सुप्रीम कोर्ट अब एक ऐसे बेढब दिखने वाले फंतासी पात्र की तरह दिखने लगा है, जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। इसका स्वरूप रहस्यमय तरीके से बदलता रहता है, मासूम चेहरा इसकी ज़हरीली फुफकार को ढँक देता है, और ज़रूरत के हिसाब से आकार बदलता रहता है। अदालत संवैधानिक क़ानूनों पर फ़ैसला नहीं सुनाता। वैधानिकता की जगह वह  प्रशासनिक और राजनीतिक प्रबंधन के मामलों में चहलक़दमी करता है।