सामाजिक समरसता का शायद एक नया अध्याय लिखा जा रहा है, जिसमें लाश इसलिए जबरिया जलाना पड़ता है कि दुनिया को पता न चले कि लाश पर जार-जार बेबस माँ कैसे रोती है और कैसे सौ-पचास गाँव के लोग वहाँ आ कर आक्रोश में दिखाई देने लगते हैं।
'पॉलिटिकली करेक्ट'
लोगों का आक्रोश में आना न तो 'पॉलिटिकली करेक्ट' स्थिति है न ही भारत के संविधान के अनुरूप क्योंकि इसी संविधान ने तो आर्टिकल 19(2) में आक्रोश की सामूहिक अभिव्यक्ति पर रोक लगाते हुए राज्य को शक्ति दी है कि लोक-व्यवस्था खराब हो तो ऐसे किसी भी अभिव्यक्ति को रोका जा सकता है। फिर अगर सत्ताधारी दल या उसके मुख्यमंत्री के लिए ऐसी स्थिति राजनीतिक रूप से नुक़सानदेह है तो कलेक्टर और एसपी को 'लोक व्यवस्था की नयी परिभाषा' देने में कितनी देर लगती है। यही तो अधिकारी समझा रहा था परिजनों को-मीडिया आज है, कल नहीं (जो नहीं कहा वह इशारों में था -पर पुलिस और उसकी लाठी तो हमेशा 'सेवा' में रहेगी)।घटना के 16 दिन और पीड़िता के मरने के तीन दिन बाद आसानी से अधिकारी कह सकते हैं कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई। अब इसे झूठ कौन ठहराएगा? लाश तो जल चुकी है। हाथरस में मीडिया को गाँव जाने की इज़ाज़त नहीं है और राहुल और प्रियंका गाँधी को तो उस ओर रुख करने की भी नहीं।
अफ़सरशाही का 'न्यू नॉर्मल'!
ये सब अफसरशाही का 'न्यू-नार्मल' है? क्यों नहीं, सिस्टम इस दूषित मानसिकता वाले अफसरों को सिलेक्शन में और दशकों की सेवा के बाद भी पहचान सका? चूंकि भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में ये आईएएस-आईपीएस बेहद ताक़तवर होते हैं, लिहाजा अपने कुकर्मों को छिपाने की शक्ति भी स्वतः मिल जाती है। राजनीति-अफसरशाही दुर्गठजोड़ के तहत आज का मुख्यमंत्री सीधा 10-12 साल की सेवा वाले कलेक्टर/एसपी से बात करता है। लिहाज़ा मध्यम और शीर्ष स्तर के अफ़सर उसे सही रास्ते पर लाने में अक्षम हो जाते हैं।यह युवा अधिकारी सीएम को खुश करने के लिए हर स्याह-सफ़ेद करने को तत्पर होता है। क्या ऐसे में ज़रूरी नहीं कि चयन-प्रक्रिया में भारत के जीडीपी और जीएनपी में अंतर या यूरोप के पुनर्जागरण में धर्म की भूमिका पूछने की जगह ज़्यादा तरजीह उसके नैतिक-गुणक (मोरल कोशेंट) को दिया जाये और इसके लिए टूल्स विकसित किये जाएँ ताकि उस अफसर की प्राथमिकता संविधान-सम्मत समाज-कल्याण और कानून हो न कि तत्कालीन 'राजनीतिक आका'।
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