ज़ोर से कहिए, मिल कर कहिए, प्रेम से कहिए किशन कन्हैया की जय।
यह जयकारा जन्माष्टमी का है, श्रीकृष्ण की पैदाइश का है। और क्यों ना हो? उनका किरदार तो गागर में सागर है जी। हर लिहाज़ से वह मुकम्मल हैं, दूर तलक फैला नूर का आसमान हैं, ज्ञान का भंडार हैं, ख़ुद में पूरा ब्रह्मांड हैं। वह जितने रूहानी हैं उतने ही रूमानी भी। उनमें वह सब कुछ है जो इंसान में है और वह भी है जो इंसान में नहीं। वह ज़िंदगी का पाठ पढ़ाते हैं, जीने का सलीक़ा और तरीक़ा सिखाते हैं। बताते हैं कि छल-कपट से भरी दुनिया में हमारा बर्ताव कैसा होना चाहिए।
कौन हैं श्रीकृष्ण? वह विराट और व्यापक हैं। हर तरह की सरहदों के पार हैं। हर इलाक़े और ज़ुबान में हैं। फ़नकारों और कलमकारों के फ़िक्रो तसव्वुर में हैं।
राधा की आन में हैं, बांसुरी की तान में हैं, नृत्य की थिरकन में हैं, मोर के पंखों में हैं, फूलों की पंखुड़ियों में हैं, तितलियों के रंग में हैं, ख़ुशबुओं की बयार में हैं, यमुना के बहाव में हैं, दोस्ती की मिसाल में हैं। वह तो श्यामपट हैं कि जिस पर जो चाहो लिख दो, उन्हें जो चाहो समझ लो। इतने सरल और सहज हैं श्याम जी।
यह अक़ीदे की बात है कि वह ईश्वर हैं या ईश्वर के दूत लेकिन इतना ज़रूर तय है कि हर क़ौम के प्यारे हैं किशन जी। इसे यों समझिए- हिंदुस्तान की जंगे आज़ादी का बड़ा नाम थे मौलाना हसरत मोहानी जिन्होंने इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा गढ़ा था। उन्हीं मोहानी साहब ने किशन को हज़रत कृष्ण नाम से पुकारा और कहा:
हसरत की भी क़बूल हो मथुरा में हाज़िरी
सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है ख़ास।
रसखान से लेकर ख़ुमार बाराबंकवी और बेकल उत्साही तक सब के सब कृष्ण के मुरीद रहे। लेकिन कमाल तो यह कि इस लंबी लिस्ट में हफ़ीज़ जालंधरी का भी नाम शामिल है। वह तो पाकिस्तानी हो गए थे और उन्होंने ही पाकिस्तान का राष्ट्र गान लिखा। लेकिन कृष्ण तो उनके ज़ेहन में जैसे हमेशा-हमेशा के लिए चस्पा थे।
वह ‘कृष्ण कन्हैया’ नाम की अपनी मक़बूल नज़्म में कहते हैं- ये पैकरे तनवीर, ये कृष्ण की तस्वीर। अगर 18वीं सदी के नज़ीर अकबराबादी ने कृष्ण की तारीफ़ में ख़ूब क़सीदे गढ़े तो जदीद शायर निदा फ़ाजली ने बेधड़क फ़रमाया:
वृंदावन के कृष्ण कन्हैया अल्ला हू
बंसी राधा गीता गय्या अल्ला हू।
क्या संजोग है कि हज़रत मूसा की तरह कान्हा का भी जन्म ख़तरों के साये में हुआ। पैदा होते ही दोनों के क़त्ल हो जाने का अंदेशा था लेकिन दोनों ही तमाम पहरों को धोखा देते हुए क़ातिल हाथों से बच निकले। यह भी करिश्माई संजोग है कि दोनों का साथ नदियों ने दिया, उनके भाग निकलने का रास्ता बनाया।
नन्हें कन्हैया अपने माँ-बाप से बिछड़ गए लेकिन हज़रत मूसा की तरह उन्हें भी ममता से भरपूर गोद मिली। यशोदा मय्या ने उन्हें सीने से लगा लिया, अपना बच्चा बना लिया। अपने बचपन में कन्हैया बहुत नटखट थे। गोपियों को तंग किया करते थे, उनके मटके फोड़ देते थे, माखन चुराते थे, डाँट खाते थे, और प्यार भी पाते थे।
हर कहीं बच्चों के साथ मारपीट या बदसलूक़ी जैसे आम बात में शुमार हो चुकी है। उनकी आह और कराह अनसुनी रह जाती है। यह बहुत बड़ा अन्याय है, अधर्म और महापाप है। इसके लिए समाज ज़िम्मेदार है। लेकिन हाँ, बच्चों के बेरौनक़ चेहरों के लिए सबसे बड़ा और सबसे पहला गुनाहगार निज़ाम है।
इस सच को समझना और निज़ाम बदलने के लिए कमर कसना, हाशिये से बाहर खड़े तमाम बच्चों के चेहरे पर मुस्कान लाने की तैयारी करना है। सभी बच्चे मुस्कराना चाहते हैं। यह तभी होगा जब उन्हें जीने का, विकास का, सहभागिता का और सुरक्षा का अधिकार हासिल होगा। इसे पक्का करने की जद्दोजहद में उतरना सही मायनों में कान्हा की पैदाइश का जश्न मनाना है। नहीं भूलना चाहिए कि कृष्ण की ज़िंदगी बिना थके, बिना डरे ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी से मुठभेड़ करते रहने की बेहतरीन दास्तान है।
तो ज़ोर से कहिए, मिल कर कहिए, प्रेम से कहिए गाँव-गली के हर किशन कन्हैया की जय।
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