- क्या कोई एंकर अपनी मर्जी से निष्पक्षता तोड़ते रहने का क्रम चला सकता है?
- क्या एंकर किसी को म्यूट (आवाज़ दबाना) और किसी को अनम्यूट (आवाज़ खोलना) स्वयं कर सकता है?
एक गैर पत्रकार ही इसका उत्तर ‘हां’ में दे सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने टीवी चैनलों पर तटस्थ नहीं रहने, किसी के पक्ष में या किसी के विरोध में हो जाने के लिए एंकर को ज़िम्मेदार ठहराने वाली टिप्पणी कर वास्तव में बड़ी सच्चाई की पर्देदारी की है। सर्वोच्च न्यायालय के सम्मान में यह कहने की आवश्यकता है कि ऐसा अनजाने में हुआ है।
ओहदेदार हैं एंकर के नफ़रती होने के जिम्मेदार
एक एंकर किसी खास बुलेटिन में अपनी निष्पक्षता एक बार तो तोड़ सकता है। लेकिन, बुलेटिन खत्म होते-होते उसकी नौकरी चली जा सकती है। नौकरी लेने वाले ‘ओहदेदार’ जब तक एंकर की निष्पक्षता तोड़ने का साथ नहीं देगा, उसकी हौसलाअफजाई नहीं करेगा, उसे बेहतर करियर का आकर्षण नहीं दिखाएगा… तब तक एंकर स्वयं निष्पक्षता तोड़ने को निरंतरता क़तई नहीं दे सकता।
डिबेट के दौरान किसी की आवाज़ दबाना या आवाज़ बढ़ाना टीवी चैनलों में पैनल कंट्रोल रूम यानी पीसीआर का काम होता है। यहां तकनीकी स्टाफ होते हैं जो संपादकीय देखरेख में अपना काम कर रहे होते हैं।
आवाज़ कम या अधिक करना एंकर के वश में नहीं
अगर एंकर संपादकीय स्तर पर ओहदेदार है या चैनल का मालिक है तब तो उसका इशारा भी पीसीआर समझ रहा होता है। ऐसे उदाहरणों में ‘रिपब्लिक भारत’ के अर्णब गोस्वामी या ‘सुदर्शन’ के सुरेश चव्हाण का नाम लिया जा सकता है।
ऐसे मामलों में जहां एंकर चैनल मालिक या ओहदेदार नहीं हैं स्थिति भिन्न होती है। एंकर रिमोट से चलने वाला खिलौना भर होता है। नफरत फैलाने या पक्षपाती होने वाला जो एंकर का रूप होता है उसके लिए जिम्मेदार पूरी टीम होती है। टीमवर्क के जरिए ही पूरा शो एकतरफा और एकपक्षीय हो पाता है जिसकी धुरी एंकर होता है।
अक्सर अपनी ‘दुर्दशा’ पर कोफ्त में होते हैं एंकर
सच यह भी है कि कई एंकर स्क्रीन पर अपनी मर्जी के खिलाफ बोल रहे होते हैं, सवाल कर रहे होते हैं और (कु)तर्क कर रहे होते हैं। ऐसे एंकर स्क्रीन के बाहर ऑफलाइन बातचीत में अपनी स्थिति पर कोफ्त का इजहार कर रहे होते हैं। काश! ऐसे ‘गुलाम’ या ‘मजबूर’ एंकरों की भावना सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाती! जब सुप्रीम कोर्ट इस पहलू से ही अनजान है, टीवी चैनल की कार्यपद्धति और प्रक्रियागत बातों से भी अनभिज्ञ है तो ऐसे ‘गुलाम’ या ‘मजबूर एंकरों’ की खोज का आइडिया भी उसकी जेहन में कैसे आ सकता है? वास्तव में एंकर के बारे में सुप्रीम कोर्ट की धारणा से सच्चाई बिल्कुल उलट है।
इसमें कोई शक नहीं कि एंकर की जिम्मेदारी बड़ी है। उसकी ओर से तटस्थता टूटने पर या पक्षपात होने पर मीडिया के हाथों अन्याय हो रहा होता है। मगर, एक व्यक्ति के रूप में एंकर अंतिम रूप से इसके लिए क़तई ज़िम्मेदार नहीं होता।
एक एंकर अपनी मर्जी से चैनल की लाइन तय नहीं कर सकता। न तय लाइन से अलग रास्ता ले सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि कोई है जो एंकर की पोजिशन का दुरुपयोग कर रहा है! कोई है जो एंकर को रिमोट कंट्रोल से मनमुताबिक हाँक रहा है! वह कोई और नहीं, चैनल का मालिक या ‘ओहदेदार’ ही है। उन्हें ही इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
जब अखबार में प्रकाशित किसी ख़बर के लिए अकेले रिपोर्टर को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता है। संपादक, मुद्रक और प्रकाशक भी जिम्मेदार ठहराए जाते हैं तो इसके पीछे भी यही दलील रहती आयी है। रिपोर्टर की क्या बिसात कि वह अखबार में अपनी मर्जी चला ले!
एंकर को ऑफ एयर करना समस्या का समाधान नहीं
अगर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर अमल करते हुए नफरत फैलाने वाले या पक्षपात करने वाले एंकर को ऑफ एयर कर देने भर से इस समस्या का समाधान हो जाए, तो अगली समस्या संभवत: यह होगी कि 365 दिन के लिए 365 एंकर समाज में जहर फैलाते नज़र आएं।
किसी एंकर को ऑफ़ एयर करना सांस्थानिक दायित्व है। जब सांस्थानिक दायित्व पूरा नहीं हुआ है तभी समस्या सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची है। फिर इस गंभीर मुद्दे को वापस संस्थान के ही हवाले करने वाली सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी स्वयं पुनरावलोकन के विचाराधीन होनी चाहिए।
खास धर्म, खास दल के लिए ही क्यों टूटती है निष्पक्षता?
निष्पक्षता तोड़ने वाले, नफरती डिबेट कराने वाले, धर्म विशेष के खिलाफ आग उगलने वाले या ऐसी ही करतूत करते एंकर वास्तव में किसी और की मर्जी चला रहे होते हैं। इस मर्जी की एक दिशा होती है। ऐसा नहीं है कि दिशाविहीन होकर एंकर एक पक्ष के खिलाफ दूसरे पक्ष की आवाज़ बुलंद कर रहा होता है। अगर ऐसा होता तो हमेशा वह एक राजनीतिक दल या एक धर्म विशेष के हक में खड़ा नज़र नहीं आता।
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