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भारंगम -2025: ये कैसी ज़िंदगी है?

ये तो अक्सर पढ़ने और सुनने में आता है कि फलां नाटक या उपन्यास में समाज के सबसे नीचे के तबक़े के दुख-दर्द हैं। पर सबसे नीचे का तबक़ा कौन है- इस पर सर्वस्वीकृति नहीं है। बेशक इसमें ग़रीब लोग होते हैं। लेकिन ग़रीबी भी कई तरह की होती है। कुछ लोगों के जीवन में आर्थिक अभाव विकराल होते हैं। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी ज़िंदगी की भयावहता का अंदाज़ा तब लगता है जब आप उनको क़रीब से जाकर देखते-समझते हैं और पाते हैं कि यहां सिर्फ़ ग़रीबी नहीं है, बल्कि आर्थिक से इतर संकट भी है। फिर आप उस घुटन का अंदाज़ा लगा पाते हैं जिसे सुनने के लिए कान को दिल के पास जाना पड़ता है।

2025 के भारत रंग महोत्सव में रणधीर कुमार और कृष्ण समृद्ध के निर्देशन में हुई `स्मॉल टाइम ज़िंदगी’ एक ऐसी नाट्य प्रस्तुति थी जो हमारे समाज के उस वर्ग को सामने लाती है जो ज़्यादातर लोगों के लिए अदृश्य रहता है। ये वर्ग है कब्र खोदनेवाले का। दुनिया के हर शहर में कब्रगाह होते हैं। ये तो सब जानते हैं। पर कौन होते हैं जो कब्र खोदते हैं? वे कहां रहते हैं? उनका परिवार कैसा होता है? उनके बाल-बच्चे क्या करते हैं? उनकी पीड़ाएं या दुखदर्द क्या होते हैं? इनके बारे में अक्सर हम नहीं सोचते। इनको जान भी नहीं पाते। इस तरह ऐसे लोग अदृश्य ही रह जाते हैं। वो होते हैं पर होकर भी नहीं होने के बराबर होते हैं। इसे अंग्रेजी में `नॉन-इंटीटी’ कहते हैं। `स्मॉल टाइम ज़िंदगी’ नाम का ये नाटक इन्हीं `अदृश्यों’ को दिखाता है। इसी कड़ी में ये बता दिया जाए कि ये नाटक हृषिकेश सुलभ के `दातापीर’ उपन्यास का रूपांतर है। ये उपन्यास कुछ साल पहले ही आया है और काफी चर्चित रहा है।

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उपन्यास बड़ा है और उसमें कई चरित्र हैं। पर इस नाटक में हम सिर्फ़ उन नौ चरित्रों से मिलते हैं (जिनकी भूमिकाएँ आठ कलाकारों ने निभाई हैं) जो उपन्यास के सार को सामने ला देते हैं। ये हैं रशीदन (अंजलि शर्मा), उसकी दो बेटियाँ- अमीना (प्रियांशी) और चुन्नी (रोशनी), बेटा फजलू (सौरभ सागर), फजलू का दोस्त और अमीना का प्रेमी साबिर (राहुल रवि), रशीदन का दूसरा शौहर सत्तार (सुनील बिहारी), समद फकीर (आदिल रशीद) और चुन्नी का प्रेमी बबलू (संदेश)। एक चायवाला भी है जिसकी भूमिका संदेश ने ही निभाई है।

रशीदन के पहले शौहर का इंतकाल हो गया है। सत्तार ने धोखे से उसको मारा और फिर रशीदन को अपना लिया। उसकी निगाह बड़ी बेटी अमीना पर भी है। रशीदन लगातार तनाव में रहती है और सत्तार से डरी हुई भी। बेटा फजलू बचपन में ही पोलियो ग्रस्त हो गया था इसलिए पैर से लाचार है पर उसके हाथ मज़बूत हैं और उनसे ही कब्र खोदता है। उसी से घर का ख़र्च चलता है। छोटी बेटी चुन्नी घर से भागकर प्रेमी बबलू से शादी कर लेती है। पर अमीना? उसकी झोली में गम ही गम हैं। प्रेमी छोड़कर चला जाता है और धीरे-धीरे वो अपनी  मां रशीदन की तरह होती जाती है यानी उसकी तरह दिखने लगती है। बाकी काल जीवन उसी कब्रगाह में बिताने को अभिशप्त। उसके जीवन के सारे उमंग धरे के धरे रह जाते हैं। या कहिए कब्र में दफन हो जाते हैं।

वैसे तो इस नाटक में एक दुख से भरे परिवार की कहानी है पर कुछ लम्हें हंसी मजाक के भी हैं। चुन्नी और बबलू वाला प्रसंग हंसने- हंसानेवाला है। चुन्नी शोख है पर मां से प्यार करती है। वो कब्रगाह से निकल पाने में कामयाब होती है।
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नाटक की एक बड़ी खूबी इसका डिजाइन है। मंच पर रॉड से बनीं तीन लंबी खोमचेनुमा निर्मितियाँ हैं। इसमें सूटकेश से लेकर चाय बनाने के बर्तन भी रखे रहते हैं। ये तीनों खोमचेनुमा आकृतियाँ दरअसल कब्रों के ऊर्ध्वाधार रूप हैं। ये जताते हैं कि इस परिवार का घर कब्रिस्तान ही है। ये खोमचे बतौर रूपक पिंजड़े भी हैं। चुन्नी इस पिंजड़े से निकल कर फुर्र हो जाती है। लेकिन अमीना तो पिंजड़े की पंछी ही बनी रहने के लिए अभिशप्त है। दर्शक के मन में सवाल उठता है कि इसी कब्रगाह में रहते हुए वो मृतात्मा की तरह जीवित रहेगी क्या? एक बेहद मानीखेज डिजाइन जिसमें नाटक शब्दों से परे जाकर बहुत कुछ कहता है। निर्देशक द्वय में से एक रणधीर कुमार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रशिक्षित स्नातक हैं। डिजाइन उनकी विशेषज्ञता रही है। उनके दूसरे नाटकों में ये कुशलता दिखती रही है। वे डिजाइन को अलंकार नहीं बनाते बल्कि उसे कथ्य के भाव को विस्तारित करने का माध्यम बना देते हैं। इस नाटक में भी उन्होंने यही किया है।

नाटक में एक और कहानी है। फकीर समद की। रशीदन उसके पास सलाह-मशवरे के लिए जाती रहती है। समद एक मजार पर रहता है। उसका एक इतिहास है। वो उर्दू अदब का जानकार है। मीर की शायरी का प्रेमी। कभी पटना विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में शोधार्थी। पर उसकी प्रेमिका को पिता ने ही मार डाला था क्योंकि वो समद से शादी करना चाहती थी। पर प्रेमिका के पिता को ये मंजूर नहीं था। उसी त्रासदी ने समद को फकीर बना दिया। समद जिस मजार पर रहता है वो उसकी हसरतों की भी कब्र है।

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इस नाटक को देखते हुए मैक्सिम गोर्की के नाटक `लोवर डेप्थ’ (हिंदी नाम `तलघर’) की याद आती है। पूरी तरह से नहीं बल्कि आंशिक रूप से। गोर्की के इस नाटक के चरित्र भी सबसे निचले तबक़े के हैं। दरिद्र और फटेहाल। `स्म़ॉल टाइम ज़िंदगी’ के चरित्र भी। बिना मरे कब्र में दफ्न। कब्र खोदनेवाले वहीं के वासी हो गए हैं। ज़िंदगी का वो कोना जहां कभी रोशनी नहीं आती। हमेशा अंधेरा छाया रहता है।

नाटक की वेशभूषा में इस्लामी तहजीब से काफी कुछ लिया गया है। इसके रूपांतरकार कृष्ण समृद्ध की भी तारीफ़ की जानी चाहिए उन्होंने उपन्यास के बड़े स्वरूप को दो घंटे में कस दिया है। नाटक का संगीत भी दिल को छूनेवाला है।

एक बात और। नाटक का पूरा लहजा बिहारी है। ये स्वाभाविक भी है क्योंकि लेखक से लेकर निर्देशक द्वय और अभिनेता- सब बिहारी हैं। हालाँकि भाषा हिंदी है लेकिन संवाद अदायगी के अंजाज में बिहारीपन है। बिहारीपन भी पटनावाला। दर्शक शुरू में संक्षिप्त रूप से पाटलिपुत्र का इतिहास भी जान लेता है। बोनस के रूप में।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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