सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पाँच माननीय न्यायाधीशों की पीठ ने 1045 पृष्ठों के अपने ऐतिहासिक फ़ैसले में कहा कि उन्होंने यह फ़ैसला इतिहास, विचारधारा, धार्मिक विश्वास या आस्था के आधार पर नहीं अपितु क़ानून के आधार पर किया है। उन्होंने भारतीय संविधान के बुनियादी उसूलों की भी चर्चा की है कि हमारे संविधान की रोशनी में क़ानून के समक्ष सभी नागरिक समान हैं, चाहे वे किसी भी धर्म, संप्रदाय, विश्वास या विचार के हों! माननीय न्यायाधीशों ने बिल्कुल सही कहा है। लेकिन अयोध्या के मंदिर-मसजिद विवाद पर उनके एकमत फ़ैसले का आधार क्या वाक़ई सिर्फ़ क़ानून है, इसमें आस्था, विश्वास, कथा या इतिहास, किसी भी अन्य पहलू की कोई भूमिका नहीं है? मैं कोई क़ानूनविद् या विधिशास्त्र का छात्र नहीं हूँ। एक आम नागरिक और पत्रकार के नाते इस ऐतिहासिक फ़ैसले के सबसे अहम् हिस्सों को पढ़ने के बाद मेरे दिमाग में पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के उक्त दावे पर कुछ सवाल उठते हैं।
अयोध्या: संतुलन बनाने की कोशिश के बावजूद कोर्ट के फ़ैसले पर उठते सवाल
- अयोध्या विवाद
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- 10 Nov, 2019

क्या माननीय न्यायालय का अयोध्या विवाद पर आया फ़ैसला ‘संपूर्ण न्याय’ से ज़्यादा बीते कई दशकों से व्याप्त उत्तर भारत के एक बड़े सियासी-सांप्रदायिक विवाद को सुलझाने की न्यायिक-प्रशासकीय कवायद ज़्यादा है? क्या यह फ़ैसला जाने-अनजाने बहुसंख्यक आबादी की आस्था और कुछ सियासी अभियानों के दबाव के प्रति कुछ झुका हुआ या उनसे समाज को उन्मुक्त करने की इच्छा से प्रेरित दिखता है?
फ़ैसले का सबसे अहम् हिस्सा है कि 2.77 एकड़ ज़मीन, जिसमें विध्वंस का शिकार हुई बाबरी मसजिद का सारा हिस्सा शामिल है, अब यह हिस्सा रामलला विराजमान यानी कथित हिन्दू-पक्ष के पास चला गया। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने विवादास्पद ज़मीन के इस हिस्से को तीन भागों- राम लला विराजमान या कथित हिन्दू पक्ष, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में बराबर-बराबर बाँट दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसे ग़लत फ़ैसला माना।