देश भर में ग़ैर बीजेपी पार्टियों की एकता की क़वायद क़रीब पाँच छह सालों से चल रही है, लेकिन उनमें एकता या चुनावी तालमेल की कोई सूरत अब तक दिखाई नहीं दे रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कोलकाता से लाखनऊ तक की परिक्रमा के बाद भी विपक्ष यानी ग़ैर बीजेपी दलों की एकता का फ़ार्मूला खोज नहीं पाए हैं। अब उन्होंने कहा है कि कर्नाटक चुनावों के बाद विपक्षी दलों की बैठक बुलाई जाएगी।
ज़्यादा चतुर हैं मोदीः आज विपक्षी पार्टियाँ महज़ बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए एकता की वकालत कर रही है। लेकिन आम मतदाता के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता है। लोग आख़िर नरेंद्र मोदी को क्यों हटाना चाहेंगे। उन्हें कोई ठोस मुद्दा चाहिए। साम्प्रदायिकता निश्चित तौर पर एक बड़ा मुद्दा हैं। देश में इस समय साम्प्रदायिक गोलबंदी चरम पर है लेकिन बीजेपी ने इसका फ़ायदा उठाने की पूरी तैयारी कर रखी है। अडानी का मुद्दा भी आम जनता को गोलबंद नहीं कर पा रहा है। यह मुद्दा ही आम जनता की समझ से बाहर है। बैंकों के नुक़सान और राष्ट्रीय संपत्ति की औने पौने दाम में बिक्री आसान ढंग से पेश करने में भी विपक्ष सफल नहीं हो पा रहा है। वी पी सिंह ने बोफ़ोर्स घोटाले को सेना के लिए तोप की ख़रीद में घूसख़ोरी से जोड़ कर आसान मुद्दा बना दिया था।
विपक्ष को सबसे पहले उन मुद्दों की तलाश करनी होगी, जो मतदाता को झकझोर सकें। अभी तो लग रहा है कि सीबीआई और इंकम टैक्स जैसी एजेंसियों की कार्रवाई से मुक़ाबला के लिए भी विपक्ष एकजुट होने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।
तीन खेमों में बँटा विपक्षः ग़ैर बीजेपी पार्टियाँ दरअसल तीन खेमों में बंटी हुई हैं। विपक्ष की एकता में यही सबसे बड़ी बाधा है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक (बीजू जनता दल) और आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी (वाई एस आर कांग्रेस ) बीजेपी और कांग्रेस दोनों से समान दूरी बना कर रखना चाहते हैं। जगन मोहन कांग्रेस से टूट कर आए हैं और उनका मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और पूर्व मुख्यमंत्री तथा तेलुगु देशम के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू से है। नवीन पटनायक ने उड़ीसा के बाहर की राजनीति में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती (बीएसपी) ने 2019 के लोक सभा चुनावों के बाद से ही प्रमुख विपक्षी पार्टी सपा और कांग्रेस दोनों से दूरी बना रखी है।
कांग्रेस से परहेज़
दूसरे खेमा में तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव, बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमार स्वामी जैसे नेता हैं जो विपक्षी पार्टियों में चुनावी गठबंधन की वकालत तो करते है, लेकिन कांग्रेस को अलग रखना चाहते है। चंद्रशेखर राव ने राष्ट्रीय राजनीति में क़दम रखने के लिए अपनी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति का नाम बदल कर भारत राष्ट्र समिति कर लिया है । वो 2019 के लोक सभा चुनावों के पहले से विपक्ष की एकता की कोशिश कर रहे हैं और प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावाला भी दिखाई देते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अभी भी चुनावी गठबंधन के लिए तैयार नहीं हैं, हालाँकि सीबीआई जैसे मुद्दे पर विपक्ष के साथ आने के लिए तैयार हैं।कांग्रेस के साथ कौनः तीसरे खेमे में बिहार के नीतीश कुमार (जेडी यू ), तेजस्वी यादव (आरजेडी) झारखंड में हेमंत सोरेन (जेएमऐम) महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे (शिव सेना), शरद पवार (एनसीपी ) तमिलनाडु में एम के स्टालिन (डी एम के ) और सीपीएम जैसी पार्टियाँ हैं। कांग्रेस के साथ इनका गठबंधन भी है। इसमें भी कई रूकावटें हैं। केरल में मुख्य लड़ाई सीपीएम और कांग्रेस के बीच है। और वहाँ इनमें समझौता मुश्किल है। त्रिपुरा का चुनाव दोनों मिलकर लड़े लेकिन बीजेपी को पछाड़ नहीं पाए। बंगाल में दोनों साथ आ सकते हैं। इसका ज़्यादा नुक़सान ममता बनर्जी को हो सकता है। आन्ध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू अब तक दुविधा में है। अकेले जायेंगे या कांग्रेस के साथ चलेंगे, ये तय नहीं है।
अपनी राय बतायें