जब हम दुनिया को नारीवाद की आँख से देखते हैं तो हमे वह माइक्रोसॉफ्ट वर्ड के 'रिवील फॉर्मेटिंग' फंक्शन जैसी दिखाई पड़ती है। पता चलता है कि हम जिसे समतल और संपूर्ण साथ मान कर चल रहे थे, उसके नीचे कितनी गुत्थियाँ और जटिलताएँ मौजूद हैं।
प्रसिद्ध नारीवादी निवेदिता मेनन की किताब 'सीइंग लाइक अ फेमिनिस्ट' का हिंदी अनुवाद 'नारीवादी निगाह से' नाम से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। किताब बड़ी सरलता से हमे मौजूदा व्यवस्था, जेंडर अवधारणाओं और व्यवहारिक प्रयोगों के विरोधाभासों से रूबरू करती हैं।
हिंदी के किसी नारीवादी पाठक के लिए यह अनुवाद इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि यह नारीवाद और उस से जुड़े तमाम पूर्वाग्रहों को हटाते हुए उसे असल जीवन से जोड़ कर देखने का आग्रह करती हैं।
नारीवादी बनने की प्रक्रिया
नारीवादी निगाह से देखना और जीना, यही तो नारीवादी बनने की प्रक्रिया है। सटीक मुद्दों और बहसों के ज़रिये यह किताब हमे बताती है जो कुछ भी है, वह स्वाभाविक नही हैं। व्यवहार और भूमिकाओं को निरंतर गढ़ा गया है, वह मानव निर्मित हैं। इस किताब की खूबसूरती ही है कि यह कलात्मकता से हमे तमाम मुद्दों, क़ानूनों, आंदोलनों, सामाजिक राजनैतिक गतिविधियों के अंतर्विरोधों को बडी ही सरलता से समझाती हैं।
लेखिका निवेदिता मेनन लिखती है, “इस किताब में मैंने दुनिया के उस हिस्से के नारीवादी कृतित्व और राजनीति पर ज़ोर दिया हैं जहाँ मैं रहती हूं। लेकिन इसी के साथ यह नारीवाद की वैश्विक बहसों और अनुभवों के साथ गहरा संवाद भी हैं।"
केवल स्त्री से सम्बंधित विचार नहीं
इस पुस्तक की शुरुआत निवेदिता मेनन नारीवाद जैसे सार्वभौमिक और सैद्धांतिक विमर्श के महत्व को बताते हुए इस बात पर जोर देती है की नारीवाद केवल स्त्री से सम्बंधित विचार नहीं हैं। नारीवाद का वास्ता स्त्रियों और पुरुषों से ही नही है, बल्कि वह समझ है जो हमे 'स्त्री' और 'पुरुष' जैसी अस्मिताओं को गढ़ने, उसमे फिट होने के लिए तैयार करती है, इस पूरी संरचना, तंत्र को खड़ा करती है।
इस किताब के शीर्षक के बारे में लिखती है कि यह जेम्स स्कॉट की कृति ‘सीइंग लाइक अ स्टेट’ से प्रेरित है। राज्य की भूमिका को रेखांकित करते हुए सामाजिक ढाँचे और उसकी पेचीदगियों की ओर इशारा करते हुए वे लिखती हैं कि राज्य के 'देखने' में एक विशाल सत्ता का भाव शामिल रहता है क्योंकि जब वह किसी ‘अस्मिता’ को देख रहा होता है तो वह उसे 'वास्तविक' बना रहा होता है, और इसी के समांतर एक सामाजिक व्यवस्था भी गढ़ रहा होता है।
इसके उलट, जब कोई नारीवादी अपनी इच्छा से हाशिये की जगह चुनता है तो उसका यह निर्णय सत्ता को भीतर से पलटने की ओर इशारा करता है; उसकी मंशा एक स्थापित दायरे को छिन्न भिन्न कर देने, समरूपीकरण का प्रतिरोध करने और सम्भावनाओ को खत्म करना के बजाय नए दरवाजे खोलने की होती हैं।
यही है नारीवादी निगाह से देखना और अपने समाज को समझते हुए उसे सभी के लिए बेहतर बनाने की प्रक्रिया में लाना।
नारीवादी लेंस से हम अपने आस-पास के परिवेश को डिकोड करे तो यह पितृसत्तात्मक समाज बिखर सकता है। ये कटु सत्य है कि कुछ भी सहज नही हैं, बल्कि हमारी भंगिमाएँ, कामनाएँ, वेशभूषा, और यौन इच्छाओं तक सब कुछ गढ़ा गया है।
पितृसत्तात्मक समाज
किताब उस प्रसंग पर विशेषकर ज़ोर देती है कि सिर्फ जेंडर के आधार पर समाज में दर्जाबन्दी नहीं है, बल्कि आज तो कई समुदाय हैं जो अपनी अस्मिताओं के लिए लड़ रहे है, सँघर्षशील है। अगर हम उन हाशिये पर खड़े समुदायों से सत्ता की बनावट को देखे तो पाएंगे कि जाति, वर्ग की राजनीतिक सत्ता भी शामिल है।
समाज की विविधता, गरीबी, असमानता, और कई तरह की ग़ैर बराबरी इसमे अहम भूमिका निभाती है। अंततः समाज को देखने की कोई एक स्पष्ट तसवीर नही निकलती बल्कि उसमे कई पेचीदगियाँ मौजूद रहेंगी जो एक दूसरे के विरोधाभास में खड़ी होंगी।
गंभीर अध्ययन
नारीवादी निगाह से देखना तो उन पेचीदगियों को खोलना है जिन मुद्दोंको हम कम महत्वपूर्ण मान लेते है, लेकिन वह गहरा प्रभाव छोड़ती है। जेंडर से इतर अहम मुद्दा जाति, वर्ग और कई असमानताओं के विश्लेषण का बना हुआ है।
निवेदिता मेनन स्त्रीवादी चिंतक और अकादमिक लेखन और विमर्शों में महत्वपूर्ण नाम है। नारीवाद और उसकी कार्यनीति को समझने के लिए हिंदी में बहुत कम किताबें है जो इतने गंभीर अध्ययन और मुद्दों के जरिये पितृसत्तात्मक समाज की जटिलताओं को परिभाषित करती हो।
इसे किताब की विशेषता कहे या लेखक की रचनात्मकता कि यह नारीवाद को पहली बार इतने सरलता से रखती है और उसे सहज बना देती है, समझने के लिए भी और नारीवादी बनने के लिए भी।
ट्रांसजेंडर
किताब में एक समावेशी दृष्टि अपनाते हुए न केवल स्त्री पुरुष के बीच दिखनेवाली जटिलाओं को स्पष्ट करती हैं, बल्कि पहली बार ट्रांसजेंडर, विकलांग, क्वीयर समुदाय के अधिकार और समानता की बात को रखती हैं। उनके लिए होने वाले सांस्कृतिक-सामाजिक राजनीतिक बदलावों और क़ानून प्रक्रिया को समझने पर जोर है।
इसलिए निवेदिता मेनन लिखती है नारीवादी होने का मतलब यह है कि व्यक्ति न केवल यह समझे कि विभिन्न अस्मिताओं के पदानुक्रम- उनका वर्चस्ववादी या अधीनस्थ होना-समय और स्थान की भिन्नताओं से तय होता हैं,बल्कि उसे जेंडर-निर्माण की प्रक्रिया के प्रति भी सजग रहना चाहिए।
अंग्रेजी संस्करण तो पढा न देखा, इसलिए पुस्तक हाथ में आते ही विषय सूची को परखते हुए मुझे थोड़ी निराशा हुई बस इतना ही! केवल सात लेख है। लेकिन अंदर ही अंदर निवेदिता मेनन जैसी लेखिका और किताब का शीर्षक मुझे यह भरोसा दे चुका था कि किताब निराश नही करेगी।
अमूमन यह धारणा आम होती है कि भारी भरकम विषय सूची यानी किताब को देखने की महत्ता बढ़ जाने से है। लेकिन यह किताब मेरे उन सभी पूर्वाग्रहों को तोड़ती है और उस भाव को मज़बूती देती हैं कि एक सरल भाषा में भी आप किसी सैद्धान्तिक बहस को बड़ी कुशलता से रख सकते है। किताब सिलसिलेवार तरीके से नारीवाद और उससे जुड़े व्यवहारिक मुद्दों पर बात करती हैं।
परिवार
नारीवादी चिंतकों ने पितृसत्ता की महत्वपूर्ण इकाई परिवार पर काफी कुछ लिखा और कहा। यह किताब भी परिवार पर केंद्रित अपने शुरुआती लेख में'पितृसत्तामक विषमलिंगी परिवार' की अवधारणा को सामने रखती हैं। कैसे बदलते समय में परिवार की भूमिका और भी ज्यादा मजबूत हुई है।
समाज में विषमलिंगी और पितृसत्ता पर आधारित परिवार को ही मानवीय स्थिति और शाश्वत माना जाता है। परिवार के भीतर सदस्य स्वतंत्र और उनके कोई अधिकार नहीं रहते। वह लिखती हैं "अगर परिवार में मौलिक अधिकार लागू कर दिये जाए और परिवार के हर एक सदस्य को एक स्वतंत्र और सामान नागरिक की तरह देखा जाने लगे तो परिवार नाम की चीज भी नहीं बचेगी। अपने मौजूदा स्वरूप में परिवार जेंडर और उम्र की एक ऐसी दर्जाबंदी पर टिका है जिसमें जेंडर अक्सर उम्र पर भारी पड़ता जाता है। इसका मतलब है कि परिवार का वयस्क पुरुष किसी उम्र दराज महिला से ज्याद ताक़तवर होता है।"
प्रेम विवाह
आगे चर्चा उन लघु ईकाइयों की जो परिवार के भीतर ही पोषित और गढ़ी जाती हैं और बड़ी मजबूती से जड़े जमाये हुए है। जैसे प्रेम सम्बन्धों पर परिवार द्वारा नियंत्रण क्यों ज़रूरी हो जाता है। राज्य परिवार संस्था में हस्तक्षेप नही करता जिससे एक सामान्य इंसान के मौलिक और सवैधानिक अधिकार स्वतः ही निष्क्रिय हो जाते हैं। और जो इस दायरे को स्वीकार नही करते वो अंततः 'ऑनरकिलिंग' के रूप में घटित होती हैं।
परिवार के भीतर ही कैसे स्त्री- पुरुष के श्रम का विभाजन होता हैं और स्त्री के श्रम का अवमूल्यन किया जाता हैं। पूरी अर्थव्यवस्था महिला के इस निःशुल्क श्रम पर ही टिकी हैं। क्या हो अगर उन कामों का श्रम माँगा जाए? इन सभी मुद्दों को यह पुस्तक गंभीर विश्लेषण करती है।
श्रम का यौनिक विभाजन
किताब में श्रम के इस यौनिक विभाजन की गुत्थियों को खोला गया है जो बताती है कुछ भी स्वभाविक नहीं है, बल्कि कुछ निश्चित वैचारिक पूर्व धारणाएं जिम्मेदार हैं। समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 में पारित के बाद भी महिला को उसी काम के बदले पुरुष से कम मज़दूरी दी जाती है। लेकिन जब वही काम औरतों के काम को पेशेवर ढर्रे से तय हो जाता है तो उस पर पुरुष का एकाधिकार हो जाता है। श्रम का यह यौनिक विभाजन परिवार ही नहीं अर्थव्यवस्था के संरक्षण में भी बुनियादी भूमिका निभाता है।
ऑक्सफैम की ताजा रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और अनपेड केयर वर्क यानी घर के काम आपस मे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भारत में महिलाएँ और लड़कियाँ अनपेड केयर वर्क में यानी घर के कामों में हर दिन 3.26 बिलियन घण्टे व्यतीत करती हैं। लेकिन घर के कामों के लिए मिलने वाला श्रम महिलाओं को भी मिले तो क्या इस बात पर ज्यादा जोर नही पड़ता 'कुछ काम महिलाओं के ही होते है?
निवेदिता मेनन इसका समर्थन नहीं कर पाती क्योंकि उनकी नजर में यह कदम श्रम के यौनिक विभाजन को दोबारा निजीकरण की ओर मोड़ देता है मतलब यह कि पति दिहाड़ी देने वाला और पत्नी कामगार की स्थिति में आ जाती है। घरेलू काम की इस अदृश्य स्थिति पर उन्होंने घरेलू नौकरों की स्थिति पर विचार करके समझाया है।
पैतृक संपत्ति
औरतों की आत्म निर्भरता का सवाल तो आज भी हाशिये पर है। उनका पैतृक संपत्ति में हिस्सा लेना भी सहज नही माना जाता। इसलिए उनके विवाह के लिए सामान और धन राशि जुटाना ही उनके उत्थान के लिए किया गया सर्वोपरि कदम माना जाता हैं। किताब इस मुद्दे पर गहराई से अवलोकन करती हैं।
बदलते समय में भी आज लगभग सभी समुदायों में दहेज़ लेने देने की परंपरा देखी जाने लगी हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि विवाह का एक स्वरूप सभी समुदायों में घुसपैठ कर चुका हैं। दहेज लेना और देना उसी कमी को पूरा करना है जो लड़कियों के पालन में रह जाती हैं। आर्थिक आत्म निर्भरता न होने की वजह से यह उसके विवाह पर दहेज़ देकर पूरा किया जाता है।
यह ज़रूरी भी हो जाता है कि ससुराल में लड़की को अजनबी जगह पर अपनी स्थिति को मजबूती देने के लिए। यही तो वह चीज़ है जिससे उसे कितना महत्व दे, इसका निर्धारण तय होता हैं। पैतृक संपत्ति में हिस्सा न मिलना या न लेना भी परनिर्भर स्त्री के लिए दहेज किसी सहारे से कम नहीं।
यौनिकता और जेंडर
यौनिकता और जेंडर नारीवादियों का अहम मुद्दा है। निवेदिता मेनन 'देह' नामक लेख में जेंडर और यौनिकता से जुड़ी धारणाओं, जीव विज्ञान के भ्रामिक शोधों के हवाले से उन जटिलताओं को सामने रखती हैं कि यह देह केवल दो रूपों में मौजूद नहीं है।
'स्त्री' 'पुरुष' बनाने का जो समाजीकरण पितृसत्तात्मक समाज में किया जाता है, जो उन्हें अलग अलग भूमिकाओं के लिए तैयार करता है, हम हर दिन अपने चेताए जेंडर के अनुरूप व्यवहार करने के लिए प्रोगाम किये जाते हैं। समाज और क़ानून दोनो रूपों में स्त्री पुरुष को समान मानने का नियम है। लेकिन 'स्त्री' और ‘पुरूष’ खाँचे में बाँट कर उन्हें पहले ही विभाजित कर दिया जाता है। लेकिन यह बात भुला दी जाती है कि सबसे पहले वह मनुष्य है।
निवेदिता कहती हैं यह कोई ऐसा अपरिवर्तनीय आधार नहीं है, जिस पर समाज ‘जेंडर’ के अर्थों की इमारत खड़ी करता रहता है। इसके बजाय यह एक ऐसी संज्ञा है जो विभिन्न तरह के बाहरी कारकों से प्रभावित होती हैं- प्रकृति और संस्कृति को एक दूसरे से पृथक करने वाली लकीर बहुत साफ और अपरिवर्तनीय नहीं होती।
आधुनिक शोधों और मेल- फीमेल को एक दूसरे से भिन्न बताने वाले शोधों का हवाला देते हुए निवेदिता मेनन दोनों देह को बिल्कुल भिन्न मानने का निषेध करती हैं। वह लिखती है अगर हम सभी को टेस्ट किया जाए तो हम किसी भी ढांचे में नहीं आयेंगे- न मेल, न फीमेल।
'अगर पुरुषों को भी महावारी होती!'
इसी लेख में वह अमेरिकी नारीवादी ग्लोरिया स्टिनेम के एक खिलंदड़ व्यंगात्मक लेख- अगर पुरुषों को भी महावारी होती, के हवाले से दिखाया है कि किस तरह मासिक धर्म एक ईर्ष्या योग्य, गौरव करने लायक और पुरुषोचित घटना बन जायेगी। ऐसा होते ही पुरुषों को शानदार और महान समझा जाएगा, लेकिन स्त्रियाँ जिन्हें 'कमजोर' समझा जाता है, के लिए वह शर्मिंदा करने वाला बना रहेगा।
हिंदी समाज में इस किताब का आना महत्वपूर्ण घटना है। मेरी जॉन ने अंग्रेजी पुस्तक के बारे में कहा था, “इस किताब को लिखने की आकांक्षा सब करते है, लेकिन बहुत कम लोग ही लिख पाते है।"
यह बात अनूदित पुस्तक पर भी बहुत सटीक बैठती है। पुस्तक इतनी सरल और वार्तालाप शैली में है कि लगता ही नही कोई अकादमिक भारी भरकम सैद्धान्तिक पुस्तक पढ़ रहे है। शुरू से अंत तक एक रचनात्मकता है। निवेदिता मेनन की भाषा शैली इतनी प्रभावशाली है कि कठिन बात को भी सरलता से लिख देती हैं।
स्त्री विमर्श
हिंदी में ऐसे लेखन बहुत कम है या जो लेखन हुए भी तो उन्हें हतोत्साहित किया जाता हैं। हिंदी का तथाकथित स्त्री विमर्श एक छोटे से वर्ग को ही समेटने की क्षमता रखता हैं। पितृसत्ता और उसकी सहयोगी संस्थाओं पर गंभीर लेखन कम हुए हैं।
नारीवादी आलोचना में भी कुछ लेखक- लेखिकाओं का प्रभाव है जो स्त्री विमर्श को अपने तरीके से गढ़ते हैं। गंभीर आलोचना और अध्ययन का अभाव तो है ही, उनका समाज को बदलने का जोर कम ही होता है, चर्चा आमतौर पर पितृसत्ता न होकर वहां पुरुष केंद्र में होता है।
यह किताब यह घोषणा करती है नारीवाद अंतिम विजय का क्षण नहीं है, बल्कि समाज के उस क्रमिक रूपांतरण की ओर इशारा भर है जिसमें पुराने चिह्न हमेशा के लिए मिट जाते हैं। नारीवाद दृष्टिकोण चीज़ों को संतुलन प्रदान करने के बजाय उन्हें अस्थिर करके देखता है। हम इस तथ्य को जितना ज़्यादा समझते जाते हैं, हमारे क्षितिज उतने ही बदलते जाते हैं। इस किताब को पढ़ने के बाद कुछ तथ्य ज़रूर खुलते हैं।
अपनी राय बतायें