उत्तर प्रदेश से जुड़ा परिदृश्य देखें तो मई के आख़िरी सप्ताह में 5 घटनाएँ एक साथ घटित होती दिखती हैं। पहला, 'अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन' (आईएलओ) का प्रधानमंत्री को सख़्त चिट्ठी भेजकर यूपी सहित 6 राज्यों द्वारा किये गए श्रम क़ानूनों के निलंबन पर गहरी नाराज़गी जताना। दूसरा, केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा इन राज्यों को 'नोटिस' भेजकर श्रम क़ानूनों के निलंबन पर 'रोष' जताते हुए यह कहना कि श्रमिक सुधार के नाम पर ऐसे कोई क़ानून नहीं बनाए जा सकते हैं जो आईएलओ की उन 'कन्वेंशन' के विरुद्ध हो, भारतीय संसद जिस पर पहले ही मुहर लगा चुकी है। तीसरा, विभिन्न राज्यों से आने वाले 25 लाख से अधिक प्रवासी श्रमिकों का अपनी जन्मभूमि उप्र में आ धमकना। चौथा, यूपी के मुख्यमंत्री द्वारा प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार मुहैया करने के लिए हड़बड़ी में एक 'प्रवासी श्रमिक आयोग' के गठन किए जाने का एलान करना। और पाँचवाँ, उप्र के ही श्रम आयुक्त सुधीर महादेव बोबडे के एक वीडियो का वायरल हो जाना जिसमें वह अपने मातहतों को यह फटकार लगाते दिख रहे हैं कि किसी भी फ़ैक्ट्री या कंपनी में, वेतन भुगतान सम्बन्धी अनियमितता की शिकायत पर, कोई भी सहायक या उप श्रमायुक्त न एफ़आईआर दर्ज करवाएगा न कोई और क़ानूनी कार्रवाई करेगा, जब तक कि वे उनसे न पूछ लें।
प्रवासी श्रमिक आयोग के गर्भ में छिपी है योगी जी की कुण्डलिनी कला?
- उत्तर प्रदेश
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- 3 Jun, 2020

संभवतः योगी जी की 'किचन कैबिनेट' और इर्द-गिर्द के नौकरशाहों में बुनियादी उसूलों को न समझ सकने वाले ऐसे लोगों का जमावड़ा है जो यह भी नहीं सोच पाते कि आईएलओ की 'कंनवेंशन' अंतरराष्ट्रीय धरातल पर 'प्राथमिक' मान्यताओं वाली हैं और जिन पर अरसे से भारतीय संसद भी स्वीकृति की मुहर लगा चुकी है। नतीजा यह हुआ कि आईएलओ ने पलट कर ज़बरदस्त प्रतिक्रिया दी और तब भारत सरकार को दौड़ते-भागते हस्तक्षेप करना पड़ा।