास नहीं कि देश आज़ाद हो चुका है, यहाँ संविधान बन चुका है, ‘क़ानून का शासन’ स्थापित किया जा चुका है और नागरिकों की रक्षा के लिए ‘राज्य’ संवैधानिक रूप से प्रतिबद्ध है, वह किसी संगठन की ‘लाठी’ या डंडे का मोहताज नहीं है।
जब वक्त था कि अंग्रेजों से लड़कर भारत को ग़ुलामी से स्वतंत्र कराया जाये, जब वक्त था कि इस देश के हर नागरिक को साथ लेकर चला जाए जिससे आज़ादी की लड़ाई कमजोर न पड़े, तब यह संगठन इस देश के मुसलमानों से प्रतिस्पर्द्धा कर रहा था।
तब इस तरह का माहौल बनाया गया जिससे लोग इकट्ठे होकर एकजुट होकर आज़ादी की लड़ाई में कम योगदान दे सकें, किसी को लगे कि ‘हिंदू खतरे में है’ तो किसी को लगे कि ‘इस्लाम खतरे में है’। जो संगठन गांधी की अहिंसक लाठी के पीछे तब नहीं खड़ा हो सका, वह संगठन और उसका मुखिया आज, जबकि भारत में पुलिस और सेना मिलाकर इतनी सशक्त है कि किसी भी देश को टक्कर दे सकती है तब लाठी के बल पर इस देश के सनातन और संतों की रक्षा करने निकलना चाहता है।
इस देश में जब मध्यकाल था, जब भीषण हिंसा और क्रूर शासकों का शासन था तब भी भारत के संत सुरक्षित थे, कबीर, नानक, नामदेव, तुलसी और शंकरदेव जैसे अनगिनत संतों को कभी असुरक्षा नहीं महसूस हुई? क्रूर शासकों के दौर में एक भी संत को उसकी वाणी रोकनी नहीं पड़ी, तीर्थ यात्रा को रद्द नहीं करना पड़ा। कुम्भनदास जैसे संत तो तथाकथित क्रूर और हिंसक मुगल शासकों को ताने मारने से भी नहीं चूक रहे थे।
‘सन्तन को कहा सीकरी सों काम, आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरि नाम’।
कहने का अर्थ यह है कि यह देश संतों का देश रहा है और जो वास्तविकता में संतत्व धारण करता है, जिसे किसी राजनीति या धर्म से व्यापार नहीं करना है उसे किसी से खतरा नहीं है। जिसे खतरा है भी, जो धर्म और राजनीति को मिलाकर उसके कॉकटेल से देश को दूषित कर भी रहा है उसे भी अगर सुरक्षा चाहिए तो उसके लिए क़ानून का शासन मदद करेगा कोई लाठी या डंडा भांजने वाला स्वघोषित धर्म रक्षक समूह नहीं!
फ्रांस के महान समाजशास्त्री ईमाइल दुर्ख़ीम यह मानते थे कि कानून, समाज में नैतिकता और मूल्य बनाए रखने का एक साधन है। उनका मानना था कि कानून और व्यवस्था का उद्देश्य केवल अपराधों को रोकना नहीं है, बल्कि समाज को एकजुट रखना भी है।
मतलब साफ़ है कि यदि समाज को एकजुट रखना है और देश को विभाजनकारी शक्तियों से बचाना है तो बागडोर क़ानून के हाथ में होनी चाहिए किसी संगठन की लाठी के भरोसे देश की एकता को नहीं छोड़ा जा सकता है। ये लाठी वाले ही तो हैं जो पहलू खान पर चुप रहते हैं, चूड़ी बेचने वालों पर हमला हो जाए तो चुप रहते हैं, मांस खाने पर किसी को मार दिया जाये तो चुप रह जाते हैं, मस्जिदों के झंडे उखाड़ने पर चुप रह जाते हैं, ‘बटेंगे तो कटेंगे’ जैसे देश को खंड-खंड करने वाले नारों के साथ खड़े रहते हैं।
ऐसे लोगों के भरोसे देश नहीं छोड़ा जा सकता है और न ही उन्हें सनातन की मनमानी परिभाषा गढ़ने की स्वतंत्रता दी जा सकती है।पिछले 75 सालों का इतिहास बताता है कि ये लाठी वाले, कोई सांस्कृतिक संगठन नहीं चला रहे थे बल्कि संस्कृति की आड़ में शक्ति अर्जन और सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश में लगे थे जिससे इस विविधता से भरे रंग-बिरंगे देश को एक ही रंग में पोतने के लिए जो चाहे वो मनमानी कर सकें।
कांग्रेस को ख़त्म करने की कोशिश करना, देश की विविध आबादी को नज़रंदाज़ कर उसे 85 बनाम 15 करना, यह सब क्या है? क्या यह किसी देश को, किसी भी हालत में एक रखने और एकजुट करने वाले लक्षण हैं? यदि इस देश को सुरक्षित रखना है, तो सभी धर्मों के नागरिकों की रक्षा करनी पड़ेगी। किसी समूह की लाठी के भरोसे नहीं बल्कि देश की क़ानून और व्यवस्था की भूमिका पर जोर देना पड़ेगा। इसीलिए जॉन लॉक कहते थे कि, “कानून और व्यवस्था को स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए जिससे नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहें”।
मोहन भागवत ने चित्रकूट में कहा कि “विश्व में चल रहे युद्ध में धर्म की ही जीत होगी। धर्म और सत्य की ताकत के आगे अधर्म को हार का सामना करना पड़ेगा। हर हिंदू को आगे बढ़ने के लिए रामायण और महाभारत प्रेरणा है। हर हिंदू देश निर्माण में अपना धर्म निभाए।” जरा सोचकर देखिए कि लाखों लोगों के इस संगठन के मुखिया का दृष्टिकोण कितना उथला है।
भागवत के लिए ‘धर्म’ का अर्थ है सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदू धर्म है। उनके लिए भारतीयता से पहले किसी व्यक्ति का हिंदू धर्म में दिखना ज़्यादा आवश्यक लगता है। इसीलिए तो वो कहते हैं कि “तमाम ताकतें अयोध्या में राम मंदिर बनने में अड़ंगा लगा रही थीं, लेकिन भगवान की ताकत के आगे किसी की नहीं चली और साढ़े पांच सौ साल बाद आखिरकार सत्य और धर्म की जीत हुई।” एक देश जहाँ हर धर्म के लोग पिछले लगभग 2000 सालों से रह रहे हैं वहाँ सभी की प्रेरणा को महाभारत और रामायण तक बाँध देना राष्ट्रीय एकता नहीं धार्मिक एकता का दृष्टिकोण है।
उसमें भी मेरे जैसे तमाम हिंदू उनकी इस एकता की थ्योरी को पूरी तरह से नकार चुके हैं।क्योंकि उनकी इस थ्योरी में न ही अन्य धर्मों को स्थान प्राप्त है, न ही निचली जातियों और महिलाओं को।इसलिए अगर इस देश में कुछ भी ऐसा है जिससे शक्ति का एहसास होना चाहिये, प्रेरणा मिलनी चाहिए तो वह है भारत का संविधान। वही सभी को समान नज़रों से देखता है, राष्ट्रीय एकता को एक दस्तावेज के माध्यम से सुनिश्चित करता है, स्वतंत्रता को लिखित में प्रदान करता है उसके लिए किसी लाठी डंडे की आवश्यकता नहीं है।
राम और तुलसी की नगरी में खड़े होकर भागवत जिस धर्म की व्याख्या करने में लगे थे उससे स्वयं तुलसी ही कभी सहमत नहीं हो सकते। तुलसी तो प्रेम, राम और धर्म को ही एक मानते हैं और लिखते हैं कि- "रामहि केवल प्रेम पिआरा। जानि लेउ जो जान निहारा।" तुलसी को किसी संगठन को नहीं खड़ा करना था, तुलसी के लिए मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं था पर यहाँ तो कहानी ही अलग है- 85 बनाम 15 करके देश को बांट देने का ही लक्ष्य बनाया जा चुका है। यह तो तय है कि इनका लक्ष्य देश की एकता नहीं है। लक्ष्य कुछ और ही है। मानवता तो छू कर भी नहीं गई वरना पीट-पीट कर मार दिए गए सैकड़ों हजारों लोगों पर दया दिखाने से पहले उसका धर्म जानने की कोशिश नहीं करते।
यह भी तय है कि डंडा और लाठी, राज्य के अतिरिक्त अगर किसी अन्य द्वारा इस्तेमाल की जाएगी तो देश में अराजकता पैदा हो जाएगी। इसीलिए थॉमस हॉब्स जैसे विचारक कहते हैं कि, ‘अराजकता को समाप्त करने के लिए एक सशक्त शासन और कानून व्यवस्था आवश्यक है।’ हॉब्स के अनुसार, लोग अपने अधिकारों का एक हिस्सा राज्य को सौंपते हैं जिससे सुरक्षा और व्यवस्था बनी रहे। किसी भी हालत में यह हिस्सा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की लाठी के हाथ नहीं दिया जा सकता है। यह विनाशकारी साबित होगा।
भागवत ने यह भी कहा कि “नई उम्मीद और विकसित राष्ट्र बनाने के लिए एकजुट हो जाएं। किसी से डरने या अन्याय सहने की जरूरत नहीं है। विश्व में हमेशा धर्म व अधर्म रहा है। धर्म के पक्ष में ही खड़े रहना चाहिए।” बिल्कुल सही, एकजुटता भारत को विकसित बनने में मदद करेगी। लेकिन भागवत के अनुसार तो यह एकजुटता मात्र ‘हिंदू एकजुटता’ ही है। असल में इसे दुर्ख़ीम की ‘जैविक एकजुटता’ से जोड़ना चाहिए।
आज के परिप्रेक्ष्य में कोई भी देश, धर्म या अधर्म के आधार पर विकसित नहीं बन रहा है। देश विकसित बने हैं अपने यहाँ शांति की स्थापना करके, सभी धर्मों के लोगों के बीच समन्वय से, बेहतरीन निर्माण कार्यों से, व्यापार व अपने देश के लोगों के लिए रोजगार उत्पन्न करके। मैं कहना चाहती हूँ कि लोगों को एक करके, एक लाइन में खड़ा करके, एक जैसा पैंट पहनाकर, एक जैसी बातें सिखाकर देश विकसित नहीं बनेगा बल्कि ऐसे विचार से एक संगठन और इससे जुड़ी पार्टी ही विकसित होगी।
यह जो कुछ भी कहा जा रहा है वह भारत के लिए नहीं है, कम से कम नेहरू, गांधी और अंबेडकर के भारत के लिए तो बिल्कुल नहीं है। जबकि भारत को इन्ही का भारत बनाकर विकसित, सुरक्षित और समृद्ध किया जा सकता है न कि धर्मांध संगठनों के मुखियाओं की सतही स्वार्थी एजेंडा वाली अवैज्ञानिक बातें सुनकर। जिस तुलसी के लिए "सिया राममय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी।" एक मात्र लक्ष्य था उसकी धरती पर जाकर, सनातन के नाम पर धर्म का राजनीतीकरण करने से बचना चाहिए था। तुलसी के लिए तो पूरी दुनिया ही राम-सीता का स्वरूप है, सब में राम हैं। तब ऐसे में अन्य धर्मों को टारगेट करने का दृष्टिकोण ही बेमानी है, निराधार है, अनावश्यक है। लेकिन किसे पता राजनीति की आवश्यकता क्या है? और भागवत की राजनीति क्या है?
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