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यूएस राष्ट्रपति चुनाव: यांकी लोकतंत्र के लिए हम फिक्रमंद!

अमेरिका से लौट चुका हूँ। करीब एक महीने के प्रवास के बाद। लेकिन, अब भी अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव की गहमागहमी भूत की तरह पीछे पड़ी हुई है; करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों से रोज़ फोन मिलते रहते हैं और मैं भी खटखटाता रहता हूं; कमला हैरिस और डोनाल्ड ट्रम्प के पैंतरों की ख़बरें मिलती रहती हैं; दोनों के प्रति वहां की ज़मीनी धड़कनों का पता चलता रहता है। ट्रम्प पर तीसरी बार संभावित हमलावर की गिरफ्तारी और तुरंत ज़मानत पर उसे छोड़ने की ख़बर कल रात को ही मिल गयी थी। वहां के लोग इस घटना को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। लोगों को इस घटना, में नाटकीय तत्व अधिक लग रहा है। वज़ह है, दूसरी घटना से संबंधित गिरफ्तार व्यक्ति का मामला भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हुआ है। हथियारों से लैस ताज़ा आशंकित हमलावर भी विचित्र है। वह स्वयं को पत्रकार भी बता रहा है और ऐसे व्यक्ति को ज़मानत पर छोड़  देने की बात भी कई सवालों को जन्म दे रही है; वहां के लोगों को हैरत है कि क्या ऐसे किसी व्यक्ति को आसानी से ज़मानत मिलनी चाहिए; क्या यह किसी बड़ी योजना का हिस्सा तो नहीं है? ट्रम्प की लोकप्रियता में वांछित उछाल नहीं आ रहा है। स्थानीय लोगों को इसमें अदृश्य नाटकीय तत्वों का मिश्रण अधिक प्रतीत हो रहा है। 

वाक़ई भारत में हम जैसे लोग अजीब कश्मकश के शिकार हैं। डेमोक्रेट की भारत वंशी प्रत्याशी हैरिस और रिपब्लिकन प्रत्याशी व प्रधानमंत्री मोदी के ज़िगरी यार ट्रम्प की गतिविधियों पर बारीकी से नज़र रखी जा रही है; दोनों में से किसकी हैल्थ रिपोर्ट बेहतर है और किसका चेहरा कितना बुझा बुझा दिखाई देता है?; किसको कितना अधिक चंदा मिला है?; किसका लोकप्रियता का ग्राफ कितना गिरा -बढ़ा है?; किसने भारत के बारे में क्या कहा?; ट्रम्प के आने से भारत को लाभ होगा या घाटा और वे कितना टैरिफ लगाएंगे?; भारत वंशियों को किसे समर्थन देना चाहिए? आदि आदि। 

मेरा जैसा इंसान विडंबनाओं के भंवर में फंसा हुआ है। कहां तो मैं और मेरे जैसे अनेक साथी ज़िंदगी भर अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़ात्मे के लिए शब्द युद्ध के सैनिक बने रहे हैं, और आज़ है कि कमला हैरिस और ट्रम्प के बहाने अमेरिका में क्रमश: ‘उदार लोकतंत्र’ की जीत और रूढ़िवादी या निरंकुश लोकतंत्र की शिक़स्त की कामना कर रहे हैं। सितम्बर में दिल्ली छोड़ते समय भी डेमोक्रैट की उम्मीदवार कमला की जीत की कामना कर रहा था और अब भी वही कर रहा हूं। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प को शिक़स्त मिले, इसके लिए समविचार ठियों की तलाश में रहता हूं। यह निर्विवाद है कि ट्रम्प की आधुनिक पोशाक की काया में 19वीं सदी के पूर्व लिंकन अमेरिकी श्वेत वर्चस्ववाद का रक्त उनकी धमनियों में प्रभावित हो रहा है। वे गुलामी का नये संस्करण का इज़ाद करने का मंसूबा रखते हैं। 

इसीलिए अमेरिका का नस्लवादी कुख्यात संगठन ‘कु क्लुक्स क्लान (kkk)  उनका समर्थक मन जाता है। यह फासीवादी तत्वों का समूह है जोकि विभिन्न हिस्सों में फैला हुआ है और गैर -श्वेतों के खिलाफ नफ़रत का प्रचार करता है। यह भूमिगत भी काम करता है। इसके अतिरिक्त कुछ और भी छोटे-मोटे समूह हैं जो कि ट्रम्प के पक्ष में नफरत का व्यापार करते रहते हैं। साउदर्न पावर्टी लॉ सेंटर के अनुसार कई छोटे-मोटे ग्रुप हैं जो नस्लवाद फैलाते रहते हैं। कट्टर दक्षिणपंथी हैं। फासीवादी लक्षणों के समर्थक हैं। ज़ाहिर है, ये लोग अदृश्य ट्रम्प समर्थक माने जाते हैं। एक प्रकार से: ट्रम्प की साइलेंट आर्मी। मुख़्तसर में, आज हम भारतीय अमेरिका में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर ख़ासा चिंतित हैं!

 

इस बात का एहसास है कि कमला हैरिस या ट्रम्प, दोनों में कोई एक जीते, अमेरिका का मूल चरित्र जैसा है, वैसा ही रहेगा। वह चरम पूंजीवाद का पोषक ही रहने वाला है। नव साम्राज्यवाद का अगुआ बना रहेगा। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, एशियाई विकास बैंक जैसे वित्तीय अश्वों की सवारी वह करता रहेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ नाचता रहेगा उसकी उंगलियों पर। वह नाटो को कभी भंग नहीं करेगा। अमेरिका चाहेगा, उसका मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स फलता-फूलता रहे। भारत, पाकिस्तान समेत पिछड़े व अर्ध विकसित राष्ट्र उसके शस्त्रों के वफ़ादार ग्राहक बने रहें। वह शीत युद्ध के नये नये संस्करण पैदा करता रहे। आतंकवाद के नवीनतन रूप जन्म लेते रहें। वह एकल सत्ता ध्रुव के सिंहासन पर प्रलय तक आसीन रहे। 
अमेरिका चाहेगा उसके पास ही विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का ख़िताब रहे। अलबत्ता, वह वाशिंगटन -विरोधी सरकारों को गिराता रहेगा। उसके ही इशारों पर दक्षिण अमेरिकी देशों की सरकारों का उत्थान-पतन होता रहता है।
वह लोकतंत्र का हिमायती होने का दावा करता है, लेकिन इसराइल का संरक्षक भी बना रहना चाहता है। पैंतीस हज़ार से अधिक फिलिस्तीनियों का रक्त -दरिया बहने के बावज़ूद, वह मानवाधिकार का प्रथम व अंतिम रक्षक बने रहने का दावा करता रहेगा। उसे आधुनिक लोकतंत्र से प्यार है, लेकिन वह मध्ययुगीन सामंती सऊदी अरब के साथ भी इश्क़ में भी रमे रहना चाहता है। उसकी मोहब्बत, लोकतंत्र की पोशाक में तानाशाहों, निरंकुशों और फासीवादियों के साथ बदस्तूर रहती है। उसकी डॉलर -तिज़ोरी तालिबान, अल क़ायदा, इस्लामी राज्य जैसी मध्ययुगीन कट्टरपंथी ताक़तों को जनती रहेंगी, फिर भी वह आधुनिक जीवन व चिंतन शैली का सूत्रधार कहलाता रहेगा। 
विचार से और

क्या कमला हैरिस एक नितांत नए अमेरिका का निर्माण कर सकेंगी? क्या वे वाल स्ट्रीट की सत्ता को ध्वस्त कर सकेगीं? क्या वे गन -व्यापार सत्ता का अंत कर सकेंगी? क्या वे अमेरिकी राष्ट्र को एक ‘सच्चे उदार लोकतांत्रिक राष्ट्र’ में रूपांतरित करेंगी? क्या उनके राष्ट्रपति बनने के बाद व्हाइट हाउस और पेंटागन कमज़ोर व पिछड़े राष्ट्रों की शासन शैलियों में हस्तक्षेप करना बंद कर देंगे? क्या ‘सभ्यताओं के टकराव‘ की अवधारणा का पटाक्षेप हो जायेगा? क्या वे सुरक्षा परिषद का लोकतांत्रीकरण कर सकेंगी? क्या विजय के बाद दोनों में से कोई एक दुनिया के विभिन्न देशों में तैनात 1 लाख 70 हज़ार नियमित अमेरिकी सैनिकों को स्वदेश वापसी का आदेश देने की दुस्साहसिकता दिखा सकेगा? जापान और जर्मनी में सबसे बड़े अमेरिकी बेड़े 1945 से तैनात हैं। अमेरिका सातवें बेड़े की घुड़की जब -तब  देता रहता है।

डोनाल्ड ट्रम्प से किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना ‘आत्म छलावा’ के समान है। वे लोकतंत्र के ‘काऊ बॉय’ दिखाई देते हैं। न्यूयॉर्क, शिकागो जैसे शहरों में विशाल टावरों के मालिक ज़रूर हैं, लेकिन उनकी आत्मा 19वीं सदी के अमेरिका में बसती है। यह वह अमेरिका था जो ‘अश्वेत दासता’ पर पल रहा था अमरबेल बन कर। वही अमरबेल इस सदी में भी छितराई हुई है। ट्रम्प की चेतना का बसेरा इसी बेल के पत्ते पत्ते पर है। तभी तो वे इस सदी को ‘अमेरिकी सदी’ के रूप में देखते हैं, शेष विश्व मानवता धंसी रहे भाड़ में। उनकी बला से! वे विश्व वर्चस्ववादी अमेरिकी राज्य का इस्तेमाल पहले स्वयं के वैध -अवैध हितों के सम्वर्द्धन के लिए संकल्पबद्ध हैं। इसके बाद उस वर्ग के हितों का पोषण व संरक्षण करना चाहते हैं जो मानवता पर श्वेत वर्चस्व की पटकथा लिखता चला आ रहा है, सदियों से। 

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न्यूयॉर्क के मेनहट्टन के ‘पार्क एवेन्यू’ की गगनचुम्बी शीशे की बिल्डिंगों से अमेरिका समेत एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका की अश्वेत मानवता मन -मस्तिष्क -धमनियों को अनुकूलित करते रहते हैं। इस वर्ग का प्यादा बना रहता है अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान। ट्रम्प की आत्मा इन शीशे की इमारतों के बाशिंदों की तिजोरियों में बसी हुई है। यदि कमला हैरिस निम्न मध्य वर्ग के मकानों के लिए सस्ती ब्याज़ दरों पर क़र्ज़ देने की बात करती हैं तो ट्रम्प उन पर मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट, समाजवादी होने का लेबल चस्पा देते हैं। उनका उवाच होता है - कमला 1917 के सोवियत यूनियन को अमेरिका में लाना चाहती हैं। ऐसे बेलगाम-बेतुके उवाचों की पृष्ठभूमि में ट्रम्प कैसा अमेरिका बनाना चाहते हैं, इसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। उन्हें विस्थापित व उत्पीड़ित आप्रवासी मानवता से नफ़रत है। तभी तो उन्होंने घोषणा कर डाली है कि वे हैती आप्रवासियों को निकाल कर रहेंगे। हैती पालतू कुत्ता-बिल्ली को कहते हैं। अमेरिका के इतिहास में आप्रवासियों का सबसे बड़ा निष्कासन होगा। ट्रम्प तो अंध अमेरिकी राष्ट्रवाद का  मिसिसिपी - हडसन दरिया बहाना चाहते हैं!

मैं और मेरे जैसे बेशुमार लोगों का स्वप्न था कि अमेरिकी साम्राज्यवाद का अशांत -प्रशांत महासागरों में जलावतरण कर देंगे; समता की वोल्गा- गंगा- नील बहेंगी; मज़दूर -किसान ‘प्रोमोथियस’ की भूमिका निभाएंगे; स्वर्ग का उजाला धरा पर उतरेगा। पर कुछ न हुआ। आज हम उसी दैत्य साम्राज्य की व्यवस्था को बचाने में जुटे हुए हैं, 21वीं सदी में रंग-बिरंगे दास बन कर! है ना विडंबनाओं से भरा चमत्कार?

हम नव दासों का तर्क है कि उदार लोकतंत्र संकटग्रस्त है, रूढ़िवादी -वर्चस्ववादी -बहुसंख्यकवादी लोकतंत्र का अजगर निगलता जा रहा है मानवता को, राष्ट्र राज्यों को। कमला हैरिस की जीत में भारत के लोकतंत्रवादी अपनी संभावित जीत का अक़्स देख रहे हैं।

शायद दुनिया के शेष उदार लोकतंत्रवादियों का स्वप्न भी यही होगा! विडंबना यह है कि दुनिया के विकसित देशों में भी लोकतंत्र का अस्तित्व संकट के दौर से गुजर रहा है। चरम दक्षिण पंथ का बवंडर दबोच रहा है उदार लोकतंत्रों को। भारत भी कहां अपवाद रह गया है? अल्पमत की सरकार हाँक रही है लोकतंत्र और संविधान को। आज़ जंग है उदार -सहनशील -धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाम सर्वसत्तावादी, एकल संस्कृति -सभ्यतावादी -भाषावादी -शुद्धतावादी लोकतंत्र की। पक्ष तो लेना ही होगा, मुहाने पर खड़े रह कर मूक दर्शक नहीं बने रह सकते। विडंबनाओं के भंवर में रह कर ‘एम्पायर’ की रक्षा करनी है, इस भ्रम के साथ कि कोई दूसरा  एम्पायर जन्म न ले ले! (प्रसंगवश, माइकल हर्ट और एंटोनिओ नेग्री की बहु चर्चित पुस्तक - एम्पायर को याद किया जाना चाहिए।) लेकिन, विडंबनाओं से बना मोतियाबिंद दृष्टि पर भी छाया रहेगा। लेकिन, आनेवाले कल में एम्पायर से स्थायी मुक्ति ‘भ्रम है या यथार्थ’, मैं कह नहीं सकता। ‘निरूत्तरता’ ही साझी नियति है!

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रामशरण जोशी
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