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एक शोभायात्रा के दौरान की तसवीर।

धार्मिक जुलूस में गालियाँ देने वालों को रवीश कुमार का प्रशंसा-पत्र!

मेरे प्यारे हिन्दी मीडियम के युवाओं,

धार्मिक जुलूस में आपको उलछते-कूदते देख अच्छा लग रहा है। जिस हिन्दी भाषी समाज ने आप हिन्दी मीडियम वालों को किनारे सरका दिया था, उस समाज की मुख्यधारा में आप लौट आए हैं। क्या शानदार वापसी की है। एक रंग की पोशाक पहन ली है, हाथों में तलवारें हैं, ज़ुबान पर गालियां हैं। जुलूस का नाम रामनवमी की शोभा यात्रा है। अशोभनीय हरकतों को आप लोगों ने आज के दौर में सुशोभित कर दिया। आपकी इस कामयाबी को मैंने कई वीडियो में देखा तब जाकर सारी शंकाएं दूर हो गईं कि ये वही हैं, हमेशा फेल माने जाने वाले हिन्दी मीडियम के युवा, जिन्हें समाज ने तिरस्कार दिया, आज धर्म रक्षक बनकर लौट आए हैं। इनके समर्थन में पूरा समाज खड़ा है। सरकार भी है।

मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि उन वीडियो में कोई डीपीएस या श्रीराम स्कूल जैसे महंगे पब्लिक स्कूलों के बच्चे भी रहे होंगे लेकिन देखने से तो यही लगा कि ज़्यादातर वही होंगे जो गणित और अंग्रेज़ी से परेशान रहते हैं। जिन्हें हिन्दी भी ठीक से लिखनी नहीं आती मगर गाली देने आती है। मैंने कई वीडियो में गालियों के उच्चारण सुने। एकदम ब्रॉडकास्ट क्वालिटी का उच्चारण था और ब्रॉडकास्ट हो भी रहा था। जिस समाज में उदारता कूट कूट कर भरी होती है उस समाज में उच्चारण भी कूट-कूटा कर साफ़ हो जाता है। 

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हिन्दी मीडिया के तिरस्कृत छात्रों ने यह उपलब्धि भाषा के आधार पर हासिल नहीं की है। धर्म के आधार पर की है मगर धर्म के शास्त्रों और दर्शनों का ज्ञान हासिल कर नहीं की है। दूसरे धर्म की मां-बहनों को गाली देकर हासिल की है। यहां भी आप हिन्दी मीडियम वालों ने कुंजी पढ़ कर पास होने की मानसिकता का प्रमाण दे ही दिया। पूरी किताब की जगह गालियों की कुंजी से धर्म रक्षक बन गए। कोई बात नहीं। अभी आपके हाथों में तलवारें हैं तो चुप रहना बेहतर है। इसलिए मैं आपकी प्रशंसाओं में श्रेष्ठ प्रशंसा भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहा हूं।

हिन्दी प्रदेशों की आर्थिकी के कारण आपकी शारीरिक कमज़ोरी इन जुलूसों में भी झलक रही थी। कुपोषकता इतनी आसानी से नहीं जाती है लेकिन समूह में आप जिस तरह से उछल उछल कर गालियां दे रहे थे, विद्या कसम, पता नहीं चल रहा था कि आपमें किसी प्रकार की शारीरिक कमज़ोरी है। आपने हिन्दी प्रदेशों की दीवारों पर लिखे मर्दाना कमज़ोरी की दवाओं के विज्ञापनों को भी परास्त कर दिया है। जिनमें हिन्दी में वीर्यहीनता को कोसा जाता है। जब आप तलवार उठाए दूसरे धर्म के लोगों को गालियां दे रहे थे तभी मैंने विश्व गुरु भारत के क्षितिज पर एक नई वीरता के उदय की उषा किरणों का साक्षात दर्शन कर लिया। प्रणाम वीरवर। 

हमने हिन्दी साहित्य की किताब में राधा कृष्ण की एक कहानी पढ़ी थी। भामिनी भूषण भट्टाचार्य शारीरिक कमज़ोरी के शिकार थे। जीवन में बहुत कुछ बनना चाहा, वकील भी बने, वकालत नहीं चली तो व्यायाम करने लगे। एक दिन उनके मित्र ने देखा कि कमरे के भीतर व्यायाम कर रहे हैं। उठा-पठक चल रही है। पूछने पर भामिनी भूषण भट्टाचार्य ने कहा कि मुझे कोई भला क्या पटकेगा, बल्कि मैं ही अभी पचास काल्पनिक पहलवानों को कुश्ती में पछाड़ कर आया हूं। मेरे प्यारे हिन्दी मीडियम वालों तलवार लिए आपको देखा तो राधाकृष्ण की कहानी कि ये पंक्तियां बरबस याद हो गईं। इसमें भट्टाचार्य जी ताक़त के जोश में बताने लगते हैं कि जल्दी ही मोटरें रोकने लगेंगे। लेकिन जब उनके मित्र ने ग़ौर से देखा तो शरीर में कोई तब्दीली नहीं आई थी। बिल्कुल वही के वही थे। लेकिन भट्टाचार्य मानने को तैयार नहीं थे कि व्यायाम के बाद भी वे दुबले ही हैं। लगे चारों तरफ से शरीर को दिखाने कि कैसे तगड़े हो गए हैं। अंत में मित्र ने कह दिया कि तुम गामा पहलवान से भी आगे निकल जाओगे। तब भामिनी भूषण भट्टाचार्य की एक पंक्ति है। अभी गामा की क्या बात, थोड़े दिनों में देखना, मैं बंगाल के सुप्रसिद्ध पहलवान गोबर से भी हेल्थ में आगे बढ़ जाऊंगा। 

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इस पर लेखक लिखते हैं कि विचित्र विश्वास था। वह उल्टा मित्र को ही गरियाने लगे कि तुम्हारी तरह किरानी बन कर झक नहीं मारना है। मैं बड़ा आदमी होना चाहता हूं। आज मेरा नाम है भीम भंटा राव कुलकर्णी, व्यायाम विशारद, मुगदराविभूषि, डंबलद्वयी, त्रिदंडकारक। इस विस्तृत परिचय पत्र में मैं अपनी तरफ से तलवारधारी, डीजे नतर्क, गाली वाचक जोड़ देता हूं ताकि हिन्दी माध्यम के युवाओं का सीना एक ईंच और फुल जाए। 

जैसा कि हर कामयाबी में होता है, आपकी इस नवीन कामयाबी में भी एक कमी रह गई। समाज के सारे युवा आपके साथ नहीं आए जबकि धर्म की रक्षा और बदला लेने का काम उनका भी था। ख़ासकर मिडिल क्लास के मां-बाप ने अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम में डालकर उन्हें धर्म विमुख कर दिया है। ऐसा नहीं है कि वे पूजा अर्चना नहीं करते हैं, ख़ूब करते हैं मगर तलवार लेकर दूसरे धर्म की मां-बहनों को गालियां देने सड़कों पर नहीं उतरते हैं। अपने बीच मौजूद ऐसे स्वार्थी तत्वों की पहचान कर लीजिए। धर्म की लड़ाई में असली ट्रॉफी यही लोग ले जाते हैं जब सड़क पर उतरने की जगह सोशल मीडिया पर लिख कर पोपुलर हो जाते हैं और इंजीनियर तो हो ही जाते हैं। कुछ डॉक्टर भी होते हैं और कुछ अफसर भी। आप देखिएगा जल्दी ही ये सारे इंग्लिश मीडियम वाले अपने मोहल्ले से गायब होने लगेंगे। फेसबुक पर पूजा के पंडाल को मिस करेंगे लेकिन पंडाल लगाने की ज़िम्मेदारी आपके महान कंधों पर छोड़ जाएंगे। 

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जब अमेरिका लंदन से लौटेंगे तो मोहल्ले में सस्ती परफ़्यूम से लेकर घड़ी बांट कर पोपुलर हो जाएंगे। अपनी कहानी सुनाएंगे और लोग चाव से सुनेंगे। कब तक आप उन्हें दोस्ती के नाम पर स्टेशन से घर लाने का काम करेंगे। ये काम आपने अच्छा चुना है। अब मैसेज कर दीजिएगा कि आप धर्म की रक्षा में एक शोभा यात्रा में निकले हैं। तलवारें लेकर दूसरे धर्म की मां-बहनों को गालियां दे रहे हैं। आप ही धर्म की रक्षा के अवैतनिक प्रभारी हैं। स्कूल के दिनों में संस्कृत की कक्षा में मुश्किल मंत्रों और श्लोकों के कारण आप धर्म विमुख हो गए थे। लेकिन मंत्रों की जगह गालियों के इस्तेमाल ने आपको फिर से धर्मोन्मुख कर दिया है।

अब रक्षा का भार आप पर है। आप नहीं होंगे तो धर्म नहीं बचेगा। तलवारें नहीं बचेंगी। गालियां नहीं बचेंगी। आपने बहुत सह लिया। गणित और अंग्रेज़ी की कमज़ोरी का हिसाब अब धर्म की रक्षा के काम से निकालना है। आपका टाइम आ गया है। आप की शोभा बढ़ रही है। आपके चलते हिन्दी मीडियम वालों की पूछ बढ़ रही है। इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले हिन्दी समाज के लड़के बाद में पछताएंगे कि जब धर्म की रक्षा में गालियां देने का वक़्त था तो वे कोचिंग कर रहे थे। धर्म को अगर ख़तरा है तो इन प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले युवाओं से हैं जो वाट्सऐप में नफरती मीम तो फॉर्वर्ड करते हैं लेकिन कभी सड़क पर उतर कर गालियाँ नहीं देते। इंग्लिश मीडियम वाले मोर्चे और मुल्क से भागे हुए लोग हैं। निर्लज्ज इंग्लिश मीडियम वाले।

आपका

वही जिसे आप हमेशा से पराया मानते रहे हैं

रवीश कुमार

(रवीश कुमार की फ़ेसबुक वाल से साभार)
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रवीश कुमार
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