एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को अपने अनुरूप ढालने और ढहाने के कुछ कारगर उपक्रम होते हैं। इसके बाद भी अगर वह बची रह जाए तब उसे अपमानित कर कमज़ोर कैसे किया जाए इसकी कोशिश की जाती है। हाल की कुछ घटनाओं और दो बिल्कुल भिन्न चरित्र, रिया चक्रवर्ती और कंगना रनौत के मामलों में यह साफ़ देखा जा सकता है कि पितृसत्तात्मक समाज में शोषण और प्रताड़ना के लिए स्त्री कितनी सहज लक्ष्य है। एक स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र, कितने ही प्रतिष्ठित पद पर क्यों न हो, वह लैंगिक विषमता से कम प्रभावित भले हो लेकिन पूरी तरह बची रह सके, ऐसा नहीं है।
रिया एक्ट्रेस न होती तो टीवी मुँह काला कर गधे पर घुमा देता?
- पाठकों के विचार
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- 31 Nov, 2020

रिया चक्रवर्ती और कंगना रनौत के मामलों में यह साफ़ देखा जा सकता है कि पितृसत्तात्मक समाज में शोषण और प्रताड़ना के लिए स्त्री कितनी सहज लक्ष्य है।
मामला आत्महत्या के लिए उकसाने की आरोपी के रूप में एक स्त्री को देखने का हो या राजनीतिक बयानबाज़ी में किसी स्वतंत्र स्त्री के विचारों से हुई खलबली का हो, इन दोनों ही मामलों और इन जैसे अनगिनत मामलों में स्त्री का कौन-सा रूप खड़ा किया जाता है उसे समझने की ज़रूरत है। यह समझने की ज़रूरत है कि पितृसत्ता इसमें कैसे काम करती है, इस व्यवस्था में कब पुरुष और स्त्री दोनों ही शोषक और शोषित की भूमिका में आ जाते हैं, वैचारिक परिवेश की भिन्नता दो स्त्रियों को भी कैसे एक-दूसरे का विरोधी बना देती है।