मोहन राकेश (1925- 1972) का `आधे अधूरे’ एक ऐसा नाटक है जो आधुनिक हिंदी रंगमंच को एक नए भावबोध से भरनेवाला रहा है। वैसे तो राकेश के अन्य दो नाटक- `लहरों के राजहंस’ और `आषाढ़ का एक दिन’ भी आधुनिक भारतीय और हिंदी रंगमंच की उपलब्धियाँ हैं। पर `आधे अधूरे’ इन दोनों से इसलिए अलग और विशिष्ट है कि इसमें आधुनिक व समकालीन जीवन की ध्वनियाँ और अनुगूंजें हैं।
`लहरों के राजहंस‘ और `आषाढ़ का एक दिन’ - दोनों के मूल में प्राचीन-ऐतिहासिक-मिथकीय जीवन है। `आधे अधूरे’ में आज की जीवन स्थितियां हैं। पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन आंशिक रूप से इसे नॉर्वेजियाई नाटककार हेनरिक इब्सन के नाटक `द डाल्स हाउस’ की मनोभूमि से जोड़ा जा सकता है। `द डाल्स हाउस’ में आधुनिक यूरोप के पारिवारिक जीवन, पति- पत्नी के संबंधों में तनाव व एक स्त्री के स्वतंत्र फ़ैसले का स्वर मुखरित हुआ था। `आधे अधूरे’ की स्त्री उस फ़ैसले तक नहीं पहुंच पाती। वजह यूरोप और भारत की भिन्नता है। तमाम दबावों के बावजूद भारतीय परिवार विघटित नहीं हुआ है। इसलिए `आधे अधूरे’ की सावित्री चाहकर भी घर नहीं छोड़ पाती।
ये पृष्ठभूमि इसलिए कि पिछले हफ्ते राकेश के इस नाटक की चार प्रस्तुतियाँ हुईं। एक तो भारंगम (भारत रंग महोत्सव) के दौरान कमानी ऑडिटोरियम में और फिर तीन रानावि (राष्ट्रीय नाटय विद्यालय) के अभिमंच प्रेक्षागृह में। इस नाटक के साथ ऐसा सलूक दो वजहों से हुआ। एक तो मोहन राकेश की जन्मशती शुरू हुई है और दूसरे रानावि के रंगमंडल ने इसे आखिरी बार त्रिपुरारी शर्मा के निर्देशन में खेला था और उनको मरणोत्तर सम्मान भी देना था। त्रिपुरारी जी रानावि से जुड़ी थीं और यहां पढ़ाती थीं। उनका कुछ समय पहले निधन हो गया। इसलिए उनकी स्मृति को रेखांकित करने के लिए उनके द्वारा निर्देशित प्रस्तुति को फिर से मंचित किया गया। हालाँकि कुछ किरदार बदले गए। लेकिन इस नाटक के प्रमुख निभानेवाले दो अभिनेता वही थे जो कई साल पहले हुए त्रिपुरारी शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक में भी थे - रवि खानविलकर और प्रतिमा काजमी। जिन लोगों ने पुरानी प्रस्तुति को भी देखा है उनके लिए ये स्मृति -यात्रा भी थी और नए दर्शकों के लिए एक क्लासिक हिंदी नाटक की खासियत को समझने का अवसर भी।
`आधे अधूरे’ में प्रमुख स्त्री पात्र है सावित्री। प्रतिमा काजमी ने इसी भूमिका को निभाया था और है। शानदार तरीक़े से। सावित्री एक मध्यवर्गीय परिवार की औरत है। कामकाजी। नौकरी करती है और उसी से घर चलता है। उसका पति महेंद्र नाथ बेकार है। कमाता धमाता नहीं। इसीलिए घर में उसकी कोई हैसियत नहीं है। सावित्री और महेंद्र नाथ के तीन बच्चे हैं- एक पुत्र और दो पुत्रियाँ। लड़का भी बेकार है। घर पर बैठा रहता है और अख़बारों और पत्रिकाओं में से अभिनेत्रियों के फोटो काटकर रखता जाता है। बड़ी बेटी अपने मन से शादी कर चुकी है लेकिन ससुराल में खुश नहीं है। छोटी लड़की स्कूल में पढ़ रही है।
राकेश का ये नाटक दो वजहों से हिंदी रंगमंच के इतिहास में खास महत्व रखता है। एक तो इसमें उस मध्यवर्गीय भारतीय परिवार की चरमराहट है जो भारत की आज़ादी के बाद आर्थिक वजहों से आया था और जिसका भार स्त्री पर अधिक था।
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इस तरह का नाटक लिखने के कारण भी मोहन राकेश आधुनिक भारतीय नाटककारों में अग्रणी हैं। उन्होंने इस नाटक में अपने समय की आवाजों को सुना। कामकाजी महिलाओं की व्यथा को सुना, युवा लड़के-लड़कियों की परेशानियों को सुना, किशोर होती लड़की की यौन- उत्सुकता को भी सुना। और फिर रंगमंच के अभिनेता को एक चुनौती दी और कहा कि अगर दम है तो `आधे अधूरे’ की इस भूमिका को कर लो। मोहन राकेश जन्मसदी वर्ष में उनकी इस अद्वितीयता को समझा जाना चाहिए।
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