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आरएसएस की विचारधारा के धुर विरोधी थे नेताजी सुभाषचंद्र बोस

नेता जी सुभाषचंद्र बोस की 126वीं जयंती ज़ोर-शोर से मनाने में जुटे आरएसएस को नेता जी की बेटी अनिता बोस का यह बयान बुरी तरह खला है कि ‘उनके पिता आरएसएस की विचारधारा के आलोचक थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे लेकिन एक सेक्युलर भारत चाहते थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे। आरएसएस और नेता जी की विचारधार दो अलग छोर पर खड़ी है।‘

इन दिनों जर्मनी में रह रहीं नेता जी की अर्थशास्त्री बेटी अनीता बोस ने कहा, 'जहां तक विचारधारा का सवाल है, देश की किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में नेताजी की कांग्रेस के साथ बहुत अधिक समानता है।'इसके जवाब में आरएसएस के पूर्व क्षेत्र संचालक अजय नंदी ने कहा है कि आरएसएस ने हमेशा देश के महान नेताओं का जन्मदिन मनाया है। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि नेता जी आरएसएस की विचारधारा के विरोधी थे।

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यक़ीनन आरएसएस नेता जी की मूर्तियों पर माला पहनाकर और उनके जन्मदिन पर जश्न मनाकर नेता जी के विचारों को छिपाना चाहता है। वह सरदार पटेल के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस को भी हड़पने की विरासत को भी हड़पने की कोशिश मे है। इस तरह वह आज़ादी के आंदोलन से अलग रहने की अपनी झेंप मिटाने की कोशिश कर रहा है। नेता जी के जीवन और विचार इतने स्पष्ट रूप से सामने हैं कि उसकी ये कोशिश हास्यास्पद लगती है।

सुभाषचंद्र बोस ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया था जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। इसमें राजनीति में धर्म के इस्तेमाल के प्रति उनका ग़ुस्सा बेहद स्पष्ट है। उन्होंने कहा था-

हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।


-नेताजी सुभाष चंद्र बोस, 12 मई 1940 सोर्सः आनंद बाजार पत्रिका

1937 में सावरकर के हिंदू महासभा के अध्यक्ष बनने के बाद नेता जी ने जिस तरह उनकी अंग्रेज़परस्ती की आलोचना की थी वह रिकॉर्ड पर है। उन्होंने 1938 में बतौर कांग्रेस अध्यक्ष हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्यों की कांग्रेस में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी जो आज तक जारी है। यह सांप्रदायिक आधार पर राजनीति करने वालों के प्रति उनके रवैये का स्पष्ट उदाहरण है।

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तो नवंबर 1944 में टोक्यो विश्वविद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच दिया गया उनका भाषण है जिसमें उन्होंने अपने सपनों के भारत का ख़ाक़ा खींचा था। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित नेताजी संपूर्ण वाङ्मय में यह भाषण  ‘भारत की मूलभूत समस्याएँ’ शीर्षक से संकलित है। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की इच्छा रखने वालों को नेता जी का यह विचार ग़ौर से पढ़ना चाहिए। इस भाषण में उन्होंने कहा था-  

भारत में कई धर्म हैं। अत: आज़ाद भारत की सरकार का रुख सभी धर्मो के प्रति पूरी तरह तटस्थ और निष्पक्ष होना चाहिए और उसे यह चुनाव प्रत्येक व्यक्ति पर छोड़ देना चाहिए कि वह किस धर्म को मानता है।”


-नेताजी सुभाष चंद्र बोस, नवंबर 1944 टोक्यो यूनिवर्सिटी में

यही नहीं, कई लोगों के लिए शायद यह अचरज की बात हो, लेकिन इस भाषण में नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने लोकतंत्र नहीं अधिनायकवाद की वक़ालत की थी। उन्होंने कहा था- “यदि हम एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था बनाना चाहते हैं जिसका स्वरूप समाजवादी हो तो यह भी सच है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था ऐसी हो कि वह हमारे आर्थिक कार्यक्रम को सबसे अच्छी तरह चला सके। यदि राजनीतिक व्यवस्था को समाजवादी आधार पर आर्थिक सुधार कार्यक्रम चलाने हैं तो फिर आपका काम एक तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था से नहीं चल सकता। अत: हमारी राजनीतिक व्यवस्था, हमारे राज्य का स्वरूप अधिनायकवादी होगा। हमें भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं का कुछ अनुभव है और हमने फ्रांस, इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था के काम का भी अध्ययन किया है। हम इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से हम आज़ाद भारत की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। इसलिए भारत में आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा एक ऐसे राज्य के पक्ष में है जिसका स्वरूप अधिनायकवादी हो, जो आम जनता का सेवक हो, जो आम जनता के लिए काम करे और चंद अमीर व्यक्तियों का गुट न हो।”

नेता जी के ये विचार कांग्रेस से निकलते ही सामने आने लगे थे। उन्होंने फ़ारवर्ड ब्लाक में जो हस्ताक्षरित संपादकीय लिखा था उसमें एक मार्क्सवादी पार्टी बनाने की योजना सामने रखी थी। उन्होंने लिखा था कि ‘आमतौर पर यह अनुभव किया गया कि कांग्रेस के सभी प्रगतिशील, उग्र सुधारवादी और साम्राज्यवाद विरोधी लोगों की, जो समाजवादी या कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने को तैयार नहीं हैं, समान न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर संगठित किया जाना चाहिए। साथ ही मैंने अनुभव किया कि केवल इसी तरीके से दक्षिणपक्ष के आघात का प्रतिवाद किया जा सकता है तथा एक ‘मार्क्सवादी पार्टी’ के विकास की जमीन तैयार की जा सकती है।’ (फारवर्ड ब्लॉक की भूमिका, 12 अगस्त 1939, पेज नंबर 6, नेता जी संपूर्ण वांङ्मय, खंड 10, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)
बिहार के रामगढ़ में 19 मार्च 1940 को ‘अखिल भारतीय समझौता विरोधी सम्मेलन’ का अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने कहा- ‘इस समय की समस्या है- क्या भारत अब भी दक्षिणपंथियों के वश में रहेगा या हमेशा के लिए वाम की ओर बढ़ेगा? इसका उत्तर केवल वामपंथी स्वयं ही दे सकते हैं। अगर वे सभी खतरों, कठिनाइयों और बाधाओं की परवाह किए बिना साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने संघर्ष में निर्भीक रहने और समझौता न करने की नीति अपनाते हैं तो वामपंथी नया इतिहास रचेंगे और पूरा भारत वाम हो जाएगा।’  (पेज नंबर 94, नेता जी संपूर्ण वाङ्मयखंड 10, प्रकाशन विभागभारत सरकार)

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क्या अब भी किसी को शक़ हो सकता है कि नेताजी और आरएसएस की विचारधारा दो छोर पर हैं। अनिता बोस ने जो कहा है, उसमे क्या ग़लत है?याद रखिये, नेताजी भारत में अधिनायकवाद चाहते थे। वे नेहरू की तरह लोकतांत्रिक नहीं थे जो आरएसएस पर बैन हट जाने देते। नेता जी होते तो आरएसएस होता ही नहीं।(लेखक पंकज श्रीवास्तव कांग्रेस से जुड़े है)  
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पंकज श्रीवास्तव
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