जब राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश धरने पर बैठे सदन के निलम्बित सदस्यों को समझाने स्वयं चाय ले कर गए तो देश के सभी प्रजातांत्रिक संस्थाओं में अटूट विश्वास रखने वालों को अच्छा लगा। उनमें गांधीवादी 'अशत्रुता' और गीता का 'रागद्वेषविमुक्ति' का भाव दिखा। लेकिन तर्क की एक सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि शब्दों के मायने सन्दर्भ-स्वच्छंद नहीं होते, लिहाज़ा सत्य की खोज के लिए तर्क-वाक्यों को हमेशा संभाषण के सभी तत्कालीन सन्दर्भों (यूनिवर्स ऑफ़ डिस्कोर्स) में देखा जाना चाहिए। सेलेक्टिव अप्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स से तर्क-वाक्य बनाना दोष माना जाता है।
उप सभापति महोदय! आप ग़लत थे, सही होते तो चाय की ज़रूरत नहीं थी!
- विचार
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- 29 Sep, 2020

भारत सहित दुनिया के केन्द्रीय विधायिकाओं में एक परम्परा रही है कि अगर बिल पर एक भी सदस्य ने मतदान के अवसर पर हाथ खड़ा कर आवाज दे कर 'लॉबी डिवीज़न' यानी स्पष्ट मतदान की मांग की है तो पीठासीन अधिकारी को उसे मानना पड़ता है। पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड जैसे कुछ राज्य विधायिकाओं में स्पीकरों ने अविश्वास प्रस्ताव के दौरान इसकी खुली अनदेखी की, पर संसद के सदनों में इसे संसदीय आचार के खिलाफ माना गया।