कोरोना महामारी के डर से हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौट रहे देवराम बीच सड़क पर थक कर बैठ गये, उनका दम टूटने लगा, पांव दुख रहे हैं, अब आगे जाने की जरा भी हिम्मत नहीं रह गई है।
देवराम तड़पती आवाज में बोल उठे, ‘‘थोड़ा रुक के चलो, अब शरीर भी जिन्दा लाश बन गया है।’’
साथ चलने वाले लोग आगे बढ़ने लगे, उसके गांव के कुछ मजदूर रुक गये, उनमें से एक बोला,‘‘अरे आगे बढ़ो, यहां रुककर कोई फायदा नहीं होगा, चलते रहोगे तो घर जीवित पहुँच जाओगे।’’
सब लोग आगे निकल गए, देवराम का सगा भतीजा भी उनके साथ निकल गया। देवराम अवाक रह गया, ‘‘अरे इनमें से कई को मुम्बई में अपनी खोली में रखकर उनको छत दी, जुगाड़ करके काम भी दिलवाया।’’ बूढ़ी आँखों से टकटकी लगाये बैठा वह उन लोगों को ओझल होने तक देखता ही रहा, मगर साथ वालों ने पलट कर उसकी तरफ देखा भी नहीं।
मर गई है मानवता!
दोपहर के 12 बजने वाले थे, वह पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ता रहा था, बासी ब्रेड को खाकर भूख मिटाई, इधर-उधर देखा कहीं पीने के पानी का इंतजाम न था। थोड़ा हिम्मत करके आगे बढ़ने की कोशिश की, अब प्यास ने गले को तकलीफ देना शुरू कर दिया। एक नलकूप दिखाई दिया, उसकी आंख में चमक आ गयी। मगर नलकूप को ताला लगाकर बन्द कर दिया गया था, देवराम को नलकूप के करीब खड़ा देखकर घर की मालकिन चिल्लाने लगी।
गालियां बकने लगी, वहाँ से उदास होकर वह आगे बढ़ने लगा और बोला - अरे बहुत जल्दी मानवता मर गई है। उसके पास पैसे भी नहीं बचे कि पानी को खरीद सके, अब लगा कि मौत नजदीक आ रही है। वह निडर हो चला, उसको पता चल गया कि वह दो कदम भी नहीं चल सकता है, आँखों के सामने शहर बहुत विकास कर गया है, हर रोज नये प्रोजेक्ट, नई सड़क का निर्माण होता है। बड़ी बिल्डिंग भी आसमान को छू रही हैं।
सरकार को क्यों कोसें, वो जो कर रही है, समझो अच्छा कर रही है। गरीबों और मजदूर की योजना बड़े पढ़े-लिखे अधिकारी ही बनाते हैं। अरे अनपढ़ को क्या हक जो पढ़े-लिखे लोगों पर उंगली करे। अरे दादा कलई खुल गई, लाखों पैदल ही मरने चल दिये, मरने दो।
नेता लोग आराम से बैठकर सोशल मीडिया पर गरीबों की आवाज़ उठा रहे या फिर चेप रहे हैं। विकास की डगर ऐसी चल रही है कि आज इंसान को भी अपनी हद का पता चल गया। वह भी एक पिंजड़े में फड़फड़ा रहा है, वह जब पहली बार मुम्बई गया, हर उत्तर भारतीय की तरह वह भी अपने हीरो की एक झलक पाने को बेताब रहता। उसको एक मिल में मजदूरी का काम मिल गया, उसने बहुत मेहनत से काम किया, मिल के मालिक उसको बहुत मानते थे और उसकी ईमानदारी की मिसाल देते थे।
अनपढ़ होने के कारण देवराम के साथ बहुत अन्याय हुआ, उसे किसी तरीक़े का पीएफ़ नहीं मिला क्योंकि मालिकों की जमात न जाने कितने मजदूरों के हक़ को दबा कर खा जाती है। बुजुर्ग हो चला अब उतना काम नहीं कर सकता इसलिए एक दिन मालिक ने उसे बुलाकर छुट्टी कर दी। किसी को उसकी हालत पर दया आ गई, उसको वॉचमैन की नौकरी लगवा दी।
अब उसे अपने नये मालिक की याद आ रही है, वह आते-जाते सलाम करता। अरे मालिक उसको ठीक से पहचानता भी नहीं कि वह वॉचमैन कौन है। बहुत यादें जेहन में टकरा रही थीं। अब उसकी आँखें सफेद हो चुकी थीं, सड़क के किनारे कुछ लोग खड़े होकर देख रहे थे।
पुलिस आ गई, 2 गज का सफेद कफन सिर से पांव तक फैला दिया गया। फाइल में कहीं देवराम नाम नहीं लिखा था। बस लावारिस शव लिखकर उसकी आख़िरी मंजिल तक भेज दिया गया।
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