सदन में क्या हुआ था?
लेकिन इस बार राज्यसभा में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। पहले तर्क दिया गया कि सदस्य अपनी सीटों पर नहीं थे (मांग करने के लिए सीट से आवाज देना होता है) पर उस समय का वीडियो साफ़ दिखा रहा है कि डिवीज़न यानी मतदान की मांग करने वाले तीनों सदस्य तिरुची शिवा, रागेश और डेरेक ओ ब्रायन अपनी सीट पर थे। 'तीन दशक तक संसद में रहने के बाद यह आधारभूत तथ्य हम सब जानते हैं', इनमें से एक सदस्य ने कहा।आक्रोश तब शुरू हुआ जब इन मांगों की अनदेखी कर दोनों विधेयकों को ध्वनि-मत से पारित करने की प्रक्रिया जारी रखी गयी। तर्क-ब्लाक में से अगर एक भी वाक्य ग़लत होता है तो पूरा ब्लाक ही ग़लत मान लिया जाता है। बहरहाल जब मीडिया के एक भाग ने उप-सभापति का पहला तर्क ग़लत क़रार दिया और काउंटर (टाइम) और मांग के समय उनकी सीट पर मौजूदगी दिखाते हुए तसवीर छापी तो अगले दिन उप-सभापति ने एक वक्तव्य में कहा कि डिवीज़न (वोटिंग) करने के लिए दो स्थितियाँ अपरिहार्य हैं –पहला, सदस्य द्वारा इसकी मांग और दूसरा व्यवस्थित सदन। वक्तव्य में कहा गया कि तिरुची की मांग से पहले ही कुछ सदस्य रूल-बुक फाड़ते हुए आसन तक पहुँच गए जो कि अव्यवस्था का चरम था।
उप सभापति ने क्या किया?
यहाँ प्रश्न है पीठासीन-अधिकारी की भूमिका क्या होती है? सदन सुचारू रूप से चलाना और उसके लिए सहयोग का वातावरण तैयार करना या जब अव्यवस्था हो तभी ध्वनि मत से इतने गंभीर बिल पास करा लेना?अगर पहले अव्यवस्था हुई तो उसे बेहतर करने का क्या प्रयास पीठासीन अधिकारी द्वारा किया गया और अगर मत-विभाजन की मांग सुनने के बाद हुआ तो सदन को व्यवस्थित करने के क्या उपक्रम हुए?ऐसे समय सदन को आर्डर में लाना ज़रूरी था या मांग अनसुनी कर अव्यवस्था के नाम पर एक गंभीर मुद्दे पर बिल ध्वनि- मत से पारित घोषित करना?
अविश्वास प्रस्ताव ख़ारिज
सदन के उपसभापति के ख़िलाफ़ विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव यह कह कर ख़ारिज करना कि 14 दिनों का नोटिस नहीं दिया गया, भी उतना ही अतार्किक था। प्रक्रियात्मक त्रुटि के आधार पर इसे ख़ारिज करना, एक विवादस्पद फ़ैसला था। यह प्रस्ताव तो मात्र आवेदन के रूप में था, जो नोटिस तो स्वीकार होने का बाद बनता।
अविश्वास प्रस्ताव का मतलब!
इसे और गहराई से सोचें। किसी पीठासीन अधिकारी या सरकार के अविश्वास प्रस्ताव का क्या मतलब होता है? इसे इसलिए संसदीय प्रक्रिया में बड़ा मकाम दिया गया है कि किसी सदन का उस व्यक्ति या सरकार पर उसके किसी कार्य- या नीति-विशेष के कारण विश्वास ख़त्म हो गया है।इसका मतलब तो यह हुआ कि सदन में अगर सत्रावसान के 14 दिन के बीच कोई पीठासीन अधिकारी या सरकार चाहे कुछ भी करे, अविश्वास प्रस्ताव महज इसलिए ख़ारिज हो जाएगा कि यह प्रस्ताव सत्रावसान के 14 दिन पहले नहीं दिया गया लिहाज़ा वह स्वतः 'निष्फल' (इन्फ्रक्चुअस) हो जाएगा।
चाय, सत्याग्रह, सभापति और राष्ट्रपति को अपने 'आहत' होने का पत्र और प्रधानमंत्री सहित विश्लेषकों के बीच सकारात्मक 'छवि' की ज़रूरत ही नहीं थी, अगर फ़ैसला तर्क-सम्मत होता।
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