राजनीति शास्त्र की भाषा में एक बात कही जाती है- लोकतांत्रिक बर्बरता। लोकतांत्रिक बर्बरता अमूमन न्यायिक बर्बरता से पलती है। 'बर्बरता' शब्द के कई अवयव हैं। पहला है न्यायपालिका से जुड़े निर्णयों में मनमानी का बहुत अधिक देखा जाना। क़ानून के इस्तेमाल में जजों की निजी इच्छा या सनक इतनी हावी हो जाती है कि नियम-क़ानून या संविधान का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। क़ानून उत्पीड़न का औजार बन जाता है या अधिक से अधिक यह उत्पीड़न को बढ़ावा देता है, उसमें मदद करता है।