(...पिछले अंक के बाद से)पिछले अंक में इस बात का उल्लेख है कि 60 सालों के तमाम 'प्रयासों' के बावजूद बीहड़ 9.5% की गति से बढ़ रहा है यानी भूमि क्षरण के चलते हर साल बीहड़ 8000 हैक्टेयर भूमि चाट जाता है। 'सुजागृति समाज सेवी संस्था' द्वारा 15 साल पहले किए गए सर्वे में अकेले मुरैना ज़िले में 35 हज़ार हैक्टेयर भूमि बीहड़ों में तब्दील होने की बात रिकॉर्ड में आई थी जिसके बाद उन्होंने विपरई आदि 7 गाँवों में औषधीय पौधों का रोपण शुरू किया जो आज वहाँ प्रगति और विकास की एक बड़ी सच्चाई बन चुके हैं। 'सुजागृति' की 'डोरबंदी' के बड़े मॉडल और प्रो. तोमर का विश्वविद्यालय के उद्यान के प्रयोगों का संदर्भ भी पिछले अंक में आपने पढ़ा है।
विकास और विनाश के बीच में फंसे हैं चंबल के बीहड़
- विचार
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- 25 Sep, 2020

अभी तक यद्यपि सरकार ने अपनी चंबल से जुड़ी नयी परियोजना की 'पद्धति' से पर्दा नहीं हटाया है लेकिन नीतियों को निकटता से अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि 'बीहड़ सुधार' और 'एक्सप्रेसवे'- वे दोनों ही परियोजनाएँ चंबल को पूरा-पूरा कॉर्पोरेट के हवाले कर देने का प्लान हैं। केंद्र और राज्य सरकार चंबल बीहड़ों को 'परती भूमि' के रूप में देखती है।
चंबल के बीहड़ों के किसान और यहाँ काम करने वाले सामाजिक और पर्यावरण विज्ञान से जुड़े लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि बहुत कम लागत वाले इन मॉडलों का, जिनमें न सिर्फ़ बड़े पैमाने पर स्थानीय ग्रामीणों की सामुदायिक भागीदरी थी, बल्कि जो कामयाब भी साबित हुए, उन व्यक्तियों और संस्थाओं को केंद्र या राज्य सरकार ने अपना काम आगे बढ़ाने के लिए क्यों नहीं प्रेरित किया? वे पूछते हैं कि क्यों बार-बार सार्वजनिक धन की गंगा बहाई जाती रही जिसका अंतिम लक्ष्य ही नाक़ामयाबी था? उनकी जिज्ञासा है कि क्यों हज़ारों करोड़ रुपए के पहाड़ के नीचे पलीता सुलगाने की तैयारी एक बार फिर से की जा रही है?