कतिपय सवालों पर गौर करें। मुगल गार्डन’ को ‘अमृत उद्यान’ कहने पर पेट दर्द क्यों हो रहा है? गुलामी के प्रतीकों को खत्म करना क्या गलत है? मुगलों से इतनी मोहब्बत क्यों है? क्या मुगलों के हमदर्द सत्ता में लौटने पर ‘मुगल गार्डन’ का नाम दोबारा बहाल कर देंगे? ये वो सवाल हैं जो जवाब के रूप में पेश किए जा रहे हैं। और वो सवाल हैं कि आखिर ‘मुगल गार्डन’ का नाम बदलने की जरूरत क्या थी? नाम बदलने से क्या रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं, जीएसटी कलेक्शन बढ़ जाता है, गरीबी कम हो जाती है, उत्पादन बढ़ जाता है वगैरह-वगैरह।
लुटियन्स छोड़ क्यों नहीं देते पीएम, मंत्री और सांसद?
लुटियन्स की बनायी दिल्ली में जब प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्री और सांसद अपने-अपने मकानों के आगे अपने नाम चस्पां कर लेते हैं तो क्या उन मकानों का अतीत बदल जाता है? ऐसा जरूर लगता है कि वे मकान उनके हैं जिनके नाम मकान की गेट पर चस्पां हैं लेकिन वास्तव में लुटियन्स के हाथों अंग्रेजों के बनाए इन मकानों में रहने वाले बदलते रहते हैं, मकानों का अतीत नहीं बदलता। अगर इन्हें गुलामी के प्रतीक के तौर पर याद करें तो हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि इन प्रतीकों को खाद-पानी ही देते आए हैं।“
नाम बदलने से प्रतीक चिन्ह नहीं मिटा करते। अगर प्रतीक चिन्ह मिटाना है तो उन्हें नेस्तनाबूत करना होगा। इसके लिए राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट, लाल किला, लुटियन्स डेल्ही समेत देशभर में गुलामी के काल खण्ड में बनी इमारतों को जमींदोज करना होगा। इसके बावजूद गुलामी के इतिहास को बदला नहीं जा सकेगा। एक नयी मानसिक बर्बरता का इतिहास जरूर लिखा जा रहा होगा।
आखिर हम गुलाम हुए ही क्यों थे?
सोचने की जरूरत है कि दुनिया की ‘सर्वश्रेष्ठ’ संस्कृति आतताइयों के हाथों तबाह क्यों हुई? क्यों सनातन धर्मावलंबी कभी ईसाई तो कभी मुसलमानों का गुलाम बनने को विवश हुई? अगर इन सवालों के उत्तर खोज लिए जाएंगे तो आगे भी गुलाम होने की आशंका खत्म हो जाएगी। लेकिन, इन सवालों के उत्तर खोजने के बजाए गुलामी के भग्नावशेषो को मिटाने भर की कार्रवाई इस आशंका को मजबूत करेगी।नफरत चाहे सनातन समाज के भीतर जात-पात के रूप में हो या फिर हिन्दू-मुसलमान के तौर पर धार्मिक रूप में, यह समाज और देश को कमजोर करेगा। कमजोर होकर हम आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सकते। हम ये न भूलें कि आज चीन जैसा विस्तारवादी देश हमें ललचाई नज़र से देख रहा है।
अपनी राय बतायें