एक दौर में जासूसी उपन्यास मैंने ख़ूब पढ़े। इन उपन्यासों से भी मुझे सामान्य ज्ञान के पहले सबक़ मिले। ओमप्रकाश शर्मा के उपन्यासों को पढ़कर मैंने शीत युद्ध की राजनीति का पहला व्याकरण जाना। उनके उपन्यासों में भारत और रूस के जासूस एक तरफ़ होते थे और अमेरिका, चीन-पाकिस्तान के दूसरी तरफ़। युगांडा के ईदी अमीन के बारे में मैंने ऐसे ही जासूसी उपन्यास में पढ़ा- कर्नल गद्दाफी के बारे में भी।
ओमप्रकाश शर्मा के अलावा कर्नल रंजीत, इब्ने सफी, वेद प्रकाश शर्मा, कुशवाहा कांत, कुमार कश्यप जैसे कई उपन्यासकार थे जो मुझे पहले जासूसी उपन्यासों का ज़ायका देते रहे। कर्नल विनोद, मेजर बलवंत, विक्रांत, राजेश, जगत और जगन वे रंग-बिरंगे हीरो थे जो जासूसी से लेकर ठगी तक देश के लिए करते थे। इसी तरह सामाजिक माने जाने वाले उपन्यासों और उनके लेखकों गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी, मनोज, रानू आदि ने मुझे पठन-पाठन के दुर्व्यसन की ओर मोड़ने में अहम भूमिका निभाई।
कई बार सोचता हूँ कि अगर यह प्रारंभिक सूत्र न होते तो शायद मेरे लिए दूसरे शास्त्रीय लेखकों तक पहुंचना आसान नहीं होता। टॉलस्टॉय, गोर्की, प्रेमचंद, अज्ञेय या दूसरे लेखकों की रचनाओं तक पहुंचने का अभ्यास मुझे कुछ हद तक इन्हीं से मिला। इसलिए गोरखपुर विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में 'लुगदी साहित्य' को पढ़ाने की चर्चा मुझे उतनी नहीं खल रही जितनी दूसरों को खल रही है। मेरी चिंता यह है कि इन्हें पढ़ाया कैसे जाएगा। क्योंकि इन तमाम लेखकों को पढ़ने के बावजूद मेरे भीतर यह समझ बिल्कुल साफ़ है कि गुलशन नंदा या वेद प्रकाश शर्मा प्रेमचंद और रेणु नहीं हैं।
प्रेमचंद या रेणु को पढ़ना अपने समाज और अपनी दुनिया को कुछ ज्यादा गहराई से समझना है। गुलशन नंदा या वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ना एक तरह का 'टाइम पास' है- वैसा ही मनबहलाव जैसा चालू हिंदी सिनेमा को देखकर होता है। हम जानते हैं कि यह महान सिनेमा नहीं है, इसमें न मनुष्य का यथार्थ है न समाज का। फिर भी हम यह सिनेमा देखते हैं।
दरअसल, यह लुगदी साहित्य ढंग से पढ़ाया जाएगा तब हमें अपने समाज की भी कुछ विडंबनाएँ दिखेंगी और अपने शास्त्रीय लेखकों का भी महत्व समझ में आएगा। अभी तो दुर्भाग्य यह है जो लोग गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा को पढ़ाए जाने पर माथा पीट रहे हैं, खुद वे प्रेमचंद्र और अज्ञेय को कुछ इस तरह पढ़ाते हैं कि माथा पीटने की इच्छा पैदा होती है।
निश्चय ही गुलशन नंदा या किसी अन्य लेखक को पढ़ाए जाने की बात से जो बेचैनी पैदा होती है उसका एक वास्तविक आधार है। हमारे समाज में सतहीपन का मोल बढ़ा है। किसी भी उत्पाद या कृति के मूल्यांकन का इकलौता आधार उसके विक्रय या प्रसार की क्षमता रह गई है। बल्कि किसी कृति का कम प्रसार उसके बेमानी होने का सबूत बन जाता है। बिकाऊ होने के प्रति बढ़ रहे इस सम्मान का ही असर है कि अचानक वे लेखक प्रतिष्ठित प्रकाशन गृहों से छपने लगे हैं जो पहले सस्ते कागज पर सस्ते ढंग से छापे जाते थे। बहुत संभव है कि इस वजह से वे कोर्स में भी लगा दिए गए हों।
लेकिन उनके कोर्स में लगाए जाने पर जो सात्विक क़िस्म का विलाप चल रहा है, वह एक अलग मज़ाक नज़र आता है। सच तो यह है कि प्रेमचंद और निराला क्या, पूरा का पूरा हिंदी साहित्य अप्रासंगिक बनाया जा रहा है। हिंदी साहित्य कोई पढ़ना नहीं चाहता, विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग सबसे दयनीय नज़र आते हैं। जो लोग विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले हैं, उनमें से 90 फ़ीसदी लोग साफ़-सुथरी भाषा तक नहीं लिख सकते, प्रेमचंद निराला को पढ़ाने के लिए पुराने नोट्स और पुरानी कुंजियों के अलावा उनके पास कुछ नहीं होता। बल्कि कभी प्रेमचंद-निराला ने देख लिया होता कि उन्हें किस तरह पढ़ाया जा रहा है तो वह अपनी कृतियाँ खुद वापस ले लेते।
हालाँकि लिखते-लिखते यह बात भी खयाल आ रही है कि सिर्फ हिंदी विभागों का नहीं, पूरे विश्वविद्यालयों का यही हाल होता जा रहा है। वे डिग्री बांटने वाली मुर्दा संस्थाओं में बदलते जा रहे हैं जहां ज्ञान के प्रति गहरी उदासीनता है। उनकी जगह वैसे चमचमाते निजी संस्थान ले रहे हैं जिन्होंने पढ़ाई लिखाई को बिल्कुल कमाई के अवसर तक सीमित कर दिया है।
बहरहाल, गोरखपुर विश्वविद्यालय में जिस किसी ने गुलशन नंदा या लुगदी साहित्य को वहां के पाठ्यक्रम में शामिल करने का साहस दिखाया है, उसने कम से कम एक नव्यता का परिचय तो दिया ही है। जो लोग साहित्य की उदात्तता के भाव से अभिभूत होकर प्रेमचंद और निराला का जाप कर रहे हैं, उन्हें कुछ तर्कसंगत ढंग से सोचना चाहिए। गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखकों को पढ़ाने का अर्थ सिर्फ यही नहीं हो सकता कि उन्हें प्रेमचंद और निराला के समक्ष बैठा दिया गया है, बल्कि इस पढ़ाई से यह भी समझ में आ सकता है कि उनमें और प्रेमचंद में क्या अंतर है, क्यों उनको लुगदी लेखक कहा जाता है और क्यों दूसरों को शास्त्रीय लेखक माना जाता है।
जहां तक प्रेमचंद, निराला का सवाल है, वे अपनी कीर्ति या अपकीर्ति के लिए विश्वविद्यालयों के मोहताज नहीं हैं। अगर चिंता करनी है तो हिंदी साहित्य और पाठ्यक्रम के उस वास्तविक लुगदीकरण की करनी चाहिए जिसकी चपेट में हमारे बहुत सारे लेखक हैं, उस लुगदी लेखन की नहीं, जिसे एक विश्वविद्यालय ने पढ़ाने का बीड़ा उठाया है।
अपनी राय बतायें