- तमिलनाडु में हुए गठबंधन से साफ़ है कि बीजेपी को एनडीए के लिए नए साथी चाहिए और एआईएडीएमके के नेता जयललिता के निधन से बनी अनिश्चितता की स्थिति में कोई जोख़िम नहीं उठाना चाहते हैं।
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में थी, अब केंद्र में सत्ता होने के बावजूद 39 में से 5 सीटों पर राजी होकर छोटे भाई की भूमिका में आ गई है। बीजेपी इसी बात का दम भर रही है कि राज्य में सत्ताधारी पार्टी उसके साथ है।
कांग्रेस को 7 सीटों की पेशकश
बीजेपी और एआईएडीएमके के बीच क़रार हो जाने के बाद डीएमके के अध्यक्ष स्टालिन ने कांग्रेस को तमिलनाडु की 39 में से 7 सीटों की पेशकश की है। सूत्रों के मुताबिक़, डीएमके के रणनीतिकारों को लगता है कि तमिलनाडु में अब कांग्रेस का जनाधार बचा ही नहीं है और उसे सिर्फ़ डीएमके से गठबंधन करके ही फ़ायदा होगा।
डीएमके को यह भी लगता है कि जिस तरह से कांग्रेस से गठजोड़ और सीटों के बंटवारे से उसे पिछले विधानसभा में नुक़सान हुआ था, अगर कांग्रेस को ज़्यादा सीटें दी गईं तो उसी तरह का नुक़सान लोकसभा चुनाव में भी हो सकता है। सूत्रों की मानें तो कांग्रेस कम से कम 12 सीटें माँग रही है लेकिन फिलहाल डीएमके 7 से ज़्यादा सीटें देने को तैयार नहीं है।
डीएमके को वापसी की उम्मीद
बीजेपी को उसके गठबंधन में मिली सीटों का हवाला देते हुए डीएमके कांग्रेस को 7 पर मनाने की कोशिश करेगी। डीएमके का यह भी मानना है कि तमिलनाडु में उसका पलड़ा भारी रहने वाला है क्योंकि सत्ता विरोधी लहर है। डीएमके के मुताबिक़, सत्ता विरोधी लहर सिर्फ़ राज्य सरकार के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि केंद्र सरकार के खिलाफ़ भी है, ऐसे में लोग उसी को चुनेंगे। ऐसे में डीएमके के कोटे से दूसरों को सीट देने का मतलब इन सीटों पर जीत की संभावना को कम करना।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, बीजेपी और कांग्रेस के रणनीतिकारों के लिए यह बात हजम करना मुश्किल होगा कि तमिलनाडु में उन्हें क्षेत्रीय पार्टियों से सीटों के लिए मान-मनुहार करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र में भी बीजेपी को शिवसेना से क़रार करना ही पड़ा।
बता दें कि चंद्रबाबू नायडू, उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी का साथ छोड़ चुके हैं। कश्मीर में ख़ुद बीजेपी ने महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी का साथ छोड़ दिया था। वहीं, उत्तर प्रदेश में गठबंधन करते हुए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस को कोई तवज्जो नहीं दी। यानी, कहीं न कहीं क्षेत्रीय पार्टियों को राष्ट्रीय पार्टियों से डर लगता है क्योंकि इन्हीं का वोट काटकर राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियाँ बढ़ सकती हैं।
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