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तो स्वतंत्रता सेनानी से स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी नहीं सुन पाएँगे!

ख़्वाजा अहमद अब्बास (1914-1987) एक जाने मने फ़िल्म डायरेक्टर, पटकथा लेखक, उपन्यासकार एवं पत्रकार थे। इन सब में पत्रकारिता उनका सबसे प्रिये काम था। तभी तो उन्होंने अपनी आख़िरी वसीयत, जो ब्लिट्ज़ में उनके देहांत के अगले दिन छपा था, उसमें ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी कि उनका कफ़न लास्ट पेज़ (अंग्रेज़ी लिखे में उनके कॉलम का नाम) और आज़ाद क़लम (हिंदी और उर्दू में लिखे उनके कॉलम का नाम) का बनाया जाए। और वो चाहते थे कि उनके मरने  के बाद ये कॉलम पी. साईनाथ लिखें। इसी बाबत उन्होंने एक अलग से पत्र साईनाथ को लिखकर कहा कि "मुझसे एक वादा करो कि मेरे मरने के बाद तुम इस कॉलम को लिखना जारी रखोगे।" पी. साईनाथ ने इसके जवाब में कहा कि "मैं वादा करता हूँ। लेकिन आप पहले मरने की बात कहना बन्द करें। अब्बास ने ब्लिट्ज़ के संपादक करंजिया से अनुरोध किया कि 'लास्ट पेज' कॉलम पी. साईनाथ से ही लिखवाया जाए। क्योंकि वही इस कॉलम की वैचारिक पवित्रता को बरकरार रख सकते हैं। अब्बास की तरह ही साईनाथ ने भी भूख, अकाल, ग़रीबी, मानव पीड़ा, शोषण को केन्द्र में रखकर पत्रकारिता की।

‘एवेरी बॉडी लव्स अ गुड ड्रॉउट’ के लगभग दो दशक से भी अधिक समय के बाद उनकी नई किताब अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है। किताब का नाम "द लास्ट हीरोज़, फुट सोल्जर्स ऑफ़ इंडियन फ़्रीडम" है। 

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इस किताब में भारत के ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों की प्रेरक कहानियाँ हैं जिनके बारे में कम लोग जानते हैं। ऐसे ही सोलह कम ज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष की कहानी को इस किताब में दर्ज गया है। जैसा कि पी. साईनाथ किताब के परिचय में लिखते हैं- अगले पांच से छः साल के बाद हमारे साथ एक भी जीवित स्वतंत्रता सेनानी नहीं बचेंगे। हम उनकी ज़ुबानी न स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी को सुन सकेंगे न उन्हें देख सकेंगे। ये स्थिति हमारे नई पीढ़ी के लिए ख़ास तौर से चिंताजनक है। इसमें जो सबसे उम्रदराज़ स्वतंत्रता सेनानी हैं उनकी उम्र 104 साल और सबसे कम उम्र के सेनानी की उम्र 92 साल है। इन सोलह में से अब सिर्फ़ आठ ही जीवित हैं। छः की मृत्यु तो मई 2021 से अब तक हुई है। इतिहास के नाम पर हमें ज़्यादातर राजे महाराजे के बारे में या युद्धों के इतिहास के बारे में बताया जाता है। अगर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के बारे में बात की जाए तो अक्सर विदेशों में पढ़े-लिखे एलीट के योगदान के बारे में हमें जानने और पढ़ने को मिलता है। 

ये किताब हमें ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों से परिचय कराती है जिनके बारे कोई लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं है। इनके योगदान को न तो सराहा गया है और न ही मान्यता मिली है।

इन सब की पृष्ठभूमि अलग-अलग है। ये ग़रीब, किसान, मज़दूर, वन खाद्य संग्राहक हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में दलित आदिवासी महिलाओं के योगदान से भी हमें ये पुस्तक अवगत कराती है। इनके योगदान के अनुसार इन्हें उचित स्थान नहीं दिया गया है। इस किताब में शामिल सेनानियों को अगर देखें तो यह हमें भारत की विविधता से परिचय कराती है। इसमें अलग-अलग क्षेत्रों से, अलग-अलग भाषाएँ बोलने वाले, अलग-अलग धर्मों के मानने वाले, अलग-अलग संस्कृति का पालन करने वाले लोग हैं। इनमें आस्तिक, नास्तिक, मुस्लिम, हिन्दू, सिख, ओबीसी, ब्राह्मण, दलित, आदिवासी सबको शामिल किया गया है।

इन तमाम विविधताओं के बावजूद उनका मक़सद एक था और वो था ब्रिटिश राज से भारत की आज़ादी।

एक और ख़ास बात जो दर्ज करने वाली है वो ये है कि इनकी वैचारिक प्रतिबद्धता अद्भूत है। मिसाल के तौर पर किताब में शामिल एक स्वतंत्रता सेनानी, जिनका गांधीवाद और अहिंसा में अटूट विश्वास है, उनका नाम बाजी मोहम्मद है, ये उड़ीसा के रहने वाले हैं, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक घटना का ज़िक्र करते हुए कहते हैं "हमलोग एक शामियाने के नीचे बैठे हुए थे तो उसे फाड़ दिया गया, हम फिर भी बैठे रहे, उसके बाद ज़मीन पर पानी डाल कर मिट्टी को गीला किया गया ताकि हम बैठ नहीं पाएँ। हम फिर भी शांतिपूर्वक बैठे रहे। जब मैं पानी पीने के लिए नल पर गया तो मेरे सिर पर ज़ोर से मारा गया जिससे मेरा सिर फट गया और मुझे हॉस्पिटल ले जाया गया।" एक अन्य घटना के बारे में वो बताते हैं कि जब एक बार आमलोगों की भीड़ पुलिस पर हमला करने के लिए उतारू थी तो उन्होंने मना किया और कहा कि "हम मरेंगे लेकिन मारेंगे नहीं" लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन के पचास साल के बाद भी उनकी अहिंसा और सद्भावना में विश्वास में कोई कमी नहीं आई जब वो 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के समय एक सौ सदस्यीय कमेटी के सदस्य के रूप में अयोध्या में थे। उस दौरान वो घायल हो गए और एक सप्ताह अस्पताल में रहे, उसके बाद इससे उबरने के लिए एक महीना वाराणसी के आश्रम में रहना पड़ा। उड़ीसा के नबरंगपुर ज़िले के गोवद्ध विरोधी संघ का उन्होंने नेतृत्व किया। उनके टेबल पर हमेशा गीता, क़ुरआन और बाइबिल रखे हुए रहते हैं।

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एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी जो अजमेर राजस्थान के रहने वाले हैं उनका नाम शोभाराम गहरवार है। वो एक अम्बेडकरवादी हैं लेकिन उनको गाँधी से नफ़रत नहीं है। अम्बेडकर और गाँधी में उनका विश्वास है। वो कहते हैं- हम दोनों में जो भी अच्छाइयाँ हैं उनका अनुकरण करते हैं। साथ ही गांधीवादी होने के बावजूद उनका विश्वास क्रन्तिकारी विचारधारा में भी है। वो बम बनाते थे। हिंसा का सहारा लेकर भी उन्हें स्वतंत्रता हासिल करने में कोई गुरेज़ नहीं था। उनका कहना है कि मैं हर उस विचारधारा का अनुसरण करता हूँ जिससे मैं सहमत होता हूँ चाहे वो किसी का भी हो।

एक और स्वतंत्रता सेनानी, जिनका नाम लक्ष्मी पांडा है, वो इंडियन नेशनल आर्मी के फॉरेस्ट कैम्प में अपनी सेवाएँ देती थीं। तेरह साल की उम्र में वो उन लोगों के लिए खाना बनाती थीं जो अंग्रेज़ों से लड़ने के लिए जाते थे। हालांकि उन्होंने राइफल चलाने का प्रशिक्षण लिया हुआ था। लेकिन भारत सरकार की जो स्वतंत्रता सैनिक सम्मान योजना है वो बताती है कि केवल सात श्रेणी है जिसमें शामिल लोग ही इसमें शामिल होने के हक़दार हैं। लक्ष्मी पांडा कहती हैं "चूँकि मैंने कभी गोली नहीं चलाई हालाँकि मैं प्रशिक्षित हूँ और जेल नहीं गई इसलिए मुझे स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना गया।" ये हमारी नौकरशाही की कमी को उजागर करता है।

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इसी तरह से बाक़ी दूसरे सेनानियों की कहानी भी बड़ी ही रोचक, मार्मिक और प्रेरणादायक है। जैसा कि महात्मा गाँधी यरवदा जेल से 17 जनवरी 1931 को लिखे अपने एक पत्र में लिखते हैं “ऐसा प्रतीत होता है कि महापुरुष संसार में क्रांतियों के कारण होते हैं। लेकिन वास्तव में आम जनता ही इसके कारण होते हैं।” गांधी के इस कथन को ये किताब सही साबित करती है।

ये किताब ऐसे वक़्त में प्रकाशित हुई है जब देश आज़ादी का 75वां वर्ष पूरा कर रहा है। भारत सरकार ने इस अवसर का जश्न मनाने के लिए आज़ादी का अमृत महोत्सव कार्यक्रम को आयोजित किया है। लेकिन इसमें इन जीवित बचे हमारे स्वतंत्रता सेनानियों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है।

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रेयाज़ अहमद
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