“अमेरिकियों ने लोकतंत्र के शिष्टाचार का ही स्वाद चखा है जो कि वास्तविक लोकतंत्र से बिलकुल भिन्न है। मतदाताओं ने धन-सम्पति में गहरी विषमताओं को स्वीकार कर लिया है, और इस अपेक्षा के साथ कि उनके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि उनसे भिन्न नहीं निकलेंगे।” नैंसी इसन्बर्ग (वाइट ट्रैश, पृ.16 )
विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक और विकसित देश होने का दंभ भरनेवाले अमेरिका में ऐसे भी मतदाता हैं जिन्हें आज भी ‘श्वेत कचरा, नमूना कचरा, मिट्टी खोर, आलसी, ज़ाहिल, लाल गर्दन, पीली चमड़ी, फालतू लोग, पहाड़ी भोंदू, पटाखा, कीचड़ घूरा, बक़वास, रेत छुपैया, पहाड़ी‘ जैसे विकृत उपनामों से सम्बोधित किया जाता है! क्या आपको हैरत नहीं है?
ज़ी हां, यह अमेरिकी या यांकी समाज की ऐसी कुरूप सच्चाई है, जिसे बड़े जतन के साथ ढक कर रखा जाता है। लेकिन, मतदाता- बाज़ार में इन उपनामों का शोर भी सोशल मीडिया और आपसी चर्चाओं में सुनाई देने लगता है। जब से रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प की पंचम स्वर में चुनावी सभाएं होने लगी हैं, तब से इन अपमानजनक सम्बोधनों की चलन रफ़्तार भी बढ़ गई है। टीवी स्क्रीन पर सभाओं को देखते ही सामान्य दर्शक बताने लगते हैं, ‘जोशी जी, देखिये भीड़ में बैठे वे वाइट ट्रैश (श्वेत कचरा) हैं और ट्रम्प के कट्टर समर्थक भी हैं। ‘अमेरिकी समाज में मनुष्यों या मतदाताओं के ऐसे भी सम्बोधन प्रचलित हैं? मैं हैरान हूँ!
मेरी अमेरिकी आवाजाही रहती रही है। लेकिन, इस दफ़ा इन अजीबो -ग़रीब सम्बोधनों ने मेरा ध्यान अपनी तरफ़ खासा खिंचा है। इनकी तह में जाने की कोशिश की। ये सम्बोधन अश्वेत (भारतवंशी समेत) समुदायों के लिए नहीं हैं, बल्कि इनका प्रयोग खांटी श्वेत समुदाय के लोगों के लिए किया जाता है। इसका लम्बा इतिहास है। मगर, चुनाव के वक़्त ये उपनामधारी ज़रूर आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। जबसे ट्रम्प का अमेरिकी राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर उभार हुआ है तब से ये लोग लगातार चर्चा में रहते आये हैं। 2016 में ट्रम्प की पहली पारी की शुरुआत से इस ओर विशेष ध्यान जाने लगा है। बौद्धिक क्षेत्रों में बहसें होने लगी हैं। 2016 में प्रकाशित नैंसी इसन्बर्ग की पुस्तक ‘white trash (श्वेत कचरा)’ की वजह से इस वर्ग के लोगों पर नये सिरे से बहस हो रही है। जाना जा रहा है कि ये लोग श्वेत और स्वतंत्र लोग हैं, फिर भी श्वेत समाज की मुख्यधारा में इन लोगों को सम्मान व गरिमा की दृष्टि से देखा नहीं जाता है।
चुनाव के समय ही इनकी पूछ बढ़ जाती है। मतदान समाप्ति के बाद इन लोगों को वापस उनके अपमानजनक संबोधनों के साथ वापस हाशिए पर फेंक दिया जाता है। एक तरह से ये उपेक्षित, जहालतभरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश अवैध धंधों को अपनाते हैं; माफिया, मादक वस्तुओं के तस्कर, यौन तस्कर, पेशेवर हत्यारे आदि बन जाते हैं। अमेरिका की अंडरग्राउंड लाईफ के स्वामी कहलाते हैं। समझा जाता है कि देश के 25-30 शहरों में इनकी प्रभावी मौजूदगी है। अमेरिका के टॉप 10 शहरों में इनकी तूती बोलती है, जिनमें लिटिल रॉक, अल्कांसा, टोलीडो, दायतों (ओहिओ), एबलाइन, वाको (टेक्सास), स्प्रिंगफील्ड,, नॉर्थ कैरोलिना, ओखोलोमा सिटी, लुसियाना, मोंटोगोमरी (अलबामा) जैसे शहर शामिल हैं। इन शहरों ने अपने विशेषीकृत अपराधों के लिए कुख्याती अर्जित की है। इन शहरों को ट्रंप भक्तों के अड्डों के रूप में देखा जाता है। हैरत यह है कि ब्लैक समुदाय के लोगों के लिए पहले से ही अशोभनीय संबोधन हैं, लेकिन अभिजन श्वेत वर्गों ने अपने ही श्वेत लोगों के लिए अपमानजनक संबोधनों को गढ़ रखा है।
अमेरिका में श्वेत कचरा की बसाहट दक्षिण प्रांतों में अधिक है। और ये लोग रिपब्लिकन पार्टी के परंपरागत समर्थक रहते आए हैं। इनमें अधिकांश स्कूल ड्रॉप आउट रहते हैं। इनमें उच्च शिक्षा की बेहद कमी है।
अमेरिका का यह परिदृश्य हम भारतीयों के लिए अज़नबी नहीं है। यहां भी धर्म-मज़हब -जाति के नाम पर बेशुमार भ्रमों को वंचित वर्ग के मतदाताओं के दिलो -दिमागों में पैदा किया जाता है; विश्व गुरु, भारत महान, अखण्ड भारत आदि के स्वप्न दिखाए जाते हैं। लोकतंत्र को सिर्फ मतदान तक सीमित कर दिया गया है। वोट डालने का अर्थ ही लोकतंत्र है, जबकि यह लोकतंत्र की सिर्फ एक क्रिया है। लोकतंत्र जीवन और देश की जीवन शैली है। क्या मतदाताओं को लोकतान्त्रिक चेतना से लैस किया जा रहा है? क्या सरकार बदलना ही सबकुछ है? राज्य और शासकों का कैसा चरित्र होना चाहिए, क्या ऐसे सवालों की शक्ति से जनता को लैस किया जा रहा है? कहीं हम विविध रंगी मतदाताओं को सिर्फ ‘मत कचरा‘ में तब्दील तो नहीं किया जा रहा है? कहीं हम ‘श्वेत कचरा -मिट्टी खोर’ के भारतीय संस्करण तो नहीं बनते जा रहे हैं? यदि इसका जवाब ’हां’ है तो लोकतंत्र को मौत से कैसे बचाया जा सकता है? ज़रा सोचिये!
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