राजनीति शास्त्र की भाषा में एक बात कही जाती है- लोकतांत्रिक बर्बरता। लोकतांत्रिक बर्बरता अमूमन न्यायिक बर्बरता से पलती है। 'बर्बरता' शब्द के कई अवयव हैं। पहला है न्यायपालिका से जुड़े निर्णयों में मनमानी का बहुत अधिक देखा जाना। क़ानून के इस्तेमाल में जजों की निजी इच्छा या सनक इतनी हावी हो जाती है कि नियम-क़ानून या संविधान का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। क़ानून उत्पीड़न का औजार बन जाता है या अधिक से अधिक यह उत्पीड़न को बढ़ावा देता है, उसमें मदद करता है।
क्या है न्यायिक बर्बरता?
मोटे तौर पर इसमें यह होता है कि नागरिक अधिकारों और असहमति रखने वालों की सुरक्षा ठीक से नहीं हो पाती है और राज्य की सत्ता का सम्मान, ख़ास कर संवैधानिक मामलों में, बहुत ही बढ़ जाता है। अदालत अपने प्रति ही काफी चिंतित हो उठता है, वह किसी डरे हुए सम्राट की तरह हो जाता है, उसकी गंभीर आलोचना नहीं की जा सकती है, उसका मजाक नहीं उड़ाया जा सकता है। उसकी भव्यता उसकी विश्वसनीयता से नहीं, बल्कि अवमानना के उसके अधिकार से चलती है।
और अंत में, ज़्यादा गंभीर अर्थों में बर्बरता होती है। ऐसा तब होता है जब राज्य अपनी ही जनता के एक वर्ग के साथ जनता के शत्रु की तरह व्यवहार करने लगता है। राजनीति का उद्येश्य सबके लिए बराबर का न्याय नहीं रह जाता है, इसका मक़सद राजनीति को पीड़ित और उत्पीड़क के खेल में बदल देना होता है और यह सुनिश्चित करना होता है कि आपका पक्ष जीत जाए।
भारत का सर्वोच्च न्यायालय कभी भी संपूर्ण नहीं रहा। पहले भी इसका काला काल रहा है। पर इसके संकेत मिलने लगे हैं कि यह न्यायिक बर्बरता की ओर बढ़ने लगा है।
यह परिघटना सिर्फ कुछ जजों और कुछ मामलों तक सीमित नहीं है। अब यह व्यवस्थागत परिघटना है और इसकी गहरी संस्थागत जड़ें हैं। यह अंतरराष्ट्रीय रुझान का हिस्सा है और इस तरह की घटना तुर्की, पोलैंड और हंगरी में देखी जा सकती है, जहाँ न्यायपालिका ने लोकतांत्रिक बर्बरता की मदद की है। निश्चित तौर पर सारे जज इसके सामने घुटने नहीं टेक रहे हैं, व्यवस्था के अंदर ही प्रतिरोध जहां तहां अभी भी है।
बीच-बीच में स्वतंत्रता के सिद्धान्तों की महानता के उदाहरण भी आएंगे, बीच-बीच में योग्य वादियों को राहत भी दी जाएगी, ताकि इस संस्थान के ऊपर सम्मान का एक महीन आवरण चढ़ा रहे, लेकिन दूसरी ओर रोज़मर्रा के कामकाज में यह और सड़ता ही जाएगा।
न्यायिक बर्बरता के लक्षण
तो न्यायिक बर्बरता के क्या लक्षण हैं? अदालत ने उन मामलों की सुनवाई समय पर करने से इनकार कर दिया, जो लोकतंत्र की संस्थागत प्रतिबद्धता के लिए ज़रूरी हैं, उदाहरण के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला। यह अब किसी से छुपा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट या कई हाई कोर्ट में ज़मानत देने या उससे इनकार करने के मामले में नए स्तर की मनमानी होने लगी है।जैसा कि मुकदमे का सामना कर रहे किसी भी आदमी को पता होता है, भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय का सामना करना कुछ हद तक भाग्य पर निर्भर करता है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मौजूदा समय बदला हुआ है। सुधा भारद्वाज जैसे देशभक्त या आनंद तेलतुम्बडे जैसे चिंतकों को ज़मानत देने से इनकार किया जा रहा है। उमर खालिद को अपनी कोठरी से बाहर निकलने की थोड़ी राहत दी गई, पर सीएए-विरोधी दूसरे कई छात्रों के बारे में हमें पता नहीं है।
पर्किन्सन्स डिजीज़ से जूझ रहे 80 साल के एक बुजुर्ग को एक स्ट्रॉ तक नहीं दी गई, और अदालत इसकी सुनवाई समय आने पर करेगी। क्रूरता का इससे अधिक प्रदर्शन कोई सोच नहीं सकता है।
यह चूक नहीं है!
सैकड़ों कश्मीरियों को बंदी प्रत्यक्षीकरण से राहत देने से इनकार कर दिया गया। ये सभी संस्थागत अकुशलता की वजह से न्यायिक प्रक्रिया के चूकने के अलग-थलग उदाहरण नहीं हैं। ये सीधे तौर पर उस राजनीति के नतीजे हैं जो विरोध, असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को राज्य के संभावित शत्रु के लिहाज से देखते हैं। इसे अब न्यायपालिका से मदद मिलने लगी है। और यह कहना होगा कि इसे अलग-अलग राज्यों में वहां की राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार दुहराया जा सकता है।
जो चुनिंदा नागरिक स्वतंत्रता के मामले के रूप में शुरू हुआ, वह आगे चलकर राज्य का बुनियादी सिद्धान्त बन सकता है। अब जबकि एक के बाद एक राज्य लव जिहाद से जुड़ा क़ानून लाने पर विचार कर रहे हैं, जो कि एक कपटपूर्ण और मूर्खता से भरा सांप्रदायिक मामला है, आप देखें कि किस तरह न्यायपालिका स्वतंत्रता पर नवीनतम हमले को क़ानूनी रूप देने में मदद करती है।
हम उस चरण को पार कर चुके हैं जहां अदालत की खामियों को संस्थागत सुधार की भाषा में छुपाया जा सके। जो हो रहा है, वह है लोकतांत्रिक बर्बरता को न्यायिक भाषा देना।
अनौपचारिक आपातकाल?
सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब गोस्वामी को ज़मानत देकर बिल्कुल ठीक किया। इसने अंत में उत्तर प्रदेश सरकार को एक पत्रकार की गिरफ़्तारी पर नोटिस जारी किया। पर जस्टिस एस. ए. बोबडे के हस्तक्षेप करने और यह कहने से कि सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 को निरुत्साहित करता है, सारे भेद खुल गए। अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान के गौरवों में से एक है जो लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। सिर्फ आपातकाल में इस पर रोक लगाई जा सकती है।
इस अनुच्छेद को निरुत्साहित करना हमारे समय का बिल्कुल सही रूपक है। हम औपचारिक आपातकाल की घोषणा नहीं करना चाहते, पर ज़रूरत पड़ने पर हम उसके जैसा ही व्यवहार कर सकते हैं।
अनुच्छेद 32 पर रोक लगाने के बदले उसे इस्तेमाल के लिए निरुत्साहित किया जाए।
'हमारे पीड़ित' बनाम 'तुम्हारे पीड़ित'
इसके ख़िलाफ़ संघर्ष आसान नहीं है। लोकतांत्रिक बर्बरता जहां हर चीज को सार्वजनिक हित नहीं, पक्षधरता के चश्मे से देखा जाए, न्यायपालिका के आकलन को आंशिक रूप से प्रभावित किया है। इसलिए सार्वजनिक बहस न्यायपालिका के ‘हमारे पीड़ित बनाम तुम्हारे पीड़ित’ में उलझ कर रह गया है और इस कारण क़ानून के राज पर आम सहमति नहीं बनती है। विडंबना यह है कि हर मामले में हस्तक्षेप कर पंचायत करने की जो क़ानूनी सक्रियता है, उससे इस न्यायिक विषाक्तता को वैधता मिलती है। यह चलन अभी भी है।
उदाहरण के लिए, सेंट्रल विस्टा परियोजना पर आपकी एक राय हो ही सकती है, पर इस कारण अदालत उस पर विचार करे, यह तो कोई बात नहीं हुई। अदालत से छोटी-मोटी नीतिगत जीत हासिल करने के लिए हम संवैधानिक नीतियों और सिद्धांतों में इसकी खामियों को वैधता प्रदान करते हैं।
तीसरी बात, अदालत में एक संस्कृति है। दुष्यंत दवे, गौतम भाटिया, श्रीराम पाँचू जैसे लोग हैं, पर इस तरह का काम अभी भी गंभीर पेशेवर गतिविधि में तब्दील नहीं हुआ है।
वरिष्ठ वकीलों और जजों का यह न्यायपालिका की भव्यता को लेकर सोच अभी भी वैसी ही है, यह न्यायिक बर्बरता के अनुकूल है। यह थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर अभद्र तरीके से कही गई बात हो सकती है, पर जब आप बुनियादी क़ानून वाली न्यायपालिका के संकेत देखते हैं तो आम नागरिकों के लिए भद्रता का विकल्प नहीं बचता है।
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