उत्तर प्रदेश विधान मंडल का हालिया मानसून सत्र आहूत करना भले ही योगी शासन के लिए संवैधानिक मजबूरी रही हो, लेकिन 'माइक्रो' रूप में इसे निपटाना, बिना बहस और मतदान के चंद घंटों में 28 विधेयकों को ताबड़तोड़ तरीके से पारित करा देना, सदन के भीतर विरोधी दलों के अधिकांश सदस्यों को कुछ भी कहने की अनुमति न देना और न ही अपनी पार्टी के विधायकों को बोलने का मौक़ा देना, प्रेस गैलरी में पत्रकारों की 'एंट्री' को प्रतिबंधित कर देना, इसे राज्य के विधान मंडल इतिहास की ऐसी पहली घटना बना डालता है।
अधिकृत रूप से यद्यपि इस हड़बड़ी को कोरोना भय से जनित बता कर प्रचारित किया गया लेकिन प्रदेश की राजनीति के जानकार भय के मूल में मुख्यमंत्री और उनके निज़ाम के विरुद्ध पार्टी के भीतर तेज़ी से उभरते विद्रोही स्वरों को मानते हैं।
बीते सप्ताह गुरुवार को विधानमंडल के दोनों सदनों की बैठक कुछ विधायकों के आकस्मिक निधन के बाद अगले दिन के लिए स्थगित कर दी गई। शुक्रवार को पुनः शोक संदेशों के बाद बैठक इस संकल्प के साथ स्थगित कर दी गई कि समस्त विधिक कामकाज शनिवार को पूरे किए जाएंगे। गौरतलब है कि तीन दिन के इस सत्र में प्रेस दीर्घा सहित किसी भी दीर्घा में आमंत्रितों के प्रवेश की अनुमति नहीं थी।
जनता की तकलीफों का जिक्र नहीं
तीसरे और अंतिम दिन विधानसभा में एसपी, बीएसपी और कांग्रेस पर हमला बोलते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि “रोम की भाषा बोलने वाले भी अब राम-राम चिल्लाने लगे हैं। उन्हें पता है कि राम के नाम से ही वैतरणी पार होने वाली है।” मुख्यमंत्री को अंदाज़ा था कि कोविड 19 की समस्या से प्रदेश की जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है उसके बावजूद वह बोले, “जिस समय दुनिया कोविड-19 की चुनौतियों से जूझ रही है, उसी समय 492 वर्षों के बाद अयोध्या में भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर निर्माण का शुभारंभ होना गौरव की बात है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि निर्माण पूरा होते देखेंगे।”कैबिनेट मंत्री का दर्द
उधर, लॉबी में पार्टी के पचास विधायकों की मौजूदगी में औद्योगिक विकास मंत्री सतीश महाना ने बड़े भर्राये गले से कहा कि कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद मुझे मुख्यमंत्री से अपॉइंटमेंट नहीं मिलता है जबकि अखिलेश सरकार में, जबकि मैं बीजेपी का विधायक होता था, क्षेत्र की समस्याओं के लिए जब भी चाहा, न सिर्फ़ समय दिया गया बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव मेरी समस्याओं को सुनते थे, उनके निदान के प्रयास करते थे और अंत में मुझे चाय पिलाकर भेजते थे।
बीजेपी आलाकमान को इस घटना को इसलिए गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि सतीश महाना लगातार 7 बार के विधायक हैं और उनके इस बयान के बाद बीजेपी विधायकों की देर तक तालियां बजती रही थीं।
जनप्रतिनिधियों की ही सुनवाई नहीं
योगी शासन काल में बीजेपी के जन प्रतिनिधियों का प्रतिरोध-प्रदर्शन कोई नई घटना नहीं है। प्रदेश में बीजेपी सरकार के गठन के समय से ही प्रदेश के काबीना मंत्रियों, विधायकों, सांसदों, जिला पंचायत अध्यक्षों और नगर निगम के पार्षदों के भीतर यह भावना घर कर गई है कि योगी राज के अधिकारियों में जनप्रतिनिधियों द्वारा लाई गई शिकायतों की कोई सुनवाई नहीं होती। इसके लिए वह किसी और को नहीं, स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं।
हुआ यह था कि अपनी सरकार के गठन के कुछ ही दिनों बाद अधिकारियों की बैठक में मुख्यमंत्री ने स्पष्ट वक्तव्य जारी किया था कि "आप अपने विवेक से काम करें, विधायकों के दबाव में आने की ज़रूरत नहीं है।" प्रदेश भर के छोटे और बड़े अधिकारियों के लिए इतना संकेत काफी था।
विधानसभा में विधायकों का प्रदर्शन
हद तो तब हो गयी जब लगातार उपेक्षा से जूझते 100 से अधिक विधायकों ने बीते दिसम्बर में शीतकालीन सत्र में विधानसभा की कार्रवाई को घंटों तक चलने नहीं दिया था। हुआ यूं था कि लोनी (गाज़ियाबाद) के विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने अपने क्षेत्र के फ़ूड इंस्पेक्टर द्वारा उन्हें अपमानित किये जाने के सवाल को उठाना चाहा। विधायक की शिकायत थी कि उलटे फ़ूड इंस्पेक्टर ने उन्हें मुख्यमंत्री के साथ अपनी निकटता होने के चलते फटकारा। इतना ही नहीं फ़ूड इंस्पेक्टर की शिकायत पर थाना पुलिस ने विधायक को बुलाकर 5 घंटे तक थाने में बैठाये रखा।
पहली बार विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित ने गुर्जर को बोलने नहीं दिया और दूसरी बार जब वह फिर खड़े हुए तो संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना ने उन्हें बोलने से रोक दिया। इसके बाद हंगामा मच गया और बीजेपी और एसपी के विधायक 'वेल' में उतर आए और संबंधित विधायक को सुनने और उनकी समस्या का निदान करने की मांग करने लगे।
यूपी विधान मंडल के इतिहास की इस क़िस्म की यह पहली घटना थी जब सत्ता पक्ष और विपक्ष ने साथ मिलकर किसी मुद्दे पर सदन की गतिविधियों पर घंटों के लिए रोक लगा दी हो।
शाह के निर्देश भी बेअसर
इस घटना से 2 महीने पहले जब तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह लखनऊ के दौरे पर आये थे तब पार्टी विधायकों ने उनकी उपस्थिति में यह कह कर काफी शोरगुल मचाया था कि उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। इस पर शाह ने मुख्यमंत्री को इस मामले को गंभीरता से देखे जाने के निर्देश दिए थे लेकिन स्थितियां ज्यों की त्यों बनी रहीं।
सीएए प्रदर्शनकारियों का दमन
ऐसा माना जा रहा था कि आलाकमान की निगाहों में योगी का क़द कमज़ोर हो रहा है लेकिन तभी 'नागरिकता संशोधन क़ानून' (सीएए) और इससे जुड़े विवाद आ खड़े हुए। योगी सरकार और उनके अफ़सरों और पुलिस मशीनरी ने प्रदेश में जिस क्रूर तरीके से इसका दमन किया, उसकी मिसाल और कहीं नहीं मिलती। दमन में मिली कामयाबी के चलते योगी ने न सिर्फ़ अपनी पार्टी के भीतर के बाग़ियों के स्वर शांत कर दिए, बल्कि आलाकमान की 'गुडबुक' में भी अपनी एंट्री करवा ली।
'सीएए' में मिले 'गुड वर्क' के सर्टिफिकेट का नतीजा यह हुआ कि जिस नौकरशाही व पुलिस के ख़िलाफ़ अभी तक बीजेपी के जनप्रतिनिधि हो-हल्ला मचा रहे थे, वह और भी बेख़ौफ़ और तानाशाह हो गई।
प्रशासनिक मशीनरी बेपरवाह
पूरे लॉकडाउन और कोरोना काल का आलम यह है कि प्रशासनिक मशीनरी जिस तरह बेपरवाह हो गयी और जनप्रतिनिधियों के प्रति उनके दायित्व काफ़ूर हो गये उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसका एक ही उदाहरण काफ़ी है। आगरा में कोरोना के बिगड़ते हाल पर मेयर नवीन जैन (बीजेपी) ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर ज़िलाधिकारी को तुरंत हटाने की मांग करते हुए प्रार्थना की कि “आगरा को वुहान होने से बचाइए।” इस चिट्ठी के पक्ष में आगरा के सभी 9 विधायक, 2 सांसद, ज़िला पंचायत प्रमुख (सारे बीजेपी) थे। ज़िलाधिकारी को बदलना तो दूर, मुख्यमंत्री ने मेयर, विधायकों और सांसदों को सरकार को बदनाम करने का आरोप लगाते हुए जमकर फटकारा।
कैबिनेट मंत्री चौहान की उपेक्षा
प्रदेश में कोरोना के ख़िलाफ़ जंग में किस तरह की लापरवाही चल रही है, इसका उदाहरण देते हुए एसपी के एमएलसी सुनील यादव 'साजन' ने हाल ही में कैबिनेट मंत्री चेतन चौहान की संजय गांधी पीजीआई में हुई ज़बरदस्त उपेक्षा पर विधान परिषद के मानसून सत्र में बवाल काटा। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, मेरे 4 बार सैम्पल भरे गए, कभी उस पर लेबल गलत लगा, कभी वह खो गए और इस तरह लगातार होने वाली उपेक्षा से आजिज़ आकर मैं लिख कर दे आया और 'होम क्वारेन्टीन' के लिए घर आ गया।
विधायक साजन ने बताया कि चेतन चौहान उनके बगल वाले केबिन में थे, उनसे अस्पताल का स्टाफ़ कभी पूछता था कि चेतन कौन है? जब उन्होंने बताया कि वह मंत्री हैं तो पूछा गया- कहाँ का मंत्री। विधायक ने कहा कि अपने राजनीतिक जीवन में सरकारी अस्पतालों में कैबिनेट मंत्री और विधायकों को इस तरह अपमानित होते उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था।
साजन के इस बयान से राज्य भर में हुई योगी सरकार की ज़बरदस्त किरकिरी का नतीजा है कि एक दिन बाद ही स्व. चौहान की पत्नी का लखनऊ के एक दैनिक में एक स्पष्टीकरण यह कहते हुए प्रकाशित करवाया गया कि "ऐसी उपेक्षा हुई होती तो मेरे पति मुझे अवश्य बताते।"
फ़ेसबुक पर बयां कर रहे दर्द
बीजेपी के भीतर शिकायतों के लिए कैसे सारे आंतरिक चैनल बंद कर दिए गए हैं और कैसे इस मजबूरी पर जनप्रतिनिधियों को सोशल मीडिया की शरण में जाना पड़ रहा है, इसके लिए कुछ उदाहरण ही काफ़ी हैं। हरदोई से बीजेपी सांसद जयप्रकाश ने हाल ही में फेसबुक पर अपने गुस्से को जताते हुए लिखा "मैंने अपने 30 साल के राजनीतिक जीवन में अधिकारियों की ओर से ऐसी बेरुख़ी कभी नहीं देखी।"
सांसद आगे लिखते हैं कि उन्होंने सांसद निधि को कोरोना के लिए दान में दिया लेकिन उनके बार-बार लिखने के बावजूद सरकारी अस्पताल में वेंटिलेटर नहीं खरीदे गए। सांसद ने लिखा था, "मेरी निधि की राशि कहाँ गयी, मुझे ही नहीं मालूम। प्रदेश में भ्रष्टाचार चरम पर है।"
जनप्रतिनिधियों की हालत यह है कि बस्ती के बीजेपी एमपी और एमएलए के ख़िलाफ़ ही "फर्जी" मुक़दमे लाद दिए गए हैं। आलम यह है कि काबीना बैठकों में मंत्रीगण चीख-पुकार मचाते रहते हैं कि उनका विभागीय प्रमुख सचिव उनकी ही नहीं सुनता।
यूपी से आने वाले केंद्र सरकार के मंत्री भी मुख्यमंत्री के सामने राज्य के मुख्य सचिवों द्वारा उनकी शिकायतों पर अमल न किये जाने की शिकायत करते रहते हैं लेकिन मुख्यमंत्री मौन साधे रहते हैं।
प्रदेश बीजेपी में स्थितियां ध्वंस के कगार पर हैं। विधायक यह मान कर चल रहे थे कि विधान मंडल सत्र में इन सारी कुव्यवस्थाओं पर योगी सरकार को घेरेंगे। योगी बीते दिसम्बर में बीजेपी और विपक्ष द्वारा संयुक्त रूप से विधानसभा को ठप करने की कार्रवाई को अभी भूले नहीं हैं। ज़ाहिर है ऐसी स्थिति होती तो आलाकमान की नज़रों में उनके नम्बर घटते, लिहाज़ा इस बार 'कोरोना' की जय बोलकर उन्होंने सदन को ही इतना छोटा कर दिया कि वहाँ विरोध का कोई स्वर ही न उठ सके। सवाल है कि ऐसा वह कब तक कर पाएंगे?
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