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हैदराबाद के सांसद असदउद्दीन ओवैसी ने एलान किया है कि उनकी पार्टी एआईएमआईएम उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। उनके इस एलान के बाद आशंका जताई जाने लगी है कि क्या ओवैसी के उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने से हिंदू-मुसलिम मतों का ध्रुवीकरण होगा?
ओवैसी ने ट्वीट कर कहा है कि एआईएमआईएम ने उम्मीदवारों के चयन का काम शुरू कर दिया है और इसके लिए एप्लिकेशन फ़ॉर्म भी जारी कर दिए हैं। ओवैसी ने कहा कि उनकी पार्टी भागीदारी संकल्प मोर्चा के बैनर के साथ चुनाव लड़ेगी।
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने भागीदारी संकल्प मोर्चा को क़ायम किया है और ओवैसी के साथ कुछ रैलियां भी की हैं। राजभर ने भागीदारी संकल्प मोर्चा के तहत 9 दलों को जोड़ा है और वह कांग्रेस, बीएसपी, एसपी को पीछे छोड़ते हुए बीजेपी से सीधे मुक़ाबले में आना चाहते हैं, जो कि इतना आसान नहीं है।
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 17-19 फ़ीसदी है और कई सीटों पर वे निर्णायक स्थिति में हैं। ऐसे में ओवैसी को उम्मीद है कि वे भागीदारी संकल्प मोर्चा के साथ मिलकर बिहार की ही तरह यहां भी कुछ सीटें झटक सकते हैं।
बिहार के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम को 5 सीटें मिलने और ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में बीजेपी के पूरा जोर लगाने के बाद भी अपनी सीटें बरकरार रखने वाले ओवैसी सियासी विस्तार में जुटे हुए हैं।
ओवैसी की चाहत उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में एआईएमआईएम को खड़ा करने की है। हालांकि पश्चिम बंगाल में उन्होंने जितना जोर-शोर से चुनाव लड़ने की तैयारी की थी, वैसा नहीं हो सका और उन्हें अपने क़दम पीछे खींचने पड़े थे। लेकिन उत्तर प्रदेश में ओवैसी पूरे दमख़म के साथ चुनाव लड़ना चाहते हैं। महाराष्ट्र में 2019 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी को 2 सीटों पर जीत मिली थी लेकिन बंगाल की ही तरह तमिलनाडु के हालिया विधानसभा चुनाव में वह खाली हाथ रहे थे।
बिहार चुनाव में ओवैसी के 5 विधायकों की जीत के बाद से ही उत्तर भारत के सेक्युलर मिजाज वाले दलों में खलबली का माहौल है। उनका आरोप है कि ओवैसी बीजेपी के एजेंट हैं और सेक्युलर मतों के बंटवारे का काम करते हैं।
बिहार चुनाव में हार के बाद कांग्रेस ने कहा था कि ओवैसी की वजह से सीमांचल के इलाक़े में उसके और आरजेडी के वोटों में सेंध लगी और महागठबंधन को खासा नुक़सान हुआ और इस वजह से एनडीए को सत्ता मिली जबकि ओवैसी इसके जवाब में कहते हैं कि मुल्क़ में जम्हूरियत है और यह उनका आइनी हक़ है कि उनकी पार्टी कहीं से भी चुनाव लड़ सकती है।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओवैसी की बातों या उनके बयानों का बीजेपी और दक्षिणपंथी संगठन हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने के लिए इस्तेमाल करते हैं और इसमें उन्हें सफलता भी मिलती है। उनका कहना है कि इससे सेक्युलर वोटों का बंटवारा हो जाता है और बीजेपी को फायदा मिलता है।
ओवैसी बीते कुछ सालों में मुसलिम तबक़े के बीच खासे लोकप्रिय हुए हैं। वह लंदन से वकालत की पढ़ाई कर चुके हैं। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी जुबान पर उनकी अच्छी पकड़ है। राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले, तीन तलाक़, सीएए, एनआरसी के मुद्दों पर ओवैसी ने बाकी सेक्युलर दलों के नेताओं से ज़्यादा ताक़त के साथ आवाज़ उठाई है और कहा जाता है कि इन मुद्दों पर लगभग ख़ामोश रहने की वजह से मुसलमानों का सेक्युलर राजनीति करने वाले दलों से मोहभंग हो चुका है।
उत्तर प्रदेश में मुसलिम मतदाता भी ऐसा सियासी रहनुमा चाहते हैं जो सेक्युलर राजनीति करने के साथ ही उनके मसलों पर खुलकर बोले न कि ख़ामोशी अख़्तियार कर ले।
ओवैसी-राजभर सहित कुछ और छोटे दल मिलकर चुनाव लड़ने को तैयार हैं और इन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। ओमप्रकाश राजभर जहां अति पिछड़ों के साथ ही दलित समाज के हक़ की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं, वहीं ओवैसी मुसलमानों के बीच में पैठ बढ़ाने में जुटे हैं।
उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की 17-19 फ़ीसदी, पिछड़ों की 41 फ़ीसदी और दलितों की 21 फ़ीसदी आबादी है। ऐसे में यह गठबंधन इन मतों में कुछ हद तक सेंध लगाने में सफल रहा तो एसपी, बीजेपी और बीएसपी का खेल ज़रूर बिगाड़ सकता है और कहना ज़रूरी होगा कि इसका सीधा फ़ायदा बीजेपी को होगा।
कांग्रेस, एसपी और बीएसपी को डर इसी बात का है कि ओवैसी के आने से कहीं मुसलिम मतदाता उनकी ओर चले गए और दूसरी ओर बीजेपी हिंदू मतों के ध्रुवीकरण में सफल रही तो इससे उन्हें चुनाव में नुक़सान तो होगा ही, उनकी राजनीतिक ज़मीन भी यहां ख़त्म हो जाएगी। इसलिए वे लगातार ओवैसी पर हमलावर रहे हैं।
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