ये तो अक्सर पढ़ने और सुनने में आता है कि फलां नाटक या उपन्यास में समाज के सबसे नीचे के तबक़े के दुख-दर्द हैं। पर सबसे नीचे का तबक़ा कौन है- इस पर सर्वस्वीकृति नहीं है। बेशक इसमें ग़रीब लोग होते हैं। लेकिन ग़रीबी भी कई तरह की होती है। कुछ लोगों के जीवन में आर्थिक अभाव विकराल होते हैं। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी ज़िंदगी की भयावहता का अंदाज़ा तब लगता है जब आप उनको क़रीब से जाकर देखते-समझते हैं और पाते हैं कि यहां सिर्फ़ ग़रीबी नहीं है, बल्कि आर्थिक से इतर संकट भी है। फिर आप उस घुटन का अंदाज़ा लगा पाते हैं जिसे सुनने के लिए कान को दिल के पास जाना पड़ता है।
भारंगम -2025: ये कैसी ज़िंदगी है?
- विविध
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- 14 Feb, 2025

भारंगम 2025 में नाटक ‘स्मॉल टाइम ज़िंदगी’ का मंचन हुआ। पढ़िए इस नाट्य प्रस्तुति की कहानी, संदेश और मंचन की समीक्षा।
2025 के भारत रंग महोत्सव में रणधीर कुमार और कृष्ण समृद्ध के निर्देशन में हुई `स्मॉल टाइम ज़िंदगी’ एक ऐसी नाट्य प्रस्तुति थी जो हमारे समाज के उस वर्ग को सामने लाती है जो ज़्यादातर लोगों के लिए अदृश्य रहता है। ये वर्ग है कब्र खोदनेवाले का। दुनिया के हर शहर में कब्रगाह होते हैं। ये तो सब जानते हैं। पर कौन होते हैं जो कब्र खोदते हैं? वे कहां रहते हैं? उनका परिवार कैसा होता है? उनके बाल-बच्चे क्या करते हैं? उनकी पीड़ाएं या दुखदर्द क्या होते हैं? इनके बारे में अक्सर हम नहीं सोचते। इनको जान भी नहीं पाते। इस तरह ऐसे लोग अदृश्य ही रह जाते हैं। वो होते हैं पर होकर भी नहीं होने के बराबर होते हैं। इसे अंग्रेजी में `नॉन-इंटीटी’ कहते हैं। `स्मॉल टाइम ज़िंदगी’ नाम का ये नाटक इन्हीं `अदृश्यों’ को दिखाता है। इसी कड़ी में ये बता दिया जाए कि ये नाटक हृषिकेश सुलभ के `दातापीर’ उपन्यास का रूपांतर है। ये उपन्यास कुछ साल पहले ही आया है और काफी चर्चित रहा है।