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भारंगम 2025 में `अजातशत्रु’ का मंचन: हेनरिक इब्सन और कुंभ का हादसा

नार्वे के नाटककार हेनरिक इब्सन (1828 -1906) और हाल में हुए प्रयागराज के कुंभ मेले के हादसे को जोड़ना अजीब लग सकता है। कहां एक यूरोपियन नाटककार और कहां इक्सीसवीं सदी में अभी चल रहे कुंभ मेले में मौनी अमावस्या के दिन प्रशासनिक लापरवाही से जुड़ी दुर्घटनाएं (जिसमें कई लोगों की मृत्यु हुई)! और उसके बाद भी हो रहीं त्रासदियां। कोई संबंध है?

प्रथमदृष्टया तो सबंध नहीं लगता है। लेकिन यहीं तो कला की खूबी है कि भूगोल और समय में दूर होने के वावजूद कई कड़ियाँ जुड़ जाती हैं। इसीलिए तो हजारों साल पहले लिखे गए महाभारत के अलग-अलग प्रसंगों को लेकर नए मुद्दों के आलोक में आज भी नाटक- उपन्यास लिखे जा रहे हैं और उनकी आधुनिक व्याख्याएँ की जा रही हैं। इसे ध्यान में रखें तो इब्सन और कुंभ के मेले में हुए हादसे के तार जुड़ जाते हैं। या ये भी कहा जा सकता है कि ऐसा करने का प्रयास किया गया है। चलिए पूरा प्रंसग बताया जाए।

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हेनरिक इब्सन का एक नाटक है जिसका अंग्रेजी में नाम है `एन एनिमी ऑफ़ द पीपल’। फ़िल्मकार सत्यजीत राय ने इसका बांग्ला रूपांतर करके `गणशत्रु’ नाम से एक फ़िल्म भी बनाई थी। इसी नाटक का हिंदी रूंपातर `अजातशत्रु’ नाम से इस बार के भारत रंग महोत्सव में खेला गया। निर्देशक थे केके रैना। रूपांतर इला अरुण का था/है।

`अजातशत्रु’ में कथा ये है कि सोनपुर नाम का एक शहर है जहां एक ड़ॉक्टर है अजाजशुत्र। एक प्यारा इंसान है और उसकी पत्नी और बेटी- दोनों बहुत अच्छी हैं। अजातशत्रु का बड़ा भाई उस शहर का मेयर है। एक दिन अजातशत्रु को एक प्रयोगशाला से रिपोर्ट मिलती है कि शहर में जल से भरा कमलकुंड नाम का धार्मिक स्थल है वहां का पानी प्रदूषित हो गया। इस पानी को पीने से कई तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं। अजातशत्रु चाहता है कि इस रिपोर्ट को अख़बारों में दिया जाए ताकि सरकार और प्रशासन चेतें, कुंड की सफाई हो और जब तक ऐसा न हो इस कुंड को बंद रखा जाए। लेकिन खुद उसका सगा भाई इसके ख़िलाफ़ है। उसका तर्क है कि इससे लोंगों की आस्था को ठेस पहुंचेगी  और पर्यटन उद्योग भी प्रभावित होगा। राज्य का आर्थिक नुक़सान होगा। अख़बार का मालिक शुरू में अजातशत्रु के साथ है पर मेयर के दबाव के कारण और अपने व्यापारिक लाभ के लिए अपनी राय बदल देता है और प्रशासन के साथ हो जाता है। अजातशत्रु का ससुर भी उसका विरोधी हो जाता है। आख़िर में शहर के लोग भी अजातशत्रु के विरुद्ध हो जाते हैं और उसे जनता का शत्रु घोषित कर देते हैं। उसे जनता के हाथों मार दिया जाता है।

केके रैना ने इसका निर्देशन करते हुए इब्सन के नाटक के मूल भाव को बरकरार रखा है। इब्सन ने इसमें हास्य का भी प्रचुर् तत्व रखा था और रैना द्वारा निर्देशित इस नाटक के भी कई चरित्र और संवाद हंसी से भरे हैं। खासकर अखबार मालिक- संपादक का चरित्र इस तरह अपने संवाद बोलता है और अपने आंगिक हावभाव प्रकट करता है दर्शक का हंसते हंसते बुरा हाल हो जाता है। पर साथ ही नाटक की अपनी संजीदगी भी आद्यंत बरकरार है। 
इस नाटक में इब्सन का मंतव्य ऐसा है कि अगर कोई निस्वार्थ भाव के साथ जिम्मेदारी निभाता है और ऐसा करते हुए वो निहित स्वार्थ वालों को चुनौती देता है तो कई बार आम लोग भी उसका साथ नहीं देते हैं।
अजातशत्रु के साथ यही होता है। उसकी पत्नी, बेटी और एक पत्रकार को छोड़कर सभी उसके दुश्मन हो जाते हैं। प्रशासन भी आम लोगों को मरने के लिए छोड़ देता है और तर्क देता है कि ऐसा वो लोगों के हक में कर रहा है और आम आदमी की आस्था की रक्षा कर रहा है। आज के भारत में भी प्रशासन के लिए आस्था एक ऐसा आवरण बन गई है जिसकी आड़ में कई तरह के घोटाले छुपाए जा रहे हैं। इस बार का कुंभ भी इसका एक साक्ष्य है।
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यहाँ ये भी बताना ज़रूरी है कि नाटक में कहीं भी कुंभ मेले के हादसे  का साफ़-साफ़ जिक्र नहीं है। दर्शक को ऐसा बोध जिस कारण होता उसे आनंदवर्धन में ध्वनि कहा है। ये ध्वनि शब्दों में नहीं अर्थ में होती है। या ये कहें कि शब्दों से परे होती है। घोषित रूप से और अंत तक पहुंचते-पहुंचते ये `अजातशत्रु’ पर्यावरण की रक्षा की बात करता है। अजातशत्रु के न रहने के बाद उसकी बेटी मुंबई में समुद्र को साफ़ रखने के अभियान से जुड़ जाती है। अंत में उसका एक छोटा सा एकालाप है जिसमें वो अपील करती है समुद्र में प्लास्टिक और दूसरे कचरे न फेंकें और अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें। निस्संदेह ये पहलू भी इब्सन के नाटक से निकलता है और केके रैना ने एक प्रासंगिक मुद्दे की तरफ़ हम सबका ध्यान खींचा है। 
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आज की कई नदियाँ प्रदूषित हो चुकी हैं। यहां तक कि धार्मिक रूप से आस्था का केंद्र रहीं गंगा और यमुना भी रासायनिक कचरों और दूसरी गंदगियों की वजह से न नहाने लायक बची हैं और  न उनके जल से आचमन किया जा सकता है। कई सरकारों ने आश्वासन दिए पर कार्रवाई नहीं की और नदियां मैली होती गईं। आस्था का तर्क भारी पड़ा और प्रदूषण बढ़ता गया। नेता, अफसर और व्यापारी- इन तीनों का गठजोड़ नदियों को गंदा करता रहा और आज भी ये सिलसिला जारी है। `अजातशत्रु” नाटक इन सबको व्यंजित करता है। 

यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि `अजातशत्रु’ नाटक के आरंभ होने के पहले उद्घोषणा में कहा गया कि इस नाट्य प्रस्तुति के पहले भारत में हेनरिक इब्सन के नाटक पुस्तकालयों में धूल खा रहे थे। ये वक्तव्य अज्ञान और आत्मश्लाघा से भरा है। वास्तविकता तो ये है कि इब्सन के नाटक हिंदी में भी और दूसरी भाषाओं में अनूदित और रूपांतरित होकर लगातार खेले जाते रहे हैं। ‘पियर जिंट,’ `द डॉल्स हाउस’ जैसे नाटकों की हिंदी में ही कई प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। `एन एनिमी ऑफ़ द पीपुल’ की भी। निर्देशक को इस तरह की बातों से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से जो अच्छा किया उसका महत्त्व भी कम हो जाता है।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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