मशहूर-ओ-मारूफ, ‘मक़बूल’ अदाकार इरफ़ान ख़ान के अचानक इंतिकाल से न सिर्फ़ बॉलीवुड-हॉलीवुड में उनके साथ काम करने वाले सह कलाकार, निर्देशक और टेक्नीशियन ग़मगीन हैं, बल्कि दुनिया भर में उनकी अदाकारी के चाहने वाले भी गम और मायूसी से डूबे हुए हैं। हर ओर उनकी अदाकारी के चर्चे हैं। आलमी तौर पर इतनी शोहरत बहुत कम अदाकारों को हासिल होती है। वे अदाकारी की इब्तिदा थे, तो इंतिहा भी। सहज और स्वाभाविक अभिनय उनकी पहचान था। स्पॉन्टेनियस और हर रोल के लिए परफेक्ट!
इरफ़ान की किस फ़िल्म का नाम लें और किस को भुला दें? उनकी फ़िल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिसमें उन्होंने अपनी अदाकारी से कमाल कर दिखाया है। ‘मक़बूल’, ‘हैदर’, ‘मदारी’, ‘सात ख़ून माफ़’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘तलवार’, ‘रोग‘, ‘एक डॉक्टर की मौत‘ आदि फ़िल्मों में उनकी अदाकारी की एक छोटी-सी बानगी भर है। यदि वे और ज़िंदा रहते, तो उनकी अदाकारी के खजाने से ना जाने कितने मोती बाहर निकल कर आते।
राजस्थान के छोटे से कस्बे टोंक के एक नवाब खानदान में 7 जनवरी 1967 को पैदा हुए, इरफ़ान ख़ान अपने मामू रंगकर्मी डॉ. साजिद निसार का अभिनय देखकर, नाटकों के जानिब आए। जयपुर में अपनी तालीम के दौरान वह नाटकों में अभिनय करने लगे। जयपुर के प्रसिद्ध नाट्य सभागार ‘रवींद्र मंच’ में उन्होंने कई नाटक किए। उनका पहला नाटक ‘जलते बदन‘ था। अदाकारी का इरफ़ान का यह नशा, उन्हें ‘नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा’ यानी एनएसडी में खींच ले गया। एनएसडी में पढ़ाई के दौरान पिता की मौत के बाद, उन्हें काफ़ी आर्थिक परेशानियाँ आईं। एक वक़्त, उन्हें घर से पैसे मिलने बंद हो गए। एनएसडी से मिलने वाली फेलोशिप के ज़रिए, उन्होंने साल 1987 में जैसे-तैसे अपना कोर्स ख़त्म किया।
स्टेज पर अभिनय करते-करते, वे टेलीविजन के पर्दे तक पहुँचे। गीतकार-निर्देशक गुलज़ार के सीरियल ‘तहरीर’ से लेकर ‘चंद्रकांता’, ‘श्रीकांत’, ‘चाणक्य’ ‘भारत एक खोज’, ‘जय बजरंगबली’, ‘बनेगी अपनी बात’, ‘सारा जहाँ हमारा‘, ‘स्पर्श’ तक उन्होंने कई सीरियल किए और अपनी अदाकारी से वाहवाही लूटी। ‘चाणक्य’ में सेनापति भद्रसाल और ‘चंद्रकांता’ में बद्रीनाथ और सोमनाथ के रोल भला कौन भूल सकता है?
साल 1988 में निर्देशक मीरा नायर ने अपनी फ़िल्म ‘सलाम बॉम्बे’ में इरफ़ान को एक छोटे से रोल के लिए लिया। फ़िल्म रिलीज होने तक यह रोल और भी छोटा हो गया। जिससे इरफ़ान निराश भी हुए। फ़िल्मों में केन्द्रीय रोल पाने के लिए इरफ़ान को एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त का इंतज़ार करना पड़ा। साल 2001 में निर्देशक आसिफ कपाड़िया की फ़िल्म ‘द वॉरियर’ उनके करियर की टर्निंग प्वाइंट साबित हुई। इस फ़िल्म से उन्हें ज़बरदस्त पहचान मिली। यह फ़िल्म अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में भी प्रदर्शित की गई। उनकी इस अंतरराष्ट्रीय ख्याति पर बॉलीवुड का भी ध्यान गया।
निर्देशक विशाल भारद्वाज ने अपनी फ़िल्म ‘मक़बूल’ के केन्द्रीय किरदार के लिए उन्हें चुना। साल 2003 में यह फ़िल्म रिलीज हुई और उसके बाद का इतिहास सभी जानते हैं। पंकज कपूर, तब्बू, नसीरउद्दीन शाह, ओमपुरी, पीयूष मिश्रा जैसे मंझे हुए अदाकारों के बीच इरफ़ान ने अपनी अदाकारी का लोहा मनवा लिया। साल 2004 में वह ‘हासिल’ फ़िल्म में आए। इस फ़िल्म में भी उन्हें एक नेगेटिव किरदार मिला।
अपने एक पुराने इंटरव्यू में इरफ़ान ने ख़ुद कहा था, ‘उनके करियर में सबसे बड़ी चुनौती, उनका चेहरा था। शुरुआती दौर में उनका चेहरा लोगों को विलेन की तरह लगता था। वो जहाँ भी काम मांगने जाते थे, निर्माता और निर्देशक उन्हें खलनायक का ही किरदार देते।
शारीरिक तौर पर बिना किसी उछल-कूद के, वे गहरे इंसानी जज्बात को भी आसानी से बयाँ कर जाते थे। हॉलीवुड अभिनेता टॉम हैंक्स ने उनकी अदाकारी की तारीफ़ करते हुए एक बार कहा था, ‘इरफ़ान की आँखें भी अभिनय करती हैं।’ वाक़ई इरफ़ान अपनी आँखों से कई बार बहुत कुछ कह जाते थे। इरफ़ान बॉलीवुड के उन चंद अदाकारों में से एक हैं, जिन्हें हॉलीवुड की अनेक फ़िल्में मिलीं और उन्होंने इन फ़िल्मों में भी अपनी अदाकारी का झंडा फहरा दिया। ‘अमेजिंग स्पाइडर मैन‘, ‘जुरासिक वर्ल्ड‘, द नेमसेक, ‘अ माइटी हार्ट’ और ‘द इन्फर्नो‘ जैसी हॉलीवुड की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुपर-डुपर हिट रही फ़िल्मों का वह हिस्सा रहे।
डैनी बॉयल की साल 2008 में आई ‘स्लमडॉग मिलेनियर‘ को आठ ऑस्कर अवॉर्ड्स मिले। जिसमें उनकी भूमिका की भी ख़ूब चर्चा हुई। यही नहीं, ताईवान के निर्देशक आंग ली के निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’ ने भी कई अकेडमी अवॉर्ड जीते। अपनी एक्टिंग के लिए इरफ़ान को अनेक अवार्डों से नवाजा गया।
इरफ़ान ख़ान पिछले दो साल से ‘न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर’ नामक ख़तरनाक बीमारी से जूझ रहे थे। 5 मार्च, 2018 को उन्होंने ख़ुद एक ट्वीट कर बताया था कि उन्हें एक दुर्लभ बीमारी है। अपनी पोस्ट की शुरुआत उन्होंने मार्गेरेट मिशेल के विचार से की थी। इरफ़ान ने लिखा था, ‘ज़िंदगी पर इस बात का इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता कि इसने हमें वह नहीं दिया, जिसकी हमें उससे उम्मीद थी।’ इतनी गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी, उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। ऐसे कलाकार मरकर भी नहीं मरते, बल्कि अमर हो जाते हैं।
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