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जवाहरलाल नेहरू।

“जो नहीं बदला है वह है ‘राजनैतिक हिंदुत्व'!”

ट्विटर पर स्वयं को ‘देसी मॉडर्न’ कहने वाले लेखक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल पूर्व में संघ लोकसेवा आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं। देश में वैज्ञानिक मिज़ाज को बढ़ावा देने के हिमायती अग्रवाल वोल्फ़सान कॉलेज, कैम्ब्रिज (यूके) में ब्रिटिश अकादमी फ़ेलो भी हैं। प्रोफ़ेसर नामवर सिंह जैसे दिग्गज साहित्यकार के मार्गदर्शन में काम कर चुके प्रो. अग्रवाल से हाल में प्रकाशित हुई उनकी नयी पुस्तक ‘कौन हैं भारत माता?’ पर विस्तार से चर्चा हुई। उन्होंने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सम्बंध में मिथकों को तोड़ने, सत्य को उभारने और प्रकाश को सही जगह डालने की भरपूर कोशिश की है। पुस्तक में वो नेहरू आलोचना से बचे नहीं बल्कि खुलकर यह बात भी कही कि शायद ‘राष्ट्रगुरु’ पंडित जवाहर को कांग्रेस ने भुलाया है।

कर्म कसौटी से जुड़ी वंदिता मिश्रा ने पुरुषोत्तम अग्रवाल से बातचीत की। 

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वंदिता मिश्रा: किसान आंदोलन का 101वां दिन है और मेरा प्रश्न आपसे आंदोलन और सरकार की उस पर प्रतिक्रिया से संबंधित है। यह भारत के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू से संबंधित है और उनके एक पत्र का हिस्सा है जिसमें वो कहते हैं ‘मैं देख रहा हूँ कि देश के कुछ हिस्सों में आंदोलन चल रहे हैं और कहीं-कहीं लोग भूख हड़ताल कर रहे हैं। अगर इस देश और इसकी नीतियों को इसी तरह प्रभावित किया जाता रहा तो हमें किसी भी किस्म की प्रगति और एकता को नमस्ते करना पड़ेगा,जहां तक मैं समझता हूँ; मैं अपनी सरकार की नीतियों को इन तरीकों से थोड़ा भी प्रभावित होने देना नही चाहूँगा।’

क्या इस कोट से यह समझा जाए कि नेहरू जी गाँधीवादी दर्शन से दूर हट रहे थे? आज के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी पर कांग्रेस के द्वारा आरोप लगाया जाना कहाँ तक उचित है जबकि वर्तमान प्रधानमंत्री भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के तरीकों से इस ‘किसान आंदोलन को प्रबंधित’ कर रहे हैं?

प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: जहाँ तक मुझे याद आ रहा है यह 1953 में उनके अपने मुख्यमंत्रियों को लिखे गए पत्रों का एक हिस्सा है। देखिए यह हमें और सभी को समझना पड़ेगा कि संदर्भ क्या है? यहाँ संदर्भ था देश के विभिन्न समूहों द्वारा भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण। नेहरू शुरू से ही इसके खिलाफ़ थे और इसको देश की एकता के विरुद्ध मानते थे। जो देश इतनी मुश्किल से आज़ाद हुआ उसे फिर से किसी बहाने विभाजित करने के पक्ष में वो नहीं थे। परंतु इसमें गाँधीवाद का विरोध कहीं नहीं है। उन्होंने तो बस यह कहा कि देश को विभाजित करने की किसी भी कोशिश को वो बर्दाश्त नहीं करेंगे। उनकी व्यक्तिगत असहमति के बावजूद उन्होंने इसी पत्र में इन पंक्तियों के पहले यह लिखा है कि उन्होंने राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक आयोग के निर्माण पर सहमति जता दी है, यह उनका गाँधीवादी पक्ष है। जल्द ही यह आयोग अस्तित्व में भी आया। और 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम भी बनाया गया। आज यदि आप इसकी तुलना किसान आंदोलन से कर रही हैं और यदि किसी को लगता है कि आज की वर्तमान सरकार इसको नेहरू के तरीके से सुलझाने की कोशिश कर रही है तो यह सरासर गलत है, आपको यह देखना पड़ेगा कि क्या इन कानूनों (वर्तमान कृषि कानून) को बनाते समय उन्ही एवं सभी संसदीय प्रक्रियाओं का सहारा लिया गया है? क्या कानूनी पारदर्शिता का पालन किया गया है? क्या इस पर उतनी ही बहस हुई है जितनी नेहरू के जमाने में किसी कानून को पारित करने के लिए होती थी? क्या ये कानून सेलेक्ट कमिटी को भेजे गए थे? आज की नरेंद्र मोदी सरकार ने कितने कानून सेलेक्ट कमेटी को भेजे हैं? आपको अन्य बातों की भी तुलना करनी पड़ेगी, जैसे नेहरू जी कितने घंटे संसद की बहसों में लगातार मौजूद रहते थे, और उठाए गए सवालों का जवाब देते थे। ऐसा नहीं था कि केवल धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस का जवाब देने आयें। उनकी कैबिनेट में लोगों की शिक्षा दीक्षा का स्तर क्या था? मैं हमेशा कहूँगा कि जब भी तुलना करें संदर्भ को समझना बेहद ज़रूरी है, शब्दों के मतलब और उनकी व्याख्या सोच समझकर करनी होगी।
purushottam agrawal interview on his book kaun hain bharat mata and nehru - Satya Hindi
वंदिता मिश्रा: मेरा दूसरा प्रश्न अटल बिहारी बाजपेयी की एक कविता से ली गई ये पंक्तियाँ हैं-“भूख जो जड़ से मिटा दे वह उगाना है हमें, प्यास ना बाकी रहे वह जल बहाना है हमें। जो प्रगति से जोड़ दे ऐसी सड़क ही चाहिए, देश सारा गा सके वह गीत गाना है हमें। एक नया संगीतट देखो आज तो कण कण में है, एक नया भारत बनाने का इरादा मन में है।“

राष्ट्र के नाम लिखी इस कविता का शाब्दिक अर्थ ‘बहुसंख्यवाद विरोधी’ है और निश्चित रूप से इसमें अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलने का दृष्टिकोण है, ऐसे में क्या हम कह सकते हैं कि वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार अपनी ‘एकमात्र उदार विरासत’ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को त्यागने का मन बना चुकी है?

प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: हाँ कविता सही लिखी गई है। आपने जो समझा सही समझा। परंतु जो बात सबको समझनी चाहिए वो ये कि भाजपा में पिछले कई वर्षों में हो सकता है कि तमाम बदलाव आए हों परंतु जो नहीं बदला वो है ‘राजनैतिक हिंदुतत्व’ का नरेटिव। यह कविता एक राजनेता द्वारा लिखी गई है। राजनेता ऐसा करते हैं। परंतु जब बात काम करने की आती है तो वो उस मेजर नरेटिव को लेकर चलते हैं जो उन्हें चुनावी रूप से फायदा पहुँचने वाला हो, लोगों को बस यही बात समझनी है। बाजपेयी जी अपनी कवि सुलभ सदाशयता के बावजूद 2002 की गुजरात हिंसा के प्रसंग में तो खुद अपनी बातों के अनुरूप कुछ कर पाने में विफल ही रहे। आज जवाहरलाल नेहरू भले ही भाजपा के निशाने पर हों परंतु अटल बिहारी बाजपेयी तो नेहरू के विषय में जो कहते हैं, लिखते हैं वो आज की सरकार के नरेटिव का पूर्णतया खंडन ही है। अटल जी ने नेहरू जी के बारे में कहा कि “महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में जो राम के बारे में कहा है कि वो असंभवों के समन्वय थे। पंडित जी के जीवन में महाकवि के उसी कथन की झलक दिखाई देती है। वह शांति के पुजारी किन्तु क्रांति के अग्रदूत थे, वो अहिंसा के उपासक थे किन्तु स्वाधीनता और सम्मान की रक्षा के लिए हर हथियार से लड़ने के हिमायती थे। वे व्यक्तिगत स्वाधीनता के समर्थक थे, किन्तु आर्थिक समानता लाने के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने समझौता करने में किसी से भय नहीं खाया, किन्तु किसी से भयभीत होकर किसी से समझौता नहीं किया। पाकिस्तान और चीन के प्रति उनकी नीति इसी अद्भुत सम्मिश्रण का प्रतीक थी, उसमें उदारता भी थी, दृढ़ता भी थी। यह दुर्भाग्य है कि उस उदारता को दुर्बलता समझ गया, जबकि कुछ लोगों ने उनकी दृढ़ता को हठवादिता समझा”। यह पूरा कथन मैंने अपनी पुस्तक की भूमिका में उद्धृत किया है। 
वंदिता मिश्रा: आपकी नजर मे लोकतंत्र क्या है? क्यों तानाशाही निर्णयों को भी सरकारें लोकतान्त्रिक कह सुकून पा लेती हैं, उदाहरण के लिए कारवां पत्रिका की एक रिपोर्ट के अनुसार देश का एक मंत्रिसमूह पत्रकारों को रंग देने की फ़िराक़ में है? अमेजन प्राइम इंडिया की कंटेन्ट हेड को पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय और फिर सर्वोच्च न्यायालय अंतरिम ज़मानत देने तक से इनकार कर देते हैं। क्या सरकारें और न्यायालय भी लोकतंत्र की परिभाषा समझने में नाकाम हैं? यह इतनी साफ क्यों नहीं कि आम आदमी तानाशाही और लोकतंत्र के बीच का अंतर साफ साफ समझ सके, वैसे ही जैसे सफेद कपड़ों पर लगे कीचड़ को नकारा नहीं जा सकता।
प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल: यह समझना इतना आसान नहीं, इसे इतनी आसानी से एक वाक्य में नहीं समझाया जा सकता है। ये समझना होगा कि लोकतंत्र संख्याओं का कोई खेल नहीं बल्कि संस्थाओं, मर्यादाओं और परंपराओं के आधार पर चलने वाली व्यवस्था है। बहुमतवाद को गलत तरीके से लोकतंत्र के रूप में पेश किया जा रहा है। लोकतंत्र मजबूत होता है देश की संस्थाओं से। संस्थाएं जैसे मीडिया, न्यायपालिका आदि। अब आप देखिए कि अपने आप को ‘नेशनल चैनल’ कहने वाला एक चैनल खबर की गंभीरता से यह खबर दिखाए कि गाय जब सांस छोड़ती है तो ऑक्सीजन छोड़ती है। इससे खराब क्या हो सकता है? एक अन्य मामला सुशांत सिंह राजपूत का है जिसे लेकर मीडिया ने सारी सीमाएं और मर्यादाएं तोड़ दीं और लोकतंत्र की जिम्मेदार संस्था के रूप में असफल रहा। कोविड-19 के कारण पूरा देश बंदी की अवस्था में था। पूरे देश में प्रवासी मजदूर परेशान हो रहे थे और अपने घरों में पहुँचने की जद्दोजहत में रास्तों में ही अपनी जान भी गवाँ रहे थे। परंतु संस्था के रूप में मीडिया अपना काम नहीं कर रहा था। बात बात पर मुसलमानों को टारगेट किया जाना किसी भी रूप में लोकतंत्र को प्रदर्शित नहीं करता है। 
purushottam agrawal interview on his book kaun hain bharat mata and nehru - Satya Hindi
वंदिता मिश्रा: 2007 से जुलाई 2013 तक आप संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के सदस्य रहे हैं। जाहिर है बहुत से अधिकारियों को साक्षात्कार में सुना, जाना और चुना होगा। आज महोबा के एसपी हत्या के आरोप में फरार हैं, एक सर्विंग आईपीएस नकल करता पकड़ा जाता है और ऐसे तमाम अन्य मामले जिसमें यंग और नए ऑफिसर अपराधग्रस्त हैं। कैसे सिविल सर्विस में सफल होकर ऐसे लोग आगे आ जा रहे हैं? आज देश जिस स्थिति में है, उसमें ब्यूरोक्रेसी भी जिम्मेदार दिखाई देती है? सरदार पटेल का लौह फ्रेम क्या जंग खाता दिखाई दे रहा है? क्या यूपीएससी की चयन प्रक्रिया में कोई खामी देखते हैं? कोई सुझाव देना चाहते हैं?
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: लगभग 3 लाख या इससे अधिक विद्यार्थी परीक्षा में बैठते हैं, 12 से 15 हजार मुख्य परीक्षा में बैठते हैं और अंतिम चयन लगभग 1000 लोगों का होता है, इन हजार लोगों का चयन होने के बाद वे ट्रेनिंग के लिए भेजे जाते हैं, लेकिन इस सबके बाद यदि कोई अफ़सर कदाचार करता है तो चयन प्रक्रिया को दोष कैसे दे सकते हैं? यूपीएससी संस्था पर प्रश्न उठाना ठीक नहीं। चयन प्रक्रिया को लेकर मैं संस्था पर प्रश्न नहीं उठाऊँगा। हाँ ये जरूर है कि मैं इसे लेकर सुझाव जरूर दे सकता हूँ लेकिन वो भी सिर्फ संस्था में जाकर न कि पब्लिक डोमेन में। मैं आपको बता दूँ कि मैंने यूपीएससी से संबंधित न कभी किसी को इंटरव्यू दिया है और न ही आगे कभी दूंगा। मेरे बतौर सदस्य यूपीएससी में कार्यकाल के दौरान एथिक्स (नीतिशास्त्र) के पेपर को सम्मिलित किया गया था, और अब उसका असर कितना हो रहा है ये मैं नहीं बता सकता। मैं यह मानता हूँ कि कौन सा व्यक्ति सेलेक्ट होने के बाद बाहर कैसा प्रदर्शन करेगा इसका आकलन किसी भी पेपर से नहीं किया जा सकता है।

वंदिता मिश्रा: राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर ने जिनकी प्रख्यात कविता ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ ने अपनी पुस्तक ‘लोकदेव नेहरू’ में लिखा है कि “गांधी जी जवाहर को संकटों से घिरा देख कर रोते थे, विलाप करते थे। मगर देश हिंसा के जिस वात्याचक्र में फंस कर चक्कर खा रहा था, उससे उसे निकालने वाला गांधी और जवाहर लाल को छोड़कर तीसरा और कौन था”?

आपकी नज़र में आज देश को, लोकतंत्र के पर्दे के पीछे चल रही, हिंसा से बचाने और आगे बढ़कर आने वाला तीसरा तो छोड़िए ‘पहला’ कौन है?

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प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल: यदि आज 21वीं सदी में खड़े होकर मैं देखूँ कि वो ‘पहला’ आदमी कौन है जो लोगों को उठा सके और आगे बढ़कर समाज को दिशा दे सके, तो मुझे नहीं लगता कि इस समय कोई ऐसा ‘पहला’ आदमी है। परंतु यदि मैं आज वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन को देखता हूँ तो मुझमें आशा जागती है। आज 102 दिन इस आंदोलन को हो गए हैं, 200 से अधिक किसानों की जान जा चुकी है। बावजूद इसके आंदोलन में हिंसा का नामोनिशान नहीं है। मैं आशा से भरकर यह कह सकता हूँ कि मुझे उस ‘पहले’ आदमी की जगह पूरा एक आंदोलन जरूर दिख गया है जो आगे बढ़कर एक नई दिशा दे सकता है। और यह एक राहत की बात है।  
वंदिता मिश्रा: आपकी किताब “कौन हैं भारत माता” की भूमिका में 17वें पेज पर लिखा है कि आन्द्रे मोलेरो (फ्रेंच साहित्यकार और कूटनीतिज्ञ) के द्वारा उन्हें राष्ट्र के गुरु की संज्ञा दी गई अर्थात ‘राष्ट्रगुरु’ कहा गया, तो आपको ऐसा क्यों लगता है कि वे राष्ट्रगुरु हैं, जबकि उन्हें अपमानित करने के लिए आज देश में बड़े-बड़े गुरु बैठे हैं।
प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: तो कहते रहें! किसी के कहने से नेहरू की छवि ख़राब नहीं होती है। नेहरू न सिर्फ़ राष्ट्र गुरु थे बल्कि उन्हें स्मार्ट राष्ट्रगुरु कहना ज्यादा उचित है। सन 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो आम भारतीय की जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी, और आज हम इसे 70 वर्ष तक ले आए हैं, आपको क्या लगता है यह हवा में हो गया? इसके लिए नीतियाँ बनाई गईं और उन्हें सलीके से क्रियान्वित भी किया गया। आजादी के बाद ही उन्होंने आईआईटी (पहला आईआईटी 1951 में) और एम्स (1956) जैसे संस्थानों की नींव रखी, जो इसरो (ISRO) हमें आज दिखाई देता है वो उन्हीं की देन है, जब गिने चुने देश परमाणु ऊर्जा समझते थे तब भारत जैसे नए नए स्वतंत्र हुए देश ने परमाणु ऊर्जा शोध में निवेश किया और इसके लिए संस्थान जिसे हम आज भाभा अटॉमिक रिसर्च सेंटर कहते हैं, का निर्माण करवाया। फार्मा कंपनी सिपला के संस्थापक डॉ. हमीद को भारत में जेनेरिक दवाओं के निर्माण के लिए प्रोत्साहित किया। हाइड्रोक्लोरोक्वीन जैसी मलेरिया की दवा जिसे कोविड-19 के दौरान अमेरिका किसी भी हाल में पाना चाहता था, रातोंरात नहीं बन गई, आज जिस कोरोना वैक्सीन को हम कनाडा सहित कई पश्चिमी देशों को भेज रहे हैं नेहरू ने इसके अवसंरचनात्मक विकास को 60 के दशक में ही गति प्रदान कर दी थी। हमारे साथ आजाद हुए लोकतंत्रात्मक राष्ट्र आज कहाँ हैं इससे पता चलता है कि नेहरू राष्ट्रगुरु क्यों हैं? मैं उन्हें स्मार्ट राष्ट्र गुरु इसलिए कहता हूँ क्योंकि जिस समय पूरी दुनिया दो भागों में बंटी हुई थी नेहरू ने ‘तीसरा’ रास्ता अपनाया और अमेरिका व रूस किसी एक के पक्ष में नहीं खड़े रहे। इसका लाभ भारत ने दशकों तक उठाया, जहां आईआईटी मद्रास को रूस ने वित्तीय सहयोग किया वहीं आईआईटी दिल्ली को इंग्लैंड ने। हमारे ऊपर न सीटो (SEATO) के बंधन थे न नाटो (NATO) के, परंतु लाभ हमें सबका मिलता रहा। इसे कहते हैं स्मार्ट राष्ट्रगुरु।
वंदिता मिश्रा: आधुनिक समय के जीनियस इतने एकाधिकारवादी क्यों लगते हैं? क्या आज हमारे समय के जीनियस समाज में डिस्रप्शन (विघटन) कर रहे हैं या उसकी दिशा डिस्रप्शन की ओर है? कहीं ऐसा भ्रम तो नहीं कि आर्थिक विकास या वैज्ञानिक विकास के नाम पर वो समाज के मस्तिष्क को सुस्त, कमजोर और उसकी जीवन शैली को अपने बाज़ार की संकल्पना के माध्यम से ढालते हुए राष्ट्र-राज्य की संकल्पना पर प्रहार कर रहे हैं?

प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल: किसको जीनियस कह रही हैं आप?

वंदिता मिश्रा: इलोन मस्क (टेसला,स्पेसX), जेफ बेजोस (अमेजन), मार्क जकरबर्ग (फेसबुक), सरजी ब्रेन, लैरी पेज (गूगल)

पुरुषोत्तम अग्रवाल: इन्हें आप जीनियस समझती हैं? जीनियस कौन होता है? मुझे तो कोई जीनियस नहीं दिखाई देता। देखिए, मैं जीनियस शब्द का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर करता हूँ। मैं इन्हें जीनियस कहने की बजाय सफल कहूँगा, पैसे से सफल! किसी को जीनियस जैसे शब्दों का इस्तेमाल सोच विचार के करना चाहिए। व्यवहार में तो मैं इस शब्द का इस्तेमाल कभी करता ही नहीं। 

वंदिता मिश्रा: अटल बिहारी बाजपेयी पर एक प्रश्न और है और वो इसलिए क्योंकि वो नेहरू की विचारधारा और हिन्दुत्व की विचारधारा के कनेक्टिंग लिंक नज़र आते हैं। 2002 में वार्षिक सिंगापुर व्याख्यान में उन्होंने कहा कि “सूचना प्रौद्योगिकी की जानकारी रखने वालों और इससे अनभिज्ञ लोगों के बीच बढ़ती खाई की वजह से आमदनी संबंधी असमानताएँ बढ़ रही हैं, इससे निपटना भी जबर्दस्त चुनौती है। इसके अलावा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से ही असमानताओं से निपटने के लिए विकास की आंतरिक शक्ति जुटाई जा सकती है और विश्वव्यापीकरण द्वारा छोटी सी अवधि में पैदा की गई भारी असमानता को दूर किया जा सकता है। इसलिए अगर 21वीं शताब्दी को एशिया की शताब्दी बनाना है, तो हमारे क्षेत्र के लोकतान्त्रिक देशों की यह जिम्मेदारी है कि वे इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पहल करें”। 

आज हम सूचना प्रौद्योगिकी के उस पड़ाव पर हैं जहाँ कोई भी सूचना हमें एक सेकेंड या दो सेकेंड या पलक झपकते प्राप्त हो जाती है, पर आमदनी संबंधी असमानताएँ तो और गहरी ही हुई हैं। लोकतान्त्रिक देशों में लोकतंत्र भी कमजोर हुआ है और इस तरह विकास की आंतरिक शक्ति का मतलब भी समझने में ग़लती हुई है। आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?

प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल: हमें यह समझना होगा कि भारत के प्रधानमंत्री के नाते उन्होंने उस वक्त सिंगापुर में जो कहा सही कहा, और यही कहा जाना चाहिए था। परंतु, घरेलू स्तर पर यानी अपने देश में यदि इस कही हुई बात को सही साबित करना था अर्थात यदि सूचना प्रौद्योगिकी को असमानता कम करने के एक टूल के रूप में विकसित और इस्तेमाल किया जाना था तो उनकी सरकार को और अन्य आने वाली सरकारों को भी कई मोर्चों पर प्लानिंग करनी चाहिए थी, जिसे करने में सरकारें असफल रहीं। यही कारण है कि सूचना प्रौद्योगिकी, असमानता को उस सीमा तक कम नहीं कर पाई जितना उससे आशा की गई थी। इसलिए यदि आज जब हम आमदनी संबंधी आँकड़े देखते हैं तो वो खाई और भी बड़ी नजर आती है।
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वंदिता मिश्रा
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