राजनीति शास्त्र की भाषा में एक बात कही जाती है- लोकतांत्रिक बर्बरता। लोकतांत्रिक बर्बरता अमूमन न्यायिक बर्बरता से पलती है। 'बर्बरता' शब्द के कई अवयव हैं। पहला है न्यायपालिका से जुड़े निर्णयों में मनमानी का बहुत अधिक देखा जाना। क़ानून के इस्तेमाल में जजों की निजी इच्छा या सनक इतनी हावी हो जाती है कि नियम-क़ानून या संविधान का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। क़ानून उत्पीड़न का औजार बन जाता है या अधिक से अधिक यह उत्पीड़न को बढ़ावा देता है, उसमें मदद करता है।
न्यायिक बर्बरता की ओर बढ़ रहा है सुप्रीम कोर्ट!
- विचार
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- 19 Nov, 2020

लेखक व बुद्धिजीवी प्रताप भानु मेहता ने भारतीय न्यायपालिका के मौजूदा संदर्भ में लोकतांत्रिक बर्बरता का मुद्दा उठाते हुए 'इंडियन एक्सप्रेस' में एक लेख लिखा। सत्य हिन्दी उसका अनुवाद प्रस्तुत कर रहा है।
ताप भानु मेहता अशोक विश्वविद्यालय के उप-कुलपति हैं। वे देश के अत्यंत सम्मानित चिंतक और बुद्धिजीवी है।