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‘तुमने केवल एक आकार की हत्या की है…मूर्ख।’

‘हत्या एक आकार की’— यह नाम है ललित सहगल के नाटक का, जो उन्होंने शायद गाँधी जन्म-शताब्दी के बरस 1969 में या उसके दो-एक साल बाद लिखा था। इस पर एक इंग्लिश फ़िल्म भी बनी थी, ‘एट फ़ाइव पास्ट फ़ाइव’।

नाटक में चार लोग हैं, जो ‘उस’ की हत्या करना चाहते हैं, जिसके सत्य, अहिंसा और सांप्रदायिक सद्भाव के ‘फ़ालतू’, बल्कि ‘ख़तरनाक’ नारों ने हिन्दू राष्ट्र को कमज़ोर कर दिया है, जो ‘क्रांतिकारियों’ की आलोचना करता रहा है; जिसने मौत के डर पर विजय पा ली है, जनता पर ऐसा जादू कर दिया है कि उसे जान से मार कर ही चुप किया जा सकता है।

ये चारों लोग अपने मिशन पर निकलने ही वाले हैं कि उनमें से एक को संदेह होने लगता है कि मिशन सही है या ग़लत? उसे मनाने की तमाम कोशिशें नाकाम हैं क्योंकि वह चाहता है कि किसी को प्राणदंड देने के पहले अपराध और दंड पर गंभीर विचार हो।  आख़िरकार तय होता है कि एक मुक़दमे का अभिनय किया जाए। जिसे संदेह है, वह ‘उस अभियुक्त’ के वकील की भूमिका करे, जिसे गोली चलानी है वह ‘सरकारी वकील’ की, तीसरा साथी जज बने, और चौथा बाक़ी बचे सारे रोल निभाए।

hatya ek aakar ki played and scene reenactd on gandhi death anniversary - Satya Hindi
31 जनवरी को एम. के. रैना द्वारा यह नाटक देखने का सुअवसर मिला। निर्देशकीय कल्पना और अभिनेताओं की प्रतिभा ने प्रस्तुति को बहुत मार्मिक बना दिया। मेरी पुरज़ोर सिफ़ारिश है, जब भी मौक़ा मिले, एम.के. रैना का यह नाटक ज़रूर देखें। एक अपील भी कि इस टिप्पणी के किसी भी पाठक के पास यदि श्री ललित सहगल और उनके परिवार से संबंधित कोई सूचना हो, तो प्लीज ज़रूर शेयर करें।
प्रस्तुति की मार्मिकता में योगदान इस बात का भी रहा कि एक ही दिन पहले, ऐन शहीद दिवस को अलीगढ़ में कुछ हिन्दूसभाइयों ने गाँधी-हत्या को रिएनेक्ट किया था। यानी एक आकार की हत्या फिर से की थी।
hatya ek aakar ki played and scene reenactd on gandhi death anniversary - Satya Hindi

इस नाटक से मेरा व्यक्तिगत वास्ता है। सन तिहत्तर या चौहत्तर में, ग्वालियर नगर में स्व. डॉ. कमल वशिष्ठ ने घिसे-पिटे नाटकों के माहौल से ऊब कर कुछ नया रंगकर्म करने की ठानी थी। वह जिन नौजवानों को अपने विचार से प्रभावित कर ले गये, उनमें मैं, मेरे बड़े भाई रामबाबू और एक दोस्त सत्येन्द्र तो थे ही, और भी कुछ लोग धीरे-धीरे साथ आ गये थे। हमने अपनी टीम बनाई, नाम रखा ‘नाट्यायन’ और इसकी ओर से पहला नाटक किया, ललित सहगल का ‘हत्या एक आकार की’। निर्देशक कमल वशिष्ठ। 

  • नाटक की थीम के बारे में दर्शकों को पहले से ही कुछ अंदाज़ा था, ग्वालियर हिन्दू सभा का गढ़ माना जाता था। गाँधी-हत्या के तार भी ग्वालियर के कुछ हिन्दू-सभाइयों से जुड़े हुए थे। बड़ी तादाद में लोग नाटक देखने आए, हिन्दू-सभाइयों समेत।

हम लोगों ने कुछ अभिनेता दर्शकों के बीच भी बैठा रखे थे, जिनका काम मुक़दमे के दौरान सत्य, अहिंसा, सांप्रदायिक सद्भाव जैसी फ़ालतू बातें करने वाले ‘उस ख़तरनाक आदमी’ पर सवालों की बौछार करना था। हुआ यह कि सवाल ऐसे अभिनेताओं के अलावा वास्तविक दर्शकों ने भी उछाले, और ‘उस’ की भूमिका निभा रहे सत्येन्द्र को उनके जबाव देने पड़े। हिन्दूसभाई लोग बीच-बीच में ‘वीर गोडसे ज़िन्दाबाद’ के नारे भी लगाते रहे। बात यह थी कि गोडसे की भूमिका करने वाले अभिनेता के ग़ुस्से से फड़कते नथुनों पर ‘उस आकार’ की शांत आवाज़ और बुनियादी तौर से तर्कपूर्ण बातें भारी पड़ रहीं थीं। इसलिए हिन्दूसभाई लोग हत्या पर उतारू चरित्र का मनोबल बढ़ाने के लिए नारेबाज़ी कर रहे थे।

विडंबना यह कि वह अभिनेता मैं था। 

जज की भूमिका में रामबाबू थे, और चौथे साथी की भूमिका में सत्यपाल बत्रा।

ख़ैर, आज के माहौल को देखते हुए, नौजवानों के लिए अविश्वसनीय किन्तु सत्य यही है कि गोडसे-भक्त हिन्दूसभाइयों तक ने बस नारेबाज़ी ही की, पत्थरबाज़ी और मार-पीट नहीं।
hatya ek aakar ki played and scene reenactd on gandhi death anniversary - Satya Hindi
अदालत में नाथूराम गोडसे

नाटक हुआ, चर्चित और प्रशंसित हुआ। बाद में हिन्दूसभा के नेता इस बात पर पछताए भी कि अपने कार्यकर्ताओं को यह नाटक दिखाने ले गये, क्योंकि उनमें से कुछ ने नाटक के असर में गाँधीजी  की आत्मकथा पढ़ ली, और कुछ किताबें पढ़ लीं, और ‘हाथ से निकल गये।’

  • नाटक में गाँधीजी पर लगाए जाने वाले आरोप बेबाक हैं, घटनाओं के उल्लेख के साथ हैं, और गाँधीजी के उत्तर भी उतने ही स्पष्ट और दो-टूक हैं। समुदाय, राष्ट्र और सारी मानवता के परस्पर संबंध, राजनीति में हिंसा की जगह, सत्य और अहिंसा के मूल्यों का महत्व— इन बातों पर नाटक बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है।
नाटक गाँधीजी के प्रसिद्ध कथनों का सटीक उपयोग करता है, ‘जब मेरे जैसे दोषपूर्ण व्यक्ति के ज़रिए सत्य और अहिंसा का प्रभाव इतना हो सकता है, तो सचमुच निर्दोष मनुष्य के हाथों इनका प्रभाव कहाँ तक पहुँचेगा?’ यह भी, ‘आप कहते हैं कि मैं तपस्या करने हिमालय चला जाऊँ, लेकिन मेरी तपस्या का हिमालय तो वहाँ है जहाँ मनुष्य की पीड़ा है। इस पीड़ा को दूर करने के लिए जो कर सकता हूँ, वह कर लूँ, फिर आप आगे चलिएगा, मैं आपके पीछे-पीछे हिमालय चलूँगा।’
दिनकर की पंक्तियाँ हैं— ‘तूफ़ान मोटी नहीं/ महीन आवाज़ से उठता है/ वह आवाज़/ जो मोम के दीप के समान एकांत में/ जलती है/ और बाज़ नहीं, कबूतर की चाल से चलती है/ गाँधी तूफ़ान के पिता/ और बाज़ों के भी बाज़ थे/ क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे।’

आज देश और दुनिया में मूर्खता का जो आवेश है, अज्ञान से उपजा जो उत्साह है, ऐसी मूर्खता और अज्ञान की टीवी और वॉट्सऐप पर जो ताबड़तोड़ है, उसका सबसे बड़ा हमें अपनी इंसानियत से दूर करने वाला नुक़सान यह है कि हमारे पास अपने भीतर गूँजने वाली नीरवता की आवाज़ सुनने का न वक्त है, न धीरज। 

  • नाटक के अंत में, ‘उस’ की भूमिका निभा रहे पात्र के तर्कों का जब जबाव देते नहीं बनता, तो बाक़ी तीनों अपने हत्यारे मिशन पर निकल जाते हैं। थोड़ी देर बाद नेपथ्य से तीन गोलियाँ चलने की आवाज़ आती है। मंच पर अकेला छूट गया अभिनेता वेदना भरी आवाज़ में याद दिलाता है, यह न तो पहली बार हुआ है न आख़िरी बार… उसे बार-बार मारा गया है, बार-बार मारा जाएगा।
‘उस’ का मतलब नीरवता की आवाज़, आपके अपने मानवीय विवेक की आवाज़। गाँधी की नियति एक व्यक्ति की नहीं, मानवीय विवेक की नियति है, साथ ही उनका ‘जिद्दीपन’ उस हरियाली का जिद्दीपन है, जो बड़ी से बड़ी चट्टानों के बीज अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा ही देती है। 
  • मंच पर छूट गये साथी का आख़िरी कथन, नाटक का भरत-वाक्य है, ‘उसने तो 1919 में ही कह दिया था कि उसके लिए इससे ज़्यादा ख़ुशी से कोई बात हो नहीं सकती कि उसके प्राण हिन्दू-मुसलिम एकता की राह पर जाएँ। वह तो नाच रहा होगा खुशी से। 

‘उसकी नहीं, तुमने केवल एक आकार की हत्या की है…मूर्ख…’

यह बात उनके लिए सही थी जो 30 जनवरी 1948 को यह पाप कर रहे थे, उनके लिए और भी सही है जो 30 जनवरी 2019 को उस पाप की पुन: प्रस्तुति कर रहे हैं— ‘तुमने केवल एक आकार की हत्या की है…मूर्ख।’

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पुरुषोत्तम अग्रवाल
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