कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय
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चंपाई सोरेन
बीजेपी - सरायकेला
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इस बार स्वतंत्रता दिवस पर लालक़िले से भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने परिवारवाद और भ्रष्टाचार के अलावा ‘तुष्टीकरण’ पर भी निशाना साधा है। बहुत दिनों से नेपथ्य में पड़े इस शब्द को शिखर से निशाना बनाया जाना बेहद गंभीर मामला है, ख़ासतौर पर जब भारत के मुसलमान इतिहास के सबसे कमज़ोर स्थिति में हैं। उन्हें सार्वजनिक रूप से जलील किया जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर उन्हें ‘राष्ट्र से खारिज’ करने का अभियान चलाया जा रहा है। यहाँ तक कि मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार करने वालों की रिहाई सुनिश्चित की जा रही है और रिहा होने के बाद उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया जा रहा है।
‘तुष्टीकरण’ से आशय एक ऐसी राजनीतिक शैली से है जिसमें किसी आक्रामक समूह को बेज़ा रियायतें दी जाती हैं। आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी शुरू से कांग्रेस पर तुष्टीकरण का आरोप लगाते रहे हैं ताकि हिंदू बहुमत के बीच उसे मुस्लिमपरस्त पार्टी साबित किया जा सके। यह अभियान काफ़ी हद तक सफल भी रहा है। लेकिन कांग्रेस या कोई दूसरा विपक्षी दल तो केंद्र की सत्ता में है नहीं! दस साल से तो मोदी ही प्रधानमंत्री हैं। फिर ये तुष्टीकरण कर कौन रहा है? और इसका सामाजिक न्याय पर कैसे बुरा असर पड़ा है जिसका कि दावा पीएम मोदी ने किया है।
प्रधानमंत्री की ओर से तुष्टीकरण का ये जुमला तब उछाला गया है जब दुनिया भारत में अल्पसंख्यकों के जनसंहार को लेकर आशंकित है। नवंबर 2021 में यूएस हॉलोकास्ट म्यूज़ियम ने भारत को उन देशों की सूची में शीर्ष पर रखा था जहाँ अल्पसंख्यकों का जनसंहार हो सकता है। 2022 की जनवरी में ‘जेनोसाइड वॉच’ के संस्थापक ग्रेगरी स्टेंटन ने अमेरिकी कांग्रेस के सामने भी इसी तरह की रिपोर्ट रखी थी। उन्होंने ‘हरिद्वार धर्म संसद’ में मुस्लिमों के सफाये की अपील करने वाले सार्वजनिक भाषणों का उदाहरण देते हुए चेतावनी दी थी कि भारत में जनसंहार हो सकते हैं। ग्रेगरी स्टेंटन वही हैं जिन्होंने 1989 में अफ्रीकी देश रवांडा के बारे में ऐसी ही चेतावनी जारी की थी जो 1994 में सही साबित हुई थी। तब रवांडा में तुत्सी कबीले के लगभग 8 लाख नागरिकों की हत्या हुतु कबीले के उग्रवादियों ने कर दी थी जिन्हें सरकार का संरक्षण प्राप्त था।
जिन्हें ऐसी चेतावनियाँ अतिरंजित लग रही हों उन्हें पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट की चेतावनी पर ग़ौर करना चाहिए। हाईकोर्ट ने नूंह हिंसा के बाद चल रहे बुलडोज़र अभियान का स्वत: संज्ञान लेते हुए उस पर रोक लगा दी। हाईकोर्ट ने इसे एक ‘समुदाय विशेष’ को निशाना बनाने वाला अभियान बताया और सवाल किया कि क्या यह ‘जातीय सफ़ाये’ की कवायद है?
इस अमानवीय और अल्पसंख्यक विरोधी सरकारी नीति पर शर्मिंदा होने के बजाय बीजपी सरकारें और समर्थक इसका ढोल पीटते हैं।
आरएसएस और बीजेपी की वैचारिक ज़मीन में अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर ईसाई और मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा शामिल है। उनसे जुड़े संगठन लगातार इसी नीति के तहत अपनी सक्रियता दिखाते हैं। लेकिन सरकार से इतनी उम्मीद तो की ही जाती है कि वो कानून तोड़ने वालों को सज़ा दे। पर बीजेपी सरकारों में निजी से लेकर सार्वजनिक रूप में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न ही नहीं, हत्या करने वाले भी ख़ुद को ‘अदंड्य’ मान रहे हैं। यानी उन्हें दंड का कोई भय नहीं है। लिंचिंग करने वालों से लेकर मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करने वालों की जिस तरह जेल से रिहाई होती है और फिर बीजेपी के नेता उनका सार्वजनिक सम्मान करते हैं, वह सारा भेद खोल देता है।
ऐसे में आज तुष्टीकरण तो उनका हो रहा है जो अल्पसंख्यकों का खुलेआम उत्पीड़न करते हैं। उनकी धार्मिक आस्थाओं का मज़ाक़ उड़ाते हैं। स्वतंत्रता दिवस के पंद्रह दिन पहले 31 जुलाई को आरपीएफ के कांस्टेबल चेतन सिंह चौधरी ने जयपुर-मुंबई सेंट्रल सुपरफास्ट ट्रेन में आदिवासी समुदाय से आने वाले अपने सीनियर की हत्या के बाद कई डिब्बों में ढूँढ कर तीन मुसलमानों को मारा था। ज़ाहिर है, वे कपड़ों से पहचाने गये थे। अब ये सीसीटीवी फुटेज भी सामने आ गया है कि चेतन सिंह चौधरी ने एक बुर्काधारी महिला को बंदूक की नोक पर ‘जय माता दी’ बुलवाया था। उसने योगी और मोदी को देश के लिए ज़रूरी बताते हुए भाषण भी दिया था। चौधरी को निश्चित ही यह अहसास था कि वह राष्ट्र के लिए बड़ा काम कर रहा है। उसे दिमाग़ी रूप से ‘पागल’ बताने वाले जान लें कि ऐसे पागलों की संख्या बढ़ाने में सरकार की ‘तुष्टीकरण’ की नीति ही ज़िम्मेदार है।
राजनीतिक विशेषज्ञों ने पीएम मोदी के दूसरे कार्यकाल के इस अंतिम स्वतंत्रता दिवस संबोधन को चुनावी भाषण बताया है। कहा गया है कि यह 2024 चुनाव में पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों की संभावित एकता से हो रही परेशानी का सबूत है। लेकिन मसला कहीं ज़्यादा गंभीर है। पीएम मोदी का ‘तुष्टीकरण’ का सवाल उठाना बताता है कि अभी अल्पसंख्यकों के दमन के कई और चक्र चलेंगे। जनसंहार के कगार पर खड़ा भारत उन्हें संतोष नहीं दे रहा है। उनकी सेना कथित राष्ट्रवाद की कुदाल से इस कगार को ढहाने पर आमादा है।
यह सब व्यापक हिंदू समाज को गोलबंद करने के लिए किया जा रहा है ताकि 2024 की राह आसान हो। सवाल ये है कि जो हिंदू समाज अपनी सहिष्णुता और उदारता पर गर्व करता था वह इस ‘अधर्म’ को कब तक धर्म मानता रहेगा? निर्बलों पर अत्याचार को कब तक चुपचाप देखता रहेगा? क्या वह तुलसीदास की दी गयी धर्म की परिभाषा भूल गया है- परहित समर धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई!
परपीड़क कुछ भी हो सकते हैं, धार्मिक तो नहीं हो सकते!!
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