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भारंगम 2025: आगरा बाज़ार- ये 'नजीर-महिमा' भी है और 'हबीब-महिमा' भी

जब हबीब तनवीर (1923- 2009) का निधन हुआ तो सभी नाट्य प्रेमियों के मन में ये प्रश्न था कि अब उनके उन नाटकों का क्या होगा जिनको उन्होंने निर्देशित किया था। `आगरा बाज़ार’, `चरणदास चोर’, `हिरमा की अमर कहानी’ जैसे नाटकों की आगामी प्रस्तुतियों के भविष्य को लेकर नाट्य प्रेमियों के मानस पटल पर सवाल छाए हुए थे। वैसे भी हिंदी में नाट्य प्रस्तुतियों की उम्र कम होती है। अमूमन दस, बीस, पचास शो हो जाएँ तो हिंदी में बहुत बड़ी चीज मानी जाती है। सौ हो जाएँ तो क्या कहना! और जब निर्देशक नहीं रहता, उसका निधन हो जाता है तो उसके द्वारा निर्देशित नाटक लगभग बंद हो जाते हैं। इसलिए ये संदेह स्वाभाविक था कि अब हबीब साहब के नाटकों और उनकी रंगमंडली `नया थिएटर’ का क्या होगा?

पर इस बार के भारंगम में जब नाट्यप्रेमियों ने `आगरा बाज़ार’ देखा तो सबके मन में तसल्ली का भाव उठा कि ये नाटक अपना पुराना जादू बरकरार रखे हुए है। हबीब साहब के सहयोगी रामचंद्र सिंह ही अब `नया थिएटर’ के मुख्य कर्ताधर्ता हैं, यानी निर्देशक हैं, और `आगरा बाज़ार’ पर निर्देशकीय नियंत्रण उनका ही है, हालाँकि बतौर निर्देशक नाम हबीब तनवीर का ही जाता है। ये उचित ही है क्योंकि इसके बहाने हबीब तनवीर अशरीरी तौर पर ही सही, हमारे बीच बने रहते हैं।

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ये नाटक पहली बार 1954 में खेला गया था। उस हिसाब से इसके 71 साल हो चुके हैं। शायद ये हिंदी का सबसे दीर्घजीवी नाटक है। चार साल बाद ये पचहत्तर साल का हो जाएगा। प्लैटिनम जुबली की ओर।

`आगरा बाज़ार’ एक जादू है। इसका जादू इस बार भी कमानी सभागार में दिखा। और इस जादू में किसी तरह की हाथ की सफ़ाई नहीं है। किसी तरह की भव्यता नहीं है। पर इसमें साधारणता का सौंदर्य है। ये तो सर्वविदित सा है कि ये नाटक उर्दू के लोकप्रिय शायर नजीर अकबराबादी (1735 - 1830) के जीवन और साहित्य पर केंद्रित है। ये नजीर की शख्सियत का बखान है। पर साथ ही ये हबीब तनवीर की महिमा का बखान भी है। नजीर अकबराबादी के बारे में उर्दू के लोग जानते हैं उन्होंने सामान्य लोगों पर शायरी लिखी, ककड़ी, तरबूजों और लड्डू पर लिखी, होली पर नज़्म लिखे। आदमी का महानता पर लिखा।

जैसा कि हर साहित्यिक दुनिया में होता है- एक काव्यशास्त्र विकसित होता है और अच्छी कविता क्या है इसके लक्षण निर्धारित कर दिए जाते हैं। नजीर अकबराबादी के समय भी ऐसा था और तब के उर्दू अदब के लोगों के बीच मीर तकी मीर और जौक की शायरी को ऊँचा दर्जा दिया जाता था। जब नजीर उर्दू साहित्य जगत में आए तो शुरू में लोगों ने उनको स्वीकार नहीं किया। हिकारत से देखा। 
भला ककड़ी या लड्डू पर शायरी लिखने वाला एक बड़ा शायर कैसे माना जा सकता है? लेकिन नजीर आगे चलकर एक बड़े शायर के रूप में पहचाने और सराहे गए। और उनकी शायरी के सौंदर्यशास्त्र को भी सराहा गया।
`आगरा बाज़ार’ एक काव्यशास्त्रीय बहस भी है। पर शास्त्रीय शब्दावली में नहीं। आम लोगों की जुबान में। जिस शायर या कवि को आम लोग पसंद करें, उसकी शायरी को अपने रोजमर्रा के जीवन में ढाल लें, वो भी एक बड़ा शायर है। इस नाटक में यही कहा गया है। इसमें एक छोटा-मोटा ककड़ी बेचने वाला चाहता है कि कोई उसकी ककड़ियों पर शायरी लिख दे। फिर उसकी ककड़ी बिकने लगेगी। पर एक साधारण दुकानदार की ये ख्वाहिश कौन पूरा करे? शहर के नामचीन शायरों को इसे तरह की मांग पसंद नहीं। लेकिन जब वो नजीर के पास जाता है वो लिख देते हैं। और भी लोगों के लिए लिख देते हैं जो बाजार में अपने सामान बेचना चाहते हैं।
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कविता के प्रेमी सौंदर्य के रसिक होते हैं। उनको लगता है कि आम लोग कविता का क्या समझेंगे। लेकिन हकीकत ये है आम लोगों में भी कविता के लिए लगाव होता है। पर वे अपने दैनंदिन ज़िंदगी के दायरे में कविता या कला को समझना चाहते हैं। उनकी कविता से मांगें होती हैं। जो कविता ये मांग पूरी कर दे वो उनको अपनी ओर अच्छी लगने लगती है। इस तरह `आगरा बाज़ार’ कविता की एक परिभाषा पेश करता है। ये परिभाषा अकादमिक नहीं है, विद्वानों की भाषा में नहीं है, लेकिन एक मुकम्मल परिभाषा है। हिंदी में नागार्जुन जैसे कवियों की रचनाएँ काव्यशास्त्रीय मानंदडों से बाहर जाकर लिखी गईं और फिर आरंभिक उपेक्षा के बाद सर्वस्वीकृत हुईं।

नाटक की दुनिया में हबीब तनवीर ने वही काम किया जो कविता या शायरी की दुनिया में नजीर अकबराबादी ने किय़ा। `आगरा बाज़ार’ नाटक में ये शुरू से अंत तक दिखता है कि बड़ा नाटक किसी धीरोदात्त या धीरललित नाटकों के इर्दगिर्द ही नहीं लिखा जाता है। 

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नाटक उस मदारी और उसके बंदरों के बारे में भी हो सकता है जो दो पैसे के लिए किसी चौराहे पर रखकर खेल दिखाता है और फिर कुछ ताक़तवर लोगों द्वारा दुत्कारा और भगाया भी जाता है। ये उस असफल प्रेमी के बारे में भी हो सकता है जो अब बोलना बंद कर चुका है। नाटक में वे उभयलिंगी भी किरदार हो सकते हैं जो अपने जीवन में कभी सम्मान नहीं पाते। हालाँकि अब हम उस दौर में पहुंच गए हैं जब उभलिंगियों पर फ़िल्में और वेब सीरीज बन रही हैं। लेकिन जब `आगरा बाज़ार’ तैयार हो रहा था (ये कई चरणों में बना) तब ऐसी स्थिति नहीं थी।

ये हबीब तनवीर की ही महिमा है कि ऐसे अतिसाधारण लोग मंच पर आए और अब दूसरे नाटकों में भी आ रहे हैं। इसी कारण ये नाटक अपने में क्लासिक बन गया है। नाट्यालेख के रूप में भी और नाट्य-प्रस्तुति के रूप में भी। हबीब तनवीर की प्रतिष्ठा एक नाट्य निर्देशक के रूप में है। लेकिन वे नाटककार भी थे। `आगरा बाज़ार’ भी इसका एक उदाहरण है और `चरणदास चोर’ भी। उनके दूसरे नाटक भी।

बतौर नाट्य प्रस्तुति `आगरा बाज़ार’ एक विरासत है। इसे अंग्रेजी में `इनटैंजिबल’ धरोहर कहते हैं। बे-ठोस विरासत। ये सिर्फ़ हिंदी की धरोहर नहीं, बल्कि भारतीय नाट्य जगत की धरोहर है। भारत सरकार को चाहिए कि इसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित करे। इसका व्यावहारिक अर्थ ये होगा कि इसका लगातार मंचन होता रहे, इसकी व्यवस्था की जाए।

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रवीन्द्र त्रिपाठी
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