सदियों से लैला मजनू की कहानी अल्हड़ प्रेम की दीवानगी के रूप में कही सुनी जाती है। नाटकों से लेकर फ़िल्मों तक इसे दो कबीलों के झूठे स्वाभिमान की लड़ाई के रूप में पेश किया जाता रहा है। लेकिन लैला तो औरत की आज़ादी के संघर्ष की कहानी  है। औरत जो स्त्री विरोधी समाज की जकड़न से निकलना चाहती है। औरत जो अपने होने के अस्तित्व के लिए लड़ती है। और मजनू ? वो तो उस समाज के ख़िलाफ़ एक विद्रोह है, जो कविता, कला, साहित्य और प्रेम का उपहास करता है। जो परंपरा के एक ऐसे जकरन में है जो उस समाज ही नष्ट कर रहा है। राम गोपाल बजाज जैसे नाटककार जब किसी पौराणिक पात्र को छूते हैं तो वो भी एक नया आधुनिक रूप धारण कर लेता है। निर्देशक बजाज ने लैला मजनू नाटक के ज़रिए एक ऐसा ही जादू मंच पर पेश किया। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) रेपटरी के मज़े हुए कलाकारों ने इस नाटक को नया मायने दे दिया।