महाभारत का चरित्र कर्ण भारतीय मानस में सहस्राब्दियों से छाया हुआ है। आधुनिक काल में भी उसे लेकर कई उपन्यास-नाटक लिखे जा रहे हैं। अब जब महाभारत की कीर्ति भारत से निकलकर पूरी दुनिया में फैल रही है तो इसके चरित्रों की ओर भी दुनिया भर के रंगकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों का ध्यान जा रहा है। खासकर कुछ साल पहले पीटर ब्रूक द्वारा महाभारत के मंचन के बाद। इसी कड़ी में ताजा उदाहरण है नाटक `कर्ण’ जो इस बार के भारत रंग महोत्सव में ताइवान से आया। पर निदेशक भारतीय - मणिपुरी मूल के हैं। नाम है चोंगथम जयंता मितेई। जयंता मितेई राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक रह चुके हैं। उसके बाद उन्होंने सिंगापुर में नाट्य प्रशिक्षण लिया। पिछले कुछ बरसों से वे ताइवान में रह रहे हैं और वहां रंगकर्म भी कर रहे हैं। उनके द्वारा निर्देशित इस नाटक को लिखा है हिमांशु बी जोशी ने जो दिल्ली के नाट्य जगत में बरसों से सक्रिय हैं।
कर्ण से जुड़ी कथाएँ तो भारतीयों के लिए परिचित हैं ही पर निर्देशक ने इनको इस तरह पेश किया है कि ताइवानी या विदेशी दर्शकों को समझने और उसका आस्वाद करने में कठिनाई न हो।
कर्ण का जीवन कई प्रकार की विडंबनाओं से घिरा रहा। कुंती ने जब उसे जन्म दिया तो वो अविवाहित थी। ऋषि दुर्वासा द्वारा दिए एक वरदान, जो ये था कि वो कभी भी देवताओं को आमंत्रित कर सकती है, के बाद वो इसे आजमाने के लिए सूर्य देवता का आह्वान करती है। सूर्य आते हैं, कुंती से उनका समागम होता है और कुंवारी कुंती मां बनती है। लोकलाज के कारण अपने नवजात पुत्र को नदी में बहा देती है जिसे आगे जाकर शूद्र अधिरथ और उसकी पत्नी राधा पालती है। बड़ा होने पर जब कर्ण वीर धनुर्धर बन जाता है तो महाभारत के युद्ध में कुंती के दूसरे पुत्रों यानी पांडवों के ख़िलाफ़ ही लड़ता है। आख़िर में वो अर्जुन के हाथों तब मारा जाता है जब उसके रथ का पहिया पृथ्वी में धंस जाता है और उसे निकालने का प्रयास करते हुए वो निहत्था हो जाता है।
पर क्या ये नाटक सिर्फ कर्ण कथा है? बिल्कुल नहीं। निर्देशक ने, और नाटककार हिमांशु ने भी, इसमें एक नया आयाम जोड़ा है जो कर्ण के व्यक्तित्व को नैतिक रूप से कुछ और अधिक आभावान बना देता है। नाटक में ये दिखाया गया है कि अपने रथ का पहिया पृथ्वी में धंसा होने के बाद भी कर्ण अर्जुन पर वो एक बाण नहीं चलाता जो इंद्र ने उसे दिया था। हालांकि मूल कथा में ये नहीं है लेकिन इस प्रस्तुति में ये नई चीज जोड़ी गई है। और इसमें किसी तरह का अनौचित्य भी नहीं है क्योंकि महाभारत विकसनशील काव्य रहा है।
`कर्ण’ की इस प्रस्तुति को एक और परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। वो है भारतीय कथाओं का विश्वव्यापी प्रसार। ग्रीक नाटकों के कई चरित्र आज दुनिया भर में चर्चित हैं। इडिपस और एंटीगनी पर आधारित नाटक दुनिया भर में खेले जा रहे हैं। फिर कर्ण या दूसरे भारतीय मिथकीय चरित्रों की विश्वस्वीकृति क्यों न हो?
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इस प्रस्तुति में भारतीय तत्व भी हैं और ताइवानी भी। ताइवान की भाषा चीनी है और वहां की संस्कृति भी। हालाँकि ताइवान स्वतंत्र देश है पर वहां की भाषा, कला और दूसरे सांस्कृतिक पक्ष चीनी ही कहे जाएंगे। मिसाल के लिए चीनी ऑपेरा ताइवान की भी प्रदर्शनकारी कला है। जिसे अंग्रेजी में फ्यूजन कहा जाता है और हिंदी में संकरता- वो इस प्रस्तुति में मौजूद है। कर्ण का चरित्र और उससे जुड़ी कथा भारतीय है। कुछ अभिनेता भारत के हैं और कुछ ताइवान के। कर्ण की भूमिका निभानेवाले मोहम्मद सरफराज भारतीय हैं। कुंती की भूमिका निभानेवाली मेधा आइच भारतीय मूल की हैं पर ऑस्ट्रेलिया में रहती है। कृष्ण और सूर्य की भूमिका में सायन सरकार हैं। पर बाकी भूमिकाओं में ताइवानी कलाकार। वैसे एक ताइवानी कलाकार भी कुछ वक्त के लिए कुंती का चरित्र भी निभाती हैं।
निर्देशक ने ताइवान के चीनी ऑपेरा को तो रखा ही है पर भारत की नौटंकी और यक्षगान के कुछ तत्वों का भी इस्तेमाल किया है। हिंदीवाले कुछ संवादों में नौटंकी की संवादशैली प्रयोग में लाई गई है। सूर्य का वेश यक्षगान शैली का है। उसकी भंगिमाएं भी। भाषा हिंदी के साथ चीनी भी है। जहां अभिनेता चीनी बोलते हैं तो मंच पर पीछे उनका अंग्रेजी अनुवाद भी चलता रहता है ताकि भारतीय दर्शकों को संवाद समझने में मुश्किल न हो।
मणिपुर का रंगमंच हेशम कन्हाईलाल और रतनथियम जैसे रंगकर्मियों के कारण पहले से समादृत रहा है। अब जयंता मितेई जैसे रंगकर्मी उसे और भी बुलंदी पर ले जा रहे हैं। ये भारतीय रंगकर्म के विस्तार के लिए भी शुभ है। बस एक छोटा-सा सुधार निर्देशक को कर लेना चाहिए। इंद्र ने कर्ण से कवच-कुंडल मांगने के बदले ब्रह्मास्त्र नहीं दिया था। कुछ शक्तिशाली अस्त्र दिए थे। अधिक से अधिक उनको दिव्यास्त्र कह सकते हैं। ब्रह्मास्त्र एक अलग धारणा वाला अस्त्र है।
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