मोहन राकेश (1925- 1972) का `आधे अधूरे’ एक ऐसा नाटक है जो आधुनिक हिंदी रंगमंच को एक नए भावबोध से भरनेवाला रहा है। वैसे तो राकेश के अन्य दो नाटक- `लहरों के राजहंस’ और `आषाढ़ का एक दिन’ भी आधुनिक भारतीय और हिंदी रंगमंच की उपलब्धियाँ हैं। पर `आधे अधूरे’ इन दोनों से इसलिए अलग और विशिष्ट है कि इसमें आधुनिक व समकालीन जीवन की ध्वनियाँ और अनुगूंजें हैं।
मोहन राकेश के `आधे अधूरे’ की अद्वितीयता
- विविध
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- रवीन्द्र त्रिपाठी
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- 21 Feb, 2025


रवीन्द्र त्रिपाठी
मोहन राकेश के नाटक 'आधे अधूरे' का भारतीय रंगमंच में महत्वपूर्ण योगदान है। यह नाटक पारिवारिक संघर्ष, सामाजिक असंतोष और यथार्थवाद को गहराई से उजागर करता है। जानिए इसकी अद्वितीयता।
`लहरों के राजहंस‘ और `आषाढ़ का एक दिन’ - दोनों के मूल में प्राचीन-ऐतिहासिक-मिथकीय जीवन है। `आधे अधूरे’ में आज की जीवन स्थितियां हैं। पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन आंशिक रूप से इसे नॉर्वेजियाई नाटककार हेनरिक इब्सन के नाटक `द डाल्स हाउस’ की मनोभूमि से जोड़ा जा सकता है। `द डाल्स हाउस’ में आधुनिक यूरोप के पारिवारिक जीवन, पति- पत्नी के संबंधों में तनाव व एक स्त्री के स्वतंत्र फ़ैसले का स्वर मुखरित हुआ था। `आधे अधूरे’ की स्त्री उस फ़ैसले तक नहीं पहुंच पाती। वजह यूरोप और भारत की भिन्नता है। तमाम दबावों के बावजूद भारतीय परिवार विघटित नहीं हुआ है। इसलिए `आधे अधूरे’ की सावित्री चाहकर भी घर नहीं छोड़ पाती।